अग्निहोत्र अर्थात् प्राणोद्दीपन

April 1981

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यज्ञ को भारतीय धर्म और संस्कृति का पिता कहा गया है। अग्निहोत्र जो प्रधानतः यज्ञ का अग्निपरक क्रिया-कलाप है, परम पवित्र, श्रेष्ठतम कर्मों में गिना जाता है। इससे वायु शुद्ध, रोग निवृत्ति, आत्मबल वृद्धि, प्राणवर्षा, वातावरण में सत् तत्व प्रवाह की वृद्धि जैसे अनेकों लाभ भी हैं। पर यह यज्ञ का मात्र एक स्थूल रूप है। जिस ज्वलन्त अग्नि को हवन-कुंड में स्थापित कर पूजा जाता है, वह एक प्रतीकात्मक प्रक्रिया ही समझी जानी चाहिये।

अग्नि भगवान के स्थूल रूप की स्तुति हेतु मंत्रों, श्रद्धायुक्त कर्मकांडों तथा दिव्य गुणों से युक्त वनौषधियों की आहुति दी जाती है। सूक्ष्म पूजन अग्निरूपी तेजस्विता को अन्तःकरण में धारण करने से ही होता है। इन्हीं गुणों को आत्मसात करने से मनुष्य अग्नि रूप बन जाता है। अग्नि भगवान से प्रार्थना ही जाती है-

ॐ अयन्त इध्म आत्मा जातवेद स्तेन इध्मस्व वर्धस्य च इद्धयवर्धय। -आश्वलायन गृह्य सूत्र

“है अग्नि देव! आप प्रदीप्त होओ और हमें भी प्रदीप्त करो। जो गुण आपके अंदर हैं, वे ही हम धारण करें ऐसी सामर्थ्य दो।”

अग्नि का, यज्ञकुण्ड का सूक्ष्म दिव्य रूप मानवी पिण्ड में वैश्वानर के रूप में विद्यमान है। उसका केन्द्र है मूलाधार स्थित कुंडलिनी शक्ति। यही अग्नि संपर्क शरीर के अंदर प्राणरूप में प्रवाहित होकर जीवन का संचार करता है। इस दिव्य ज्योति की आभा अंतःकरण में सदा जाज्वल्यमान रहती है। इस दिव्य अग्नि की साधना, अर्चना को ही अग्नि पूजा, यज्ञ-प्रक्रिया का आध्यात्मिक स्वरूप कहते हैं।

बाहर प्रज्वलित अग्नि (यज्ञ रूप में) तथा अन्तः में प्रतिष्ठित दिव्य-ज्योति के रूप में शरीर की सूक्ष्म संरचना से उसका संबंध शास्त्रकार इस सूत्र में प्रतिपादित करता है-

‘‘अविदन्ते अनिहितं यदासीन यज्ञस्य धाम परमं गुहायत्।’’ -ऋग्वेद

यज्ञ का वास्तविक स्थान हृदय रूपी गुफा में है। वह अत्यन्त गुप्त है। परन्तु ज्ञानी सत्पुरुष उसे प्राप्त कर लेते हैं।

ब्रह्मरन्ध्र में अवस्थित सहस्रार चक्र को ब्रह्माण्ड अग्नि कहा गया है। इसे ही सोम की उपमा भी दी गयी है। चन्द्रमा की चर्चा इसके रूप में करके यह बताया जाता है कि यहाँ शाँति और शीतलता का अमृत भरा पड़ा है। इसे शिव कहते हैं एवं कुंडलिनी को शक्ति। कुंडलिनी रूपी अग्नि मानवी काया में निरन्तर विद्यमान रहती है, पर जब तक सोमरूपी अमृत घृत का इस अग्नि में हवन नहीं किया जाता, तब तक वह जागृत नहीं होती- तथा यज्ञ का उद्देश्य पूरा नहीं होता। आत्मा रूपी अग्नि और सोमरूपी ब्रह्म का परस्पर समन्वय, एक-दूसरे में लय ही आत्म यज्ञ है। शिव रूपी सोम तथा शक्ति रूपी अग्नि की संयोग प्रक्रिया ही, कुंडलिनी जागरण की साधना है। अग्निहोत्र प्रक्रिया के पीछे इसी सूक्ष्म दर्शन का संकेत मिलता है। मनुष्य की महत्ता के विस्तार के सारे आयाम यज्ञ दर्शन में सन्निहित हैं।

शास्त्रकार कहते हैं-

द्वयं वा इदं न तृतीयमस्ति। आर्द्रचैवशुष्कं च यद्रार्द्र तत् सौम्यं यच्छुष्कं तदाग्नेयम्॥ -शतपथ.

यह संसार दो पदार्थों से मिलकर बना है। अग्नि और सोम। इसके अतिरिक्त तीसरा कुछ नहीं।

यह अग्नि जब सूक्ष्म रूप में शरीर के प्राणकोषों की जैवविद्युत, मन की विचार तरंगों तथा आत्मा की सूक्ष्मतम सत्ता को प्रभावित करती है तो उन्हें अपने जैसा ही प्रकाशवान, देदीप्यमान बना लेती है। मनुष्य जीवन में नया प्रकाश पाता है। उसे घने अंधेरे में भी सत्पथ दिखाई देने लगता है।

शरीर-व्यापी अग्नि, विश्वव्यापी महाअग्नि का ही एक स्फुल्लिंग है। ब्रह्माग्नि, देवाग्नि और प्राणाग्नि। ये चेतना के तीन स्तर हैं। ब्रह्माग्नि वह महत् तत्व है जो जड़-चेतन सबमें सर्वव्याप्त है। देवाग्नि का केन्द्र सविता है एवं प्राणाग्नि का उद्भव अन्न अर्थात् समस्त वनस्पति जगत से होता है। यज्ञाग्नि में भी इन तीनों अग्नियों का प्रतीक लिया जाता है- दक्षिणाग्नि गार्हपत्याग्नि, आह्मनीयाग्नि। विश्व का आधारभूत सर्वव्यापक ब्रह्म प्राणिजगत की उत्कृष्टता- देवशक्ति तथा शरीरधारियों में विद्यमान हलचल- जीवात्मा का ये तीन अग्नियाँ क्रमशः प्रतिनिधित्व करती हैं।

जीव को ईश्वर का अंश माना जाता है। इस लघु घटक में उस महान के सारे तत्व विद्यमान हैं। इस ब्रह्माग्नि-आत्माग्नि की प्रार्थना उपासना, आराधना करने से साधक वह सब कुछ पा लेता है जो इस विश्व के राजकुमार के रूप में उसके लिये अभीष्ट है। इन्हीं तथ्यों के संकेत शास्त्रकार इस तरह देते हैं।

अग्निऋषिः पवमानः पंचजन्यः पुरोहितः तमीमहे महागयम्। -ऋग्वेद

यह अग्नि- ऋषि है। पवित्र करने वाली है। पंचकोशों का मार्गदर्शन है। इस महाप्राण की हम शरण में जाते हैं।

अग्ने विवस्वदुष सश्चित्रं राधो अमत्यी। आ दाशुषे जातवेदो वहात्वमद्या देवां उषर्बुधः॥ -ऋग्वेद

हे अग्नि! मेरे जीवन की ऊषा बनकर प्रकटो। अज्ञान के अंधकार का दूर करो। ऐसा आत्मबल प्रदान करो जिसे देवों का अनुग्रह खिंचा चला आये।

अग्नि से प्रार्थना कर ऋषि अपने अन्दर उदात्त भावनाऐं, साहस, उत्थान की प्रेरणा, पवित्रता, प्रतिभा आदि गुणों को विकसित करने की अभ्यर्थना करता है। जैसे-जैसे अन्दर यह अग्नि प्रखर होती जाती है, वैसे-वैसे उसका स्तर और पद बढ़ता जाता है। यह उन्नति ऋषि राजर्षि, ब्रह्मर्षि, देवर्षि के रूप में होती है। ब्रह्माग्नि के ये ही चार स्तर हैं जो पदार्थों और जीवों के उनकी पात्रता के अनुपात में मिलते हैं। ऋग्वेद इन स्वरूपों का वर्णन इस प्रकार करता है-

त्वग्ने वरुणो जायसे यत्। त्वं मित्रों भवसि यत्समिद्धः। त्वे विश्वे स्रहसस्पुत्र देवा स्त्वनिन्द्रो दाशुषे भर्त्याय॥

इस अग्नि के चार स्वरूप हैं। वह जब उत्पन्न होती है तो वरुण कहलाती है। जब प्रदीप्त होती है, तब उसे मित्र कहते हैं, जब प्रचण्ड होती है तब विश्वेदेवा तथा अन्त में इन्द्र बनकर होता के लिये पर ऐश्वर्य प्रदान करती है।

अग्नि का शिक्षण तथा प्रेरणा हमें अग्निहोत्र के रूप में सतत् मिलता रहता है। यज्ञ के प्रधान देवता अग्नि के मुख में हवन सामग्री डालते समय परमात्मा की निकटता अनुभव की जाती है। एवं उन विशेषताओं का स्मरण किया जाता है जिन्हें जीवन में उतारने का शिक्षण अग्नि देवता से मिलता है। यह शिक्षण है उष्णता का- अपने विचारों तथा कार्यों में तेजस्विता के समावेश का- अपनी विशेषताओं से अपने निकटवर्तियों को सद्गुणी बना लेने का- जीवन की नश्वरता को समझते हुए जीवन को उत्कृष्ट बनाने का। अग्नि की ज्वाला सदा ऊपर की ओर चलती है वह हम ऊर्ध्वगामी दृष्टिकोण ऊंचे चिंतन की ओर प्रेरित करती है। अग्नि में डाली गई वस्तुएं सूक्ष्मतम घटकों में परिवर्तित होकर विस्तृत हो जाती हैं। उदारता, अपरिग्रह, स्वार्थ नहीं परमार्थ का सतत् शिक्षण देती हुई हव्य वस्तुएं वायुभूत हो जाती हैं।

जिस तरह अग्नि यज्ञ-कुंड में प्रज्वलित होती है, वैसे ही ज्ञानाग्नि अन्तःकरण में, तपाग्नि इन्द्रियों में तथा कर्मग्नि देह में प्रज्वलित रहनी चाहिये, यही यज्ञ का आध्यात्मिक स्वरूप है। अपनी संकीर्णता, अहंता, स्वार्थपरता को जो इस दिव्य अग्नि में होम देता है, वह बदले में इतना प्राप्त करता है, जिससे नर को नारायण की पदवी मिल सके। यज्ञ कर्म के पीछे निहित इन शिक्षाओं को समर्थन- हृदयंगम किया जाना चाहिए। इस चिन्तन के अभाव में केवल स्थूल लाभ मात्र ही प्राप्त किये जा सकते हैं।


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