कुण्डलिनी का ज्योति दर्शन

April 1981

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

साधना एकांगी नहीं समग्र, समन्वित और उभयपक्षीय होनी चाहिए तथा सफलता का योग बनता है। इसके लिए ज्ञान और शक्ति की समन्वित साधना होनी चाहिए। आद्य शंकराचार्य ने वेदान्त परक ज्ञानयोग का ही मुख्य रूप से प्रतिपादन किया है, लेकिन उनके स्वयं के जीवन में भी शक्ति की आवश्यकता पड़ी, सो उसके लिए कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया उन्हें भी अपनानी पड़ी। शंकराचार्य ने अपने कुण्डलिनी अनुभव ‘सौंदर्य लहरी’ नाम ग्रन्थ में किये हैं, जो अपने विषय का अनूठा धर्म ग्रन्थ है।

वस्तुतः समग्र अध्यात्म का स्वरूप ही समन्वयात्मक है। उसमें परा और अपरा प्रकृति के ज्ञान और कर्म के समन्वय की व्यवस्था है। जीवाग्नि का काम बीज और ब्रह्माग्नि का ज्ञानबीज दोनों को आध्यात्म अलंकार में नर-नारी जैसे संयोग, सम्भोग के रूप में रज और वीर्य के रूप में चित्रित करते हुए यही कहा गया है कि इनका मिलन ही सफलताओं का स्त्रोत है। कुण्डलिनी तत्वज्ञान एवं साधना विज्ञान की समन्वयात्मक साधना विधा में इसी तथ्य का पूरी तरह समावेश हुआ है। इसलिए उसकी सरलता, यथार्थता और सफलता भी असंदिग्ध होती है। कुंडलिनी साधना से व्यक्तित्व की प्रखरता और कर्तृत्व की विशिष्टता दोनों के ही प्रयोजन पूरे होते हैं। अन्तरंग और बहिरंग दोनों क्षेत्रों में उसमें असाधारण उत्कर्ष एवं उल्लास का पथ प्रशस्त होता है।

शिव और शक्ति दोनों का ही अध्यात्म शास्त्र में अग्नि के रूप में उल्लेख है। यह अग्नि चूल्हे में जलने वाली आग नहीं वरन् जीवन अग्नि ही समझी जानी चाहिए। नीचे की अग्नि जीवाग्नि को चन्द्राग्नि कहते हैं। चन्द्रमा में जो ज्योति दिखाई देती है, वस्तुतः वह सूर्य का ही प्रतिबिम्ब है। मस्तिष्क में अव्यवस्थित शिव रूप सूर्याग्नि ही प्रकारान्तर से कुण्डलिनी की अग्नि बन कर चमकती है। इसी को सोम और अमृत का नाम भी दिया जाता है। नाम रूप जो भी हो शिव और शक्ति को- कुण्डलिनी और ब्रह्मरन्ध्र को अग्नि के अलंकार से संबोधित करते हुए उसका संकेत जीवन अग्नि के इन दो शक्ति स्त्रोतों, ध्रुवों और सूर्य, चन्द्र युग्मों से हुई है। साधना ग्रन्थों में इसकी चर्चा इस प्रकार मिलती है।

तस्य सर्व्वजगन्मूर्त्तिः शक्तिर्मायेति विश्रुता। स कालाग्निर्हरो देवो गीयते वेदवादिभिः॥ -कूर्म पुराण

वे शिव कालाग्नि रूप हैं ऐसा वेदवादियों ने कहा है। उनकी शक्ति-काल विश्वमूर्ति है।

तस्य मध्ये महानग्निर्विश्वाचिर्विश्वतोमुखः। तस्य मध्ये वह्निंशिखा अणीयोर्ध्वा व्यवस्थिता। तस्याः शिखाया मध्ये परमात्मा व्यवस्थित॥ -चतुर्वेदोपनिषद् 5

उसके बीच प्रचण्ड अग्नि की ज्वालायें चारों ओर धधकती हैं। उन लपटों के मध्य एक अग्नि शिखा- अणु शक्ति है। उसी के बीच परमात्मा की स्थिति है।

ज्वालामालासहस्राढ्यं कालानलशतोपमम्। दृंष्ट्राकरालंदुर्द्धर्षं जटामंडलमण्डितम्॥ -कूर्म पुराण

ज्वालाओं की सहस्रों ही मालाओं से समन्वित तथा सैकड़ों कालानल के समान था। कराल दृष्टाओं से युक्त, अत्यन्त दुर्धर्ष एवं जटाओं के मण्डल से मण्डित स्वरूप था।

योग कालेन न मरुता साग्निना बोधिता सती। स्फुरिता हृदयाकाशे नागरूपा महोज्ज्वला॥ -त्रिशिखि ब्राह्मणोपनिषद् 64

योग साधना से प्राण प्रयोग द्वारा, प्रज्वलित अग्नि के समान इस कुण्डलिनी शक्ति को जागृत किया जाता है। वह हृदयाकाश में सर्प की गति से बिजली जैसी चमकती है। तथेति स होवाच-

आधारे ब्रह्मचक्रं त्रिरावृत्तभंगिमंडलाकारं तत्र मूलकंदे शक्तिः पावकाकार ध्यायेत् तत्रैव कामरूप पीठं र्वकामप्रदं भवति इत्याधारचक्रम्॥

तृतीय नाभिचक्रं पंचावर्तं सर्पकुटिलाकारं तन्मध्यं कुंडलिनी बालार्ककोटिप्रभां तटित्सनिभां ध्यायेत् सामर्थ्यशक्तिः सर्वसिद्धिप्रदा भवति मणि- पूरकचक्रम्॥ -सौभाग्य लक्ष्युपनिषद् 3।1-3

उनने कहा- मूलाधार में योनि के आकार का तीन घेरे वाला ब्रह्म चक्र है। वहाँ सुप्त सर्पिणी की तरह कुंडलिनी शक्ति का निवास है। जब तक वह जागृत न हो तब तक उस स्थान पर प्रचण्ड अग्नि की धधकती हुई ज्वाला का ध्यान करें।

प्रातः काल के अरुण सूर्य की तरह आभावती बिजली की तरह चमकती हुई, इस कुंडलिनी को ध्यान द्वारा जागृत करते हैं। जागृत होने पर यह अनंत सामर्थ्यवान बना देती है और समस्त सिद्धियां प्रदान करती है।

जातां तदानीं सुरसिद्धसंघा दृष्टवा भयाद्दुद्रु वुरग्निकल्पाम्। कालीं गरालंकृतकालकंठीमुपेंद्रपद्मोद्भ गशक्रमुख्याः॥ -लिंग पुराण

महाविष से समलंकृत कण्ठ वाली अग्नि के सदृश स्वरूप वाली उस अवतीर्ण भगवती काली को देखकर ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्र समस्त देवगण भय से भगाने लगे थे।

महायोग विज्ञान में लिखा है कि मूलाधार चक्र में आत्म-ज्योति अग्नि रूप दिखती हैं। स्वाधिष्ठान चक्र में वह प्रवाल अंकुर-सी प्रतीत होती है। मणिपूर में विद्युत जैसी चमकती है। नाभि चक्र में बिजली जैसी चमकती है। हृदय कमल में वह लिंग आकृति की प्रतीत होती है। कण्ठ चक्र में वह श्वेत वर्ण, तालु चक्र में शून्याकार एक रस अनुभव में आती है। भू चक्र में अंगूठे के प्रमाण में जलती हुई दीप शिखा जैसी भासती है। आज्ञाचक्र धूम शिखा जैसी और सहस्रार चक्र में चमकते हुए परशु जैसी दिखती है।

यह सभी ज्योतियाँ एक ही हैं। सभी में आत्म-ज्योति है। सभी परम आनन्ददायिनी हैं। विधा शक्ति कुँडलिनी की क्रीड़ा से एक ही अग्नि की अनेक चिनगारियों की तरह यह अनेक तरह की प्रतीत होती है। कहा गया है-

अपाने चोर्ध्वगे याते संप्राप्ते वह्निमंडले। ततोऽनलशिखा दीर्घा वर्धते वायुना हत्ता॥ ततो यातौ वह्नयपानौ प्राणमुष्णस्वरूपकम्। तेनात्यन्तप्रदीप्तेन ज्वलनो देहजस्तथा॥ तेन कुंडलिनी सुप्ता संतप्ता संप्रबुध्यते। दन्डाहतभुजंगीव निश्वस्य ऋतुतां व्रजेत्॥ -योग कुंडल्युपनिषद् 1।43,44,45

उस अग्नि मण्डल में जब अपान प्राण जाकर मिलता है तो अग्नि की लपटें और तीव्र हो जाती हैं। उस अग्नि से गरम होने पर सोई हुई कुंडलिनी जागती है और लाठी से छेड़ने पर सर्पिणी जिस प्रकार फुसकार कर उठती है वैसे ही यह कुंडलिनी भी जागृत होती है।

प्राणस्थानं ततो वह्नि प्राणापानौ च सत्वरम्। मिलित्वा कुंडलीं यति प्रसुप्ता कुंडलाकृति॥ तेनाग्निना च सतप्ता पवनेनैव चालिता। प्रसाय स्वशरीरं तु सुषुम्नाबदनान्तरे॥ -योग कुंडल्युपनिषद् 1।65,66

अग्नि स्थान में प्राण के पहुँचने से उष्णता से संतप्त कुंडलिनी अपनी कुंडली छोड़कर सीधी हो जाती है। और सुषुम्ना के मुख में प्रवेश करती है।

चित्रों में शिव को जमीन पर लेटा हुआ और शक्ति को उनकी छाती पर खड़ा हुआ चित्रित किया जाता है। वह कुंडलिनी जागरण के अवसर पर मूलाधार स्थिति प्राणाग्नि का सुषुप्ति अवस्था त्याग कर ब्रह्मरंध्र शिव संस्थान में जा पहुँचना और सहस्र कमल स्थिति सोम अमृत के मूलाधार की ओर स्त्रवति होने की साधना विज्ञान सम्मत प्रक्रिया का ही दिग्दर्शन है। दस देवियों के चित्रों में विपरीत रति उल्लेख हैं। उस समागम में शिव को नीचे और शक्ति को ऊपर बताया जाता है। जागृत अवस्था में कुँडलिनी की समर्थता और प्रमुखता का जीवन के हर क्षेत्र में छा जाना- यह इस चित्रण का संकेत है। वृहज्जावालोपनिषद् में इसकी चर्चा इस प्रकार है-

अग्नीषोमात्मकं विश्वमित्याग्निराचक्षते। सोम शक्त्यामतमय शक्तिकरी तनः॥ अमृतं यत्प्रतिष्ठा सा तेजो विद्याकला स्वयम्। स्थूलसूक्ष्मेषु भूतेषु स एव रसतेजसि (सी)॥ वैद्युदादिमयं तेजो मधुरादिमयो रसः। तेजो रसविभेदैस्तु वृत्तमेतच्चराचम्॥ अग्नेरमृतनिष्पत्तिरमृतेनाग्निरेधते। अतएव हविः क्लृप्तग्नीषोमात्मक जगत्॥ अग्ने (अग्नि) रूर्ध्वं भवत्येषा (ष) यावत्सौम्यं परामृतम्। यावदग्न्यात्मकं सौम्यममृतं विसृजत्यधः॥ अतएव हि कालाग्निरधस्ताच्छाक्रिर्धर्वगा। यावदादहनश्चीर्ध्वमघस्तात्पवनं भवेत्॥ -वृहज्जावलोपनिषद् ब्राह्मण 2

अग्नि और सोम इन दोनों के संयोग से यह जगत बना है। सोम में अमृत शक्ति भरी है। अग्नि में विद्या और कला का निवास है। सोम और अग्नि का तेज सब प्राणियों में विद्यमान है।

अग्नि जब ऊपर आती है तब सोम को ग्रहण करती है। तब सोम अग्नि के रूप में परिवर्तित होकर नीचे की ओर चलता है। इस प्रकार रुद्र नीचे हैं और शक्ति ऊपर।

ज्ञान शक्ति को शिव और क्रिया शक्ति को कुंडलिनी कहते हैं। इन दोनों का समन्वय सम्मिलन जब जीवन-अग्नि को प्रदीप्त ज्वालाओं की तरह आलोकित होता है तो मन मलीन, असफल और अस्त-व्यस्त जीवन-क्रम एक अभिनव उत्कर्ष और उल्लास की परिस्थितियों से भर जाता है। उस ज्वलंत शक्ति से अप्रभावित व्यक्ति का कोई भी दृश्य-अदृश्य काम शेष नहीं रहता। समस्त विश्व में संव्याप्त इस महा अग्नि का कुंडलिनी साधना द्वारा एक अंश जब व्यक्तिगत जीवन में उपलब्ध कर लिया जाता है तो प्रगति की अनेक सम्भावना अप्रत्याशित रूप से सामने आ उपस्थित होती है- इसी अनुभव के आधार पर साधना विज्ञान के अनुभवी मनीषियों के कुंडलिनी जागरण की चर्चा करते हुए लिखा है-

शक्ति कुंडलिनोति विश्वजननव्यापारबद्धोद्यमा। ज्ञात्वे थं त तुुनकर्विशन्ति जननागर्भेऽर्भकत्वंनराः॥ -शक्ति तंत्र

कुंडलिनी महाशक्ति के प्रयत्न से ही संसार का सारा व्यापार चल रहा है। जो इस तथ्य को जान लेता है वह शोक-संताप भरे बंधनों में नहीं बंधा रहता।

कूजंती कुलकुंडली च मधुरं मत्तालिमालास्फुटं, वाचः कोमलकाव्यवंधरचनाभेदातिभेदक्रमैः। श्वासोच्छ्वासविभंजनेन जगतां जीवो यया धार्यते। सा मूलांबुजगह्वरे विलसति प्रोद्दामदीप्त्यावलिः॥ -षट्चक्र निरुपणम् 12

कुंडलिनी शक्ति के जागृत होने पर वाणी में मधुरता आ जाती है। काव्य, कला और साहित्य से प्रगति होती है। यह मूलाधार चक्र में दीप शिखा जैसी चन्द्र ज्योति जैसी प्रकाशित है।, प्राण वायु द्वारा यह धारण की जाती है।

मूलाधारे आत्मशक्तिः कुंडलिनी परदेवता। शायिता भुजगाकारा सार्द्धत्रय बलयान्विता॥ यावत्सा निद्रिता देहे तावज्जीवः पशुर्यथा। ज्ञानं न जायते तावत् कोटिमोगविधेरपि॥ आधार शक्ति निद्रायां विश्वं भवति निद्रया। तस्यां शक्तिप्रबोधेन त्रैलोक्यं प्रति बुध्यते॥ -महायोग विज्ञान

आत्मशक्ति कुंडलिनी मूलाधार चक्र में साढ़े तीन कुंडलिनी लगाये हुए सर्पिणी की तरह शयन करती है। जब तक वह सोती रहती है तब तक जीव पशुवत् बना रहता है। बहुत प्रयत्न करने पर भी तब तक उसे ज्ञान नहीं हो पाता। जिसकी यह आधार शक्ति सो रही है उसका सारा संसार ही सो रहा है। पर जब वह जागती है तो उसका भाग्य और संसार ही जाग पड़ता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118