नाद योग और शब्द ब्रह्म की साधना

April 1981

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योग शास्त्र का लक्ष्य है ब्रह्माण्ड-व्यापी मूल सत्ता से जुड़ना। उस परम एकत्व की अविराम अनुभूति। इस अनुभूति को विकसित करने की अनेकों विधियाँ हैं, अनेकों पद्धतियाँ हैं। कोई भी विधि उस लक्ष्य तक पहुँचने की एक मात्र विधि नहीं है।

विश्व में जितने भी पदार्थ हैं सभी के मूल में एक ही तत्व अंतर्निहित है। मूल रूप में यह चेतन-ऊर्जा अव्याख्येय है। इस अव्याख्येय चेतना-ऊर्जा का विविध रूपों में रूपांतरण होता रहता है तथा हो सकता है। योग-साधना की भिन्न-भिन्न प्रक्रियाओं में इस चेतना-ऊर्जा की किसी धारा विशेष को लेकर विस्तृत ढांचा खड़ा किया गया है।

योग शास्त्र के इन अनेकानेक साधना-विधानों में एक महत्वपूर्ण धारा नादयोग की भी है। कानों को उँगलियों से या शीशी वाली कार्क से इस प्रकार बन्द किया जाता है कि बाहर की वायु या स्थूल आवाजें भीतर प्रवेश न कर सकें। इस स्थिति में कानों को बाहरी ध्वनि-आधार से विलग किया जाता है, और ध्यान को एकाग्र करके यह प्रयत्न किया जाता है कि अतीन्द्रिय जगत से आने वाले शब्द प्रवाह को अंतःचेतना द्वारा सुना जा सके। यों इसमें भी कर्णेंद्रिय का, उसकी शब्द तन्मात्रा का योगदान तो रहता ही है। पर वह श्रवण वस्तुतः उच्चस्तरीय चेतन जगत की ध्वनि लहरी सुनने के लिये है। कर्णेंद्रिय और अंतःकरण का इसे संयुक्त प्रयास भी कह सकते हैं। यह संयुक्त प्रयास जिस सूक्ष्म ध्वनि-प्रवाह में नियोजित किया जाता है, वह है तो अभिन्न ही। क्योंकि पिण्ड ब्रह्माण्ड का अभिन्न अंश है। किन्तु ध्यान के संकल्प भेद तथा चेष्टा भेद से कोई साधक अनन्त अतीन्द्रिय जगत की सूक्ष्म ध्वनियों के श्रवण का अभ्यास आरम्भ करता है, कोई अन्य अपनी ही अंतर्ध्वनि के श्रवण का।

अपने ही सूक्ष्म एवं कारण शरीरों में सन्निहित श्रवण शक्ति को यदि विकसित किया जा सके तो अन्तरिक्ष में निरन्तर प्रवाहित होने वाली उन ध्वनियों को भी सुना जा सकता है जो चमड़े से बने कानों की पकड़ से बाहर हैं। सूक्ष्म जगत की हलचलों का आभास इन ध्वनियों के आधार पर हो सकता है। भिन्न अभ्यास पद्धति द्वारा यदि प्रारम्भ में उन सूक्ष्म ध्वनि प्रवाहों को सुनने की शक्ति अर्जित की जाती है, तो वही सामर्थ्य आगे चलकर सूक्ष्म एवं कारा शरीर में गूँजने वाली ध्वनियों की भी जानकारी पीने का माध्यम बन जाती है। इस प्रकार यह मात्र आरंभिक भेद है।

नाद संकेत वे सूत्र हैं जिनके सहारे परमात्मा के विभिन्न शक्ति स्त्रोतों के साथ हमारे आदान-प्रदान सम्भव हो सकते हैं। टेलीग्राम, टेलीफोन, वायरलैस, टेलीविजन पद्धतियों का आश्रय लेकर हम दूरवर्ती व्यक्तियों के साथ अनुभूतियों का आदान-प्रदान करते हैं? उसी प्रकार नाद-साधना के सहारे ब्रह्मांडीय चेतना से संपर्क स्थापित कर उससे चेतनात्मक आदान-प्रदान किया जाता है। साधना की आरम्भिक क्रिया द्विविध है- बाह्य और अंतरंग। बैठना दोनों में एक ही तरह से होता है। अन्तर मात्र ग्रहण व प्रेषण का होता हैं बाह्य-नाद को भी ब्रह्मनाद का श्रवण कहा जाता है।

नादयोग की साधना विधि का उल्लेख शिवपुराण में इस प्रकार है-

सुश्वासेन सुशय्यायां योगं पुंजीत योगवित्। दीपं विनांधकारे त प्रजाः सुप्तेषु धारयेत्॥ तर्जन्या विहितौ कर्णौ पीडयित्वा मुहूर्त्तकम्, तस्मात्संश्रूयते शब्द स्तुदंवहि समुभ्दवः॥ न श्रृणोति यदा श्रृंचन्योगाम्यासेन देविके। तस्मादुत्पद्यते शब्दा मृत्युजित्सप्तभिर्दिनैः॥

अर्थात्- लोगों के सो जाने पर थोड़ी रात्रि बीत जाने पर घोर अंधकार में- अच्छे आसन पर सौम्य श्वांसें लेता हुआ योगी नादयोग की साधना करें। तर्जनी उँगलियों से कानों के छेद बन्द रखें और अग्नि तत्व प्रेरित सूक्ष्म शब्दों को श्रवण करें। जब तक शब्द सुनाई न पड़े तब तक अभ्यास जारी रखें। प्रायः अभ्यास सातवें दिन से शब्द सुनाई पड़ता है।

नाद-योग के द्वारा सुनी जाने वाली ये दिव्य ध्वनियाँ अनन्त अन्तरिक्ष में बिना किसी प्रकृतिगत हलचल का आश्रय लिये स्वयमेव विनिःसृत होती रहती है। ये चेतन हैं, दिव्य हैं, अलौकिक, अभौतिक और अतींद्रिय हैं। इसीलिए इन्हें देव वाणी भी कहते हैं। उन्हें नादयोग के माध्यम से हमारा चेतन अन्तःकरण सुन सकता है। श्रवण का सम्बन्ध कर्णेन्द्रिय से है। अस्तु, सूक्ष्म एवं चेतन श्रवण भी शब्द-संस्थान के इसी प्रतिनिधि केन्द्र का सहारा लेकर सुना जाता है। इस तथ्य को समझने पर ही नाद-साधना में वास्तविक प्रगति संभव है।

नाद संकेत वे सूत्र हैं जिनके सहारे परमात्मा के विभिन्न शक्ति-स्त्रोतों के साथ सूक्ष्म संपर्क संभव है। सूक्ष्मता को न समझा गया तो फिर स्थूल जगत की ही ध्वनियाँ सुनाई पड़ेंगी। उनसे भी कुछ भौतिक लाभ संभव है। किन्तु अध्यात्म का क्षेत्र सूक्ष्मता का ही है।

नाद योग के अभ्यास से आत्मचेतना को परिष्कृत ओर सूक्ष्म शरीर की कर्णेंद्रिय तन्मात्रा शब्द को परिष्कृत किया जाता है। इस आधार पर अदृश्य एवं अविज्ञात से संपर्क साधा जाता है और अतींद्रिय सामर्थ्य विकसित होती है।

नाद साधना के क्रमिक अभ्यास पर प्रकाश डालते हुये कहा गया है-

श्रूयते प्रथमाभ्यासे नादो नानाविधो महान्। वर्धमाने तथाभ्यासे यते सूक्ष्मातिसूक्ष्मतः॥ आदौ जलधि जामूतभेरी निर्झर सम्भवः। मधे मर्दल शब्दाभो घटाकालह जस्तथा॥ अंते तु किंकणीवंश वीणा भ्रमर निःस्वनः। इति नानाविधा नादाः श्रूयन्ते सूक्ष्म सूक्ष्मतः॥ महति श्रूयमाणे तु महाभेर्यादिकध्वनौ। तत्र सूक्ष्मं सूक्ष्मतरं नादमेव परामृशेत्॥ धनुमृत्युज्य वा सूक्ष्मे सूक्ष्ममुत्सृज्य वा घने। रममाणमपि क्षिपृं मनोनान्यत्र चालयेत्॥

अर्थात्- जब पहले पहल यह अभ्यास किया जाता है, तो यह नाद कई तरह का होता है और बड़े जोर-जोर से सुनाई देता है, परन्तु अभ्यास बढ़ जाने पर वह नाद धीमे से धीमा होता जाता है। शुरू में इस नाद की ध्वनि समुद्र, बादल, झरना, भेरी तरह होती है, परन्तु बाद में भ्रमर, वीणा-सी तथा किंकिणी की तरह मधुर होती है। इस तरह से वह ध्वनि धीमी से धीमी होती हुई कई तरह की सुनायी देती है। भेरी आदि की ध्वनि सुनने पर उसमें धीमे से धीमे नाद का विचार करना चाहिए। साधक को चाहिए कि वह धीमे से घने और घने से धीमे नाद में जाय और मन को इधर उधर न भटकने दे।

ॐकार की स्वर लहरियों को सुनने की नादयोग साधना कई दृष्टियों से बड़ी महत्वपूर्ण है। प्रथम तो दिव्य संगीत के सुनने में इतना आनंद आता है, जितना किसी मधुर वाद्य या गायन को सुनने में नहीं आता। दूसरे इस नाद श्रवण से मानसिक तंतुओं का प्रस्फुटन होता है। सर्प जब संगीत सुनता है, तो उसकी नाड़ियों में एक विद्युत-लहर प्रवाहित हो उठता है। मृग का मस्तिष्क मधुर संगीत सुनकर इतना उत्साहित हो जाता है कि उसे तन बदन का होश नहीं रहता। यूरोप में गायें दुहते समय मधुर बाजे बजाये जाते हैं जिससे उनका स्नायु समूह उत्तेजित होकर अधिक मात्रा में दूध उत्पन्न करता है। ये संगीत सूक्ष्म मस्तिष्क को प्रभावित करते हैं। अनाहत नाद का प्रभाव कारण शरीर पर पड़ता है। प्रणव-नाद का दिव्य संगीत सुनकर मानव अंतःकरण में भी ऐसी स्फुरण होती है, जिसके कारण अनेक गुप्त आंतरिक शक्तियाँ विकसित होती हैं। उनके द्वारा भौतिक और आत्मिक दोनों ही दिशाओं में प्रगति होती है।

नादयोग में कितने प्रकार की ध्वनियाँ सुनाई पड़ सकती हैं, इसकी कोई सीमा नहीं। प्रायः परिचित ध्वनियाँ ही सुनाई पड़ती हैं। सूक्ष्मदर्शी साधक उनके पीछे उच्च संकेतों की विवेक बुद्धि के द्वारा सहज संगीत बिठा सकते हैं। कोयल की कूक, मुर्गे की बाग, मयूर की पीक, सिंह की दहाड़, हाथी की चिंघाड़ शब्द सुनाई पड़ें तो उनमें इन प्राणियों के उच्चारण समय की मनःस्थिति की कल्पना करते हुए अपने लिए प्रेरक संकेतों का ताल-मेल बिठाया जा सकता है। कई बार रुदन, क्रंदन, हर्षोल्लास, अट्टहास जैसी ध्वनियां सुनाई पड़ती हैं। उसे अपनी अंतरात्मा का संतोष-असंतोष समझना चाहिए। कुमार्गगामी गतिविधियों से असंतोष और सत्प्रवृत्तियों से संतोष स्पष्ट है। आत्म-निरीक्षण करते हुए आत्मा को समय-समय पर अपनी भली-बुरी गतिविधियों पर संतोष-असंतोष प्रकट करने के अवसर आते हैं। इन्हीं की प्रतिध्वनि हर्ष, क्षोभ व्यक्त करने वाले स्वरों में सुनाई पड़ती रहती है। किस ध्वनि के पीछे क्या संकेत, संदेश, तथ्य हो सकता है, उसे नाद योगी की सहज बुद्धि ही समयानुसार निर्णय करती चलती है। दिव्य ध्वनियों में किसी न किसी स्तर की उच्च प्रेरणाएं होती हैं और इन ऊपर की पंक्तियों में सर्प को बीन सुनाई पड़ने का उल्लेख करते हुए उनके अभिप्राय का संकेत किया गया है। इसके अतिरिक्त और भी कई प्रकार की ध्वनियाँ नाद-योग के साधकों को सुनाई पड़ती हैं। इनकी संगति इस प्रकार बिठाई जा सकती है। भगवती सरस्वती अपनी वीणा झंकृत करते हुए ऋतम्भरा प्रज्ञा और अनासक्त भूमा के मृदुल मनोरम तारों को झनझना रही है, और अपनी अंतःचेतना में वही दिव्य तत्व उभर रहे हैं।

इन विविध ध्वनियों के जो अभिप्राय संकेत अंतःकरण में उभरें, उन्हें ही पर्याप्त समझना चाहिए। उनकी बहुत रहस्य भरी व्याख्याओं के लिए सिर खपाने के बजाय, यह ध्यान में रखा जाय कि इन सब का प्रयोजन एक ही रहता है कि हमें आज की स्थिति से ऊपर उठकर उच्च भूमिका के लिए द्रुतगति से अग्रसर होना चाहिए तथा साहस भरा कदम उठाना चाहिए।

नाद-साधना की इन क्रमिक प्रक्रियाओं के अभ्यास की चरम सार्थकता उस मूल ॐकार ध्वनि से पूर्ण तादात्म्य में है, जो सृष्टि मात्र के क्रिया-व्यापार का हेतु है। जो सृष्टि की समस्त शक्तिधाराओं का, ऊर्जा-प्रवाहों का केन्द्र एवं स्रोत है। व्यष्टि-सत्ता को समष्टि-केन्द्र से जोड़ने में समर्थ नाद-साधना के सभी अभ्यासों का लक्ष्य उसी एक परम तत्व की अनुभूति है, जिसे भारतीय मनीषियों ने प्रणव ध्वनि, उद्गीथ, अनाहत ब्रह्मनाद आदि कहकर पुकारा है।


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