सिद्ध न होना ही चेतना का प्रमाण

April 1981

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भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य चिकित्सा, शिक्षा दीक्षा और मनोरंजन की पर्याप्त सुविधायें उपलब्ध होते हुये भी लोगों को बुरी तरह अशाँत, क्लान्त, दुःखी और विषादग्रस्त देखा जा सकता है। जीवन निर्वाह के लिये पर्याप्त सुविधा साधन हैं। समृद्धि और सम्पन्नता की दृष्टि से अच्छी खासी स्थिति है फिर भी दुःख, खिन्नता निराशा और शोक क्यों? शरीर निर्वाह और जीवनयापन के लिये जो वस्तुयें या स्थितियाँ आवश्यक हैं, वे प्रचुरता से उपलब्ध होने पर भी असंतुष्ट रहने का कोई कारण नहीं होना चाहिये। फिर लोग क्यों असंतुष्ट और दुःखी दिखाई देते हैं? इसके उतर में हजारों वर्ष पूर्व भारतीय मनीषी कह चुके हैं कि ये उपलब्धियाँ केवल स्थूल या बाह्य जीवन से संबंधित हैं तथा उसी क्षेत्र की आवश्यकता पूरी करती हैं जबकि जीवन की एक आँतरिक स्थिति भी है जिसे चेतना, आत्मा, अन्तःकरण या जीवन का उत्स कहा जा सकता है। उस चेतना के विकास हेतु यदि समुचित कदम न उठाये गये तो बाह्य जीवन में कितने ही सुविधा साधन क्यों न बढ़ाये जांय मनुष्य अतृप्त और खिन्न ही रहेगा। नदी जहाँ से निकल कर बहती है, यदि वहीं कोई विकृति है तो नदी का जल सागर पर्यन्त दूषित ही रहेगा, मार्ग में उसकी शुद्धि, के लिये चाहें जितने ही प्रयास क्यों न किये जांय। गंगा का पानी सागर तक इसलिये निर्मल है कि हिमालय के जिस क्षेत्र से वह निकलती है, वहीं प्रकृति उसे उपचारित संस्कारित कर देती है और फलस्वरूप उसका प्रवाह इतना प्रभावपूर्ण रहता है। कि मार्ग में अनेक नदी नाले मिलने पर भी गंगाजल की निर्मलता अक्षुण्ण रहती है।

बाह्य-जगत को ही सब-कुछ मान लेना, जड़-तत्वों से बने शरीर को ही सर्वस्व समझ लेना और स्थूल जगत के अतिरिक्त किसी सूक्ष्म सत्ता का अस्तित्व स्वीकार न करना जड़वाद का ही समर्थन है और जड़वाद चेतन सत्ता के लिये जड़ता की स्थितियाँ उत्पन्न कर जीवन को जड़ ही बनाता है। यह अपने युग का दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिये कि इन दिनों चेतना के अस्तित्व को झुठलाने की प्रवृत्ति ही प्रधान है। कोई आवश्यक नहीं है कि तर्कों, विचारों और प्रतिपादनों से ही चेतना के अस्तित्व को झुठलाया जाय। मौखिक रूप से उसके अस्तित्व को स्वीकारते हुये भी चेतना के विकास की कोई व्यवस्था न करना, उसके लिए प्रयास न करना भी चेतना के अस्तित्व को नकारना है। जिस चेतना ने जड़ पदार्थों को साज संभालकर सुँदर एवं उपयोगी बनाया, जिस चेतना ने अपनी सूक्ष्म बुद्धि से प्रकृति के अनेकानेक रहस्यों का पता लगाया और उनसे लाभान्वित होने की स्थिति उपलब्ध कराई उसी चेतना के अस्तित्व को विस्मृत किया जाने लगे तो यह ठीक वैसा ही होगा जैसा कि मित्र परिचितों से मिलने के लिये जाते समय उसके मकान की दीवारों को ही देखकर, उन्हीं से बात कर चले आना और मित्र परिचितों से मिले बिना ही इतने मात्र से मिलन का उद्देश्य पूरा हो गया समझना।

यह ठीक है कि हम इस शरीर के माध्यम से ही चेतना का अस्तित्व अनुभव करते हैं किन्तु वह उतने तक ही सीमित नहीं है। सही बात तो यह है कि शरीर के बिना भी उसका अस्तित्व बना रह सकता है, जबकि शरीर का अस्तित्व उसके बिना बने रहने का कोई उपाय नहीं है। प्रश्न उठता है इस चेतना को कैसे समझा जाय? प्रकृति के सूक्ष्म स्वरूप को तो यंत्र, उपकरणों के माध्यम से समझा जा सकता है, उनके माध्यम से जड़ पदार्थों का भी विश्लेषण किया जा सकता है किन्तु चेतना को परखने के लिये अभी तक कोई यंत्र उपकरण नहीं बन सका है, न ही निकट भविष्य में उसके बन सकने की कोई संभावना है। क्योंकि भौतिक उपकरण अपने सहधर्मी भौतिक पदार्थों को ही पहचान और पकड़ सकते हैं। शरीर और उनकी अनुभूतियां भी तत्वों से बने परमाणु परक पदार्थों के आधार पर ही कुछ निष्कर्ष निकालती तथा रस लेती हैं। मशीन भी धातुओं से ही बनती और विद्युत या भाप जैसी भौतिक ऊर्जाओं से चलती है। ऐसी दशा में उनका परख क्षेत्र स्थूल या सूक्ष्म दृश्य अथवा अदृश्य जड़-जगत तक ही सीमाबद्ध रहता है। चेतना को समझने का कोई यंत्र बन सका तो वह चेतना ही होगा क्योंकि उसे केवल वही अनुभव कर सकती है।

आत्मा और परमात्मा को प्रयोगशालाओं में अब तक इसी कारण सिद्ध नहीं किया जा सका है कि ये अभौतिक हैं जबकि प्रयोगशालाओं के सभी यंत्र, उपकरण भौतिक ही हैं और इसी कारण वैज्ञानिकों ने इन दोनों की सत्ता को अस्वीकार कर दिया। वे शरीर को चलता-फिरता पौधा मात्र मानते हैं और उसकी चेतना को मस्तिष्कीय हलचल मात्र मानते हैं। मस्तिष्क तो शरीर का ही अंग है। इसलिए वे आत्मा की परिभाषा शरीर तक ही सीमित रखते हैं और मृत्यु के साथ ही आत्म की समाप्ति की बात भी कहते हैं। परमात्मा के संबंध में भी उनकी इसी प्रकार की मान्यता है। प्रकृति व्यवस्था को वे स्वसंचालित मानते हैं। सृष्टि में चल रही विभिन्न व्यवस्थाओं को वे अपने आप अपने ढर्रे या धुरी पर घूमती हुई बताते हैं और इसमें किसी ईश्वर का नियंत्रण या हस्तक्षेप होने की बात सिरे से इन्कार करते हैं।

वैज्ञानिक अनुसंधानों के प्रचलित ढर्रे को अपनाते हुये चेतना के अस्तित्व को प्रमाणित करने में कठिनाई यह है कि विज्ञान जगत प्रत्यक्ष भौतिक प्रयोग परीक्षणों को ही सब कुछ मान बैठता है और प्रयोगशाला की सिद्धि को ही प्रामाणिक मानता है जबकि तर्क और तथ्य यह कहते हैं कि इस विश्व के रहस्यों को, विशेषतया चेतना संबंधी सत्य को जानने के लिये प्रयोगशालाओं तक ही सीमित नहीं रहा जा सकता। सही बात तो यह है कि प्रयोगशालाओं में भौतिक उपकरणों से चेतना का अस्तित्व सिद्ध किया भी नहीं जा सकता और कदाचित करा भी लिया गया तो वह चेतना नहीं होगी, क्योंकि जो चेतन है, अभौतिक है, वह जड़ भौतिक की पकड़ में कहाँ से आयेगी? और आ गई तो चेतना तो कहाँ रही? हवा को मुट्ठी में बाँध लेने की तरह ही चेतना को प्रयोगशालाओं में सिद्ध कर पाना असंभव है। हवा को मुट्ठी में बंद कर लेना भले ही संभव हो जाय, पर जड़ यंत्रों से चेतन सत्ता की पहचान, पकड़ कदापि संभव नहीं है। क्यों कि दोनों एक ही अस्तित्व के अंग होते हुये भी क्षेत्र की दृष्टि से भिन्न हैं। आँखों से जिस प्रकार सुना नहीं जा सकता और कानों से जिस प्रकार देख पाना असंभव है उसी प्रकार जड़ यंत्रों के माध्यम से चेतना को पहचान पाना कठिन है।

इतने पर भी चेतना के अस्तित्व को प्रमाणित करने वाले पर्याप्त कारण हैं, जो उसके लक्षणों में परिलक्षित होते हैं। बुखार का कोई आकार-प्रकार, स्वरूप या स्वाद नहीं होता, केवल उसके लक्षण ही अनुभव किये जाते हैं और उसी आधार पर बुखार की पहचान की जाती है। इसी प्रकार चेतना को सिद्ध करने का कोई उपाय न होने पर भी उसके अनेकों लक्षण और असंख्यों प्रमाण हैं जो चेतना के अस्तित्व को पहचानने की दृष्टि प्रदान करते हैं। मरने के बाद भी जीव चेतना का अस्तित्व बना रहता है, इस तथ्य की पुष्टि में प्रेतात्माओं की हलचलें तथा पुनर्जन्म की ऐसी घटनायें प्रस्तुत की जा सकती हैं जो प्रामाणिक व्यक्तियों के अनुभव में आई हैं तथा अनेकों अधिकारी मर्मज्ञों ने उनका विश्लेषण किया है। पुनर्जन्म के ऐसे अगणित प्रमाण मिले हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि पिछले जन्म में इस व्यक्ति की चेतना अमुक परिवार का सदस्य थी। ऐसे व्यक्तियों ने अपने पिछले जन्म के विवरण इस प्रकार खोलकर बता दिये मानो वही व्यक्ति सामने आ गया है। किसी ने सिखा पढ़ाकर पुनर्जन्म की स्मृति का कौतूहल तो नहीं खड़ा कर दिया, इस आशंका की काट उन प्रमाणों से मिलती है। जिनमें बालकों ने अपने पिछले जन्म के संबंधियों को पहचाना और उनका नाम लेकर पुकारा है। इसी प्रकार उनने ऐसी घटनायें सुनाईं जो नितान्त व्यक्तिगत थीं और परिवार में भी एकाध व्यक्तियों को छोड़कर किसी को मालूम नहीं थी। इस तरह की घटनाओं में जमीन में गढ़ा हुआ धन बताकर उसे निकलवाना पुनर्जन्म का सशक्त और ठोस प्रमाण हो सकता है। प्रेतात्माओं के अस्तित्व और पुनर्जन्म के सिद्धान्तों को यदि प्रयोगशाला में सिद्ध होने वाले तथ्यों की तुलना में माना जा सके तो फिर आत्मा और परमात्मा के अस्तित्व में सन्देह की कोई गुँजाइश नहीं रह जाती।

‘द ह्यूमन परसनैलिटी एण्ड इट्स सटवाइबल आफ बॉडीली डैथ’ नामक पुस्तक में ऐसे अनेक उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं, जो शरीर से पृथक आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करते हैं। कई उदाहरण तो एक व्यक्ति के शरीर में दूसरे व्यक्ति की आत्मा द्वारा आधिपत्य करने तथा फिर उसे गुम कर देने के हैं। साथ ही संगीत, गणित ललितकलाओं आदि में अद्भुत क्षमता व प्रवीणता वाले बच्चों के उदाहरण भी हैं, जिनका असाधारण ज्ञान पूर्वजन्म की संचित सामग्री ही सिद्ध होता है।

प्रयोगशालाओं में सिद्ध न होने पर भी कई वैज्ञानिकों ने चेतना के अस्तित्व को अनुभव किया है तथा उसकी व्याख्या करने की चेष्टा की है, भौतिकी के आचार्य राबर्ट मायर ने ऊर्जा के दर्शन पर जा खोजें की हैं, वे बताती हैं कि उसकी अधिकाधिक सूक्ष्म स्थिति में जो तत्व शेष रह जाता है, उसे चेतना की संज्ञा दी जा सकती है। यह उच्च स्तर पर एक रस और सर्वव्यापी स्थिति में भी गतिशील बनी रहती है।

सुप्रसिद्ध मनोविज्ञानी जे.बीज.राइन ने मानवी मनःचेतना को पराजागतिक और पराभौतिक की संज्ञा दी है। वे उसका स्वरूप विद्युतीय एवं चुम्बकीय स्तर की ऐसी इकाई के रूप में मानते हैं जो मरने के बाद भी अपनी सत्ता बनाये रहता है। उसमें इसके प्रबल संकल्प भी जुड़े रहते हैं जिनके सहारे पुराने स्तर की तथा नये प्रकार की किसी आकृति का सृजन और धारण किया जा सके। उनकी दृष्टि में यह व्यक्ति चेतना दृश्य अथवा अदृश्य स्थिति में अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रहने में पूर्णतया समर्थ है।

सापेक्षवाद के प्रणेता सुप्रसिद्ध आइंस्टीन ने सृष्टि के मूल में चेतना को ही सक्रिय माना था और यह भी कहा था कि यंत्रों तथा उपकरणों के माध्यम से उसे प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं किया जा सकता यदि यंत्रों और उपकरणों से चेतना जैसा कोई अस्तित्व सिद्ध कर भी लिया गया तो वह चेतना नहीं होगा। नोबेल पुरस्कार विजेता भौतिक शास्त्री पियरे दि कोन्ते ने आत्मा को विश्वात्मा से संबंधित बताया है तथा इसी आधार पर उसे अमर सिद्ध किया है क्योंकि विश्व चेतना अमर है और आत्मा उसी का घटक, एक छोटा-सा अंशमात्र है।

भारतीय दर्शन और संस्कृति आदिकाल आत्मा की अखण्डता और अनश्वरता के प्रति आस्थावान है। अणुमात्र होकर भी वह सम्पूर्ण शरीर पर आधिपत्य रखता है। मनीषियों ने इसी तत्त्वदर्शन के आधार पर भौतिक जीवन को समृद्ध, सम्पन्न तथा उन्नत बनाते हुये आत्मिक विकास करते रहने का मार्गदर्शक किया था और इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अनेक विधियों उपायों का दिग्दर्शन किया था।

वे उपाय और विधियाँ आज भी प्रभावपूर्ण हैं तथा उनके परिणाम देखे, प्राप्त किये व अनुभव किये जा सकते हैं। दुर्भाग्य से इन दिनों जीवन की अंतरंग मूल सत्ता को वाद-विवाद का विषय बनाकर उलझा दिया गया है अथवा उसे वाणी विलास का विषय मात्र मान लिया गया है। इसके विकास की ओर कम ही ध्यान दिया जा रहा है। परिणाम सामने है, समग्र, सुख-सुविधाएं और समृद्धि, साधन के उपकरण उपलब्ध रहते हुए भी मनुष्य असंतुष्ट खिन्न उदास और दुखी-सा है।

सर्वांगपूर्ण योग साधना का प्रयोजन अपनी आत्मिक चेतना का विकास करने के साथ-साथ भौतिक जीवन को सुदृढ़ और सुविकसित बनाना भी है। इससे दानों ही प्रयोजन पूरे होते हैं। योग्य साधन के क्षेत्र में जितनी ही सफलता मिलती जाती है मनुष्य उतनी ही मात्रा में उस वैभव को हस्तगत करता और उस पर आधिपत्य जमाता चलता है, जिसके प्रभाव को हम जड़ चेतन में अपने चारों ओर बिखरा हुआ अनुभव करते हैं। भौतिक जीवन तक ही अपने आपको सीमाबद्ध रखने के कारण मनुष्य दलील और दरिद्र होता जाता है, पर आत्मिक चेतना को यदि विकसित किया जा सके तो विराट् चेतना के साथ जुड़कर महानता प्राप्त करने में कोई कमी नहीं रह जाती।


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