समर्थता गरिमा में व्यक्त होती है।

April 1981

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आमतौर पर समझा जाता है कि जो अपनी शक्ति, पद, वैभव, प्रतिष्ठा का प्रदर्शन जितना अधिक बढ़-चढ़कर कर सकता है, वही व्यक्ति बड़ा होता है। पद, प्रतिष्ठा और वैभव का प्रदर्शन समीपवर्ती लोगों में थोड़ी देर के लिए भले ही बड़प्पन की धाक जमा दे, परन्तु महानता इससे सर्वथा भिन्न बात है। तथाकथित, बड़प्पन और महानता में यह अन्तर है कि एक में व्यक्ति अपने मिथ्या अहंकार का प्रदर्शन कर क्षुद्रता का ही परिचय देता है, जबकि दूसरे में व्यक्ति अपने गौरव का ध्यान रखते हुए अपनी विभूतियों का सत्प्रयोजन के लिए ही उपयोग करता है और जहाँ कहीं क्षुद्रता से सामना करना पड़ता है वहाँ भी आवेश में न आकर शान्त और गम्भीर ही बना रहता है।

सर वाल्टर रेले अपने समय के प्रख्यात योद्धा थे। तलवारबाजी में उनका कोई मुकाबला नहीं रखता था और इसके लिये उन्हें ब्रिटेन की महारानी एलिजावेथ ने विशेष पदक देकर सम्मानित किया था। बात उस जमाने की है जब इंग्लैंड में कई लोग तलवार बाँध कर घूमा करते थे और तलवारबाजी उच्च वर्ग के लोगों का वैसा ही प्रिय मनोरंजन था, जैसा कि बादशाहों में मुर्गे लड़ाना या भैंसे लड़ाना। एक दिन किसी नौसिखिया युवक ने सर वाल्टर रेले को तलवारबाजी के लिए चुनौती दी और द्वन्द्व युद्ध के लिए ललकारा।

किसी के द्वारा युद्ध के लिये ललकारे जाने पर चुप रह जाना उन दिनों कायरता की ही निशानी समझा जाता था। सर वाल्टर रेले जानते थे कि युद्ध हुआ तो यह युवक बेमौत मार जाएगा। इसलिये उन्होंने लड़ने से इन्कार कर दिया। इस पर युवक ने उन्हें वाल्टर रेले को कायर बताते हुये उनके मुँह पर थूक दिया।

वाल्टर रेले प्रसिद्ध योद्धा और तलवार चलाने में निपुण व्यक्ति के लिए यह घोर अपमान की बात थी। कई लोगों ने यह घटना देखी थी, परन्तु रेले शान्त ही रहे और उन्होंने युवक द्वारा थूके गये पीक को अपने चेहरे पर से पोंछते हुए कहा, ‘‘नौजवान में अपने मुँह पर जिस आसनी से रूमाल फिरा कर तुम्हारा थूक पोंछ सकता हूँ कदाचित उतनी ही आसनी से तुम्हारी छाती में लगे हुए तलवार के घाव को पोंछ सकता अथवा बिना कारण ही नर हत्या के पास बचने का कोई उपाय होता तो मैं अभी तुम्हारे साथ तलवार की लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हो जाता।”

वहाँ उपस्थित व्यक्तियों ने वाल्टर रेले को इस अपमान के बाद भी इतना शान्त संतुलित देखकर न केवल आश्चर्य व्यक्त किया बल्कि उनकी महानता के सामने नत मस्तक भी हुए और उस युवक की उद्दण्डता के लिए उसे धिक्कारा। इस सारे घटना-क्रम का प्रभाव युवक पर यह हुआ कि वह वाल्टर रेले से वहीं क्षमा माँगने लगा।

शक्तिवान होने का अर्थ यह नहीं है कि अपने से कम शक्तिशालियों का उत्पीड़न किया जाय अथवा जहाँ-तहाँ उसका प्रदर्शन कर अपने व्यक्तित्व को हल्का और ओछा बनाया जाए। शक्ति परमात्मा की देन है, विभूति है और उसका उपयोग केवल अवांछनियता के उन्मूलन या दमन के लिये ही किया जाना चाहिये। बुद्धिमान व्यक्ति इस तथ्य को भली भाँति समझते हैं और वहीं अपनी शक्ति का उपयोग करते हैं जहाँ उसकी उपरोक्त प्रयोजन के लिए आवश्यकता पड़ती है। अन्यथा वे इतने धीर, गम्भीर बने रहते हैं कि किसी को उनके विभूतिवान होने का पता ही नहीं चलता।

महाराजा रणजीत सिंह तो खरे विख्यात इतिहास पुरुष हैं। सर्वविदित है कि वे अपने समय के अद्वितीय योद्धा थे और उन्होंने अपने बलबूते पर स्वाधीन राष्ट्र के निर्माण का लक्ष्य भी एक सीमा तक प्राप्त कर लिया था। इतने पर भी उन्हें अपने योद्धा होने, अजेय सम्राट बनने का गर्व छू तक नहीं गया था। एक बार वे अपनी सेना सहित युद्ध के लिए जा रहे थे। रास्ते में एक बगीचा पड़ता था जिसके चारों और ऊँची दीवार थी। उस दीवार के कारण बाहर का व्यक्ति भीतर के चौकीदारों या मजदूरों को नहीं देख सकता था और न ही भीतर का कोई व्यक्ति राह चलते लोगों को। महाराजा की सवारी जब उस बाग के पास गुजरी तो एक पत्थर उनके सिर पर आकर लगा और उससे खून बहने लगा।

सिपाहियों ने यह देखा तो वे तुरन्त दीवार फाँद कर बाग के भीतर गए और उन लड़कों को पकड़ लाये जो बगीचे में आम पेड़ों पर पत्थर मार-मार कर आम गिरा रहे थे। लड़के इस डर से थर-थर काँप रहे थे कि उन्हें दण्ड दिया जायेगा। सहमे हुए खड़े बालकों को महाराज रणजीत सिंह ने पुचकारा और उन्हें कुछ खाने-पीने का समान देकर, विदा कर दिया। सीख के तौर पर उन्होंने इतना ही कहा, ‘बेटो! देख भाल कर काम किया करो।’ और कोई होता तो निश्चित ही उन लड़कों को दण्ड देता, परन्तु महाराज रणजीत सिंह यह कह कर चुप रह गए कि जब निर्जीव वृक्ष पत्थर की चोट खा कर भी बदले आम डाल देता है तो मैं तो आखिर मनुष्य हूँ। यदि इन बालकों को दण्ड देता तब तो मैं वृक्षों से भी गया गुजरा हो जाता।

समर्थ गुरु रामदास अपने शिष्यों के साथ शिवाजी के पास जा रहे थे। रास्ते में एक ईख का खेत पड़ता था। कुछ शिष्यों ने गन्ने तोड़ कर चूस लिए। खेत के मालिक को गन्ने तोड़े जाने की बात पता चली तो वह दौड़ा आया शिष्य तो खेत मालिक को आता देखकर भाग गये, एक गुरु रामदास ही वहाँ खड़े रहे। मालिक ने सोचा इसी गौसांई ने मरे खेत के गन्ने तुड़वाये हैं। उसने समर्थ गुरु को डण्डों से पीटा और वहाँ से भगा दिया।

अपने अन्तःकरण में धरती के समान क्षमा भाव रखने वाले समर्थ गुरु ने इस पर चूँ तक नहीं की और शिवाजी के पास चले गये। शिवाजी को जब इस घटना का पता चला तो उन्होंने खेत के मालिक को गिरफ्तार कर बुलवाया और अपने गुरु के सामने प्रस्तुत करते हुए कहा, ‘गुरु जी इसे क्या दण्ड दूँ।’

समर्थ गुरु ने कहा, ‘काहे बेचारे को परेशान करते हो। सारा दोष तो मेरा है।’ सब कोई जानते थे कि इतने बड़े राज्य के स्वामी शिवाजी के गुरु क्यों किसी किसान के खेत को नुकसान पहुँचाएंगे? बात जहाँ की तहाँ दबी रही और किसान को छोड़ दिया। समर्थ गुरु की इस महानता पर किसान ने द्रवीभूत हुए बिना नहीं रहा, उसने उनके चरणों में गिर कर क्षमा माँगी। सन्त हृदय समर्थ रामदास ने उसे उठा कर अपनी छाती से लगा लिया।

कई बार ऐसे अवसर आते हैं जब लोग दूसरों द्वारा की जाने वाली निन्दा की चुगली कर उनके मन में अपना स्थान बनाना चाहते हैं। उदार और साधु पुरुषों के मन पर इसका कोई प्रभाव नहीं होता बल्कि वे अपनी निर्वैरता से सामने वाले को भी सुधार कर सही राह पर ला देते हैं। घटना महात्मा गाँधी से संबंधित है। उनके प्रति अपार श्रद्धा रखने वाला एक युवक एक दिन उनके पास आया और बोला, ‘मौलाना मोहम्मद अली कहा करते हैं कि गाँधी जी की अपेक्षा तो एक दुराचारी से दुराचारी मुसलमान भी श्रेष्ठ है। गाँधी जी ने कहा, ‘ऐसा तो नहीं सुना, पर इतना अवश्य है कि मौलाना अपने धर्म के प्रति अटूट हैं अतः श्रेष्ठ हैं।’

एक बार गाँधी जी के पास एक उच्छृंखल व्यक्ति आया और उसने उन पर व्यंग्य कसते हुये कहा, ‘आपको जब कन्याकुमारी के मंदिर में नहीं घुसने दिया गया, आपको वहाँ जाने से रोक दिया गया तो आप क्यों नहीं अन्दर गये? आप तो संसार की ज्योति हैं? आखिर उन्होंने आपको क्यों रोका?’

गाँधी जी ने कहा, ‘समर्थ व्यक्तियों का बड़प्पन उनकी उदारता, क्षमा और सहिष्णुता में झलकता है उसके प्रदर्शन या ढिंढोरा पीटने में नहीं। जो लोग अपनी साधारण-सी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटते नहीं अघाते वे बालक से क्षुद्र ही हैं। उन बरसाती नालों की तरह जो थोड़ा-सा पानी गिरने पर ही उफन आते हैं। जबकि सागर हमेशा अपनी सीमाओं में शान्त और सीमित रहता है।


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