दीप्तिमान आत्म सूर्य की विलक्षण सामर्थ्य

April 1981

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भारतीय मनीषियों ने आत्मा की तुलना सूर्य की है और जीवात्मा का स्वरूप प्रकाश बिन्दु के रूप में वर्णित किया है। निराकार साधना में आज्ञाचक्र के स्थान पर भृकुटि मध्य केन्द्र में सूर्य सदृश तेजस्वी प्रकाश का ध्यान किया जाता है। उच्चस्तरीय आध्यात्म साधनाओं में, ज्योति अवतरण में प्राणाकर्षण प्राणायाम में सूर्य के समान तेजस्वी प्रकाश का ध्यान किया जाता है। सूर्य हमारे जीव जगत का केन्द्र है। सौर परिवार अपने इसी अभिभावक के इर्द-गिर्द परिक्रमा करते हैं। अणु की संरचना भी इसी प्रकार की है कि उसकी तुलना सौर परिवार से की जा सकती है। अणु का नाभिक एक छोटा सूर्य है। दोनों की रीति-नीति एवं क्रिया पद्धति एक समान है। जीव और ब्रह्म की सत्ता भी इसी प्रकार समझी जा सकी है।

सूर्य देखने में ही छोटा लगता है अन्यथा वह है बहुत बड़ा। धरती पर खड़े होकर देखें तो दिन में सूर्य और रात में चन्द्रमा दोनों ही लगभग एक सी गोलाई के लगते हैं, पर दोनों के आकार-प्रकार और स्वरूप में बहुत अंतर है। चन्द्रमा का व्यास 2160 मील है जबकि सूर्य का घेरा 8,64,000 मील का है। इस व्यास वाले सूर्य के इर्द-गिर्द भी उसकी कई परिधियाँ हैं। दुर्बीन से देखने पर सूर्य के इर्द-गिर्द पीले, गुलाबी रंगों का एक वलय-सा दिखाई पड़ता है। 10-15 हजार किलोमीटर की इस पट्टी को सूर्य का वर्ण मण्डल क्रोमोस्फियर कहते हैं। लगभग 10,000 डिग्री तापमान के इस क्षेत्र में प्रायः नुकीली ज्वालायें उछलती हैं तथा उनकी ऊँचाई 10,000 किलोमीटर तक उभरती देखी गई है।

मानवीय चेतना का अस्तित्व और महत्व भी सूर्य के समान ही असीम है। उसका वास्तविक विस्तार विश्व ब्रह्माण्ड के ही समकक्ष है। व्यक्ति का कायकलेवर सीमित हो सकता है, पर उसका प्रभाव परिणाम असीम क्षेत्र को आच्छादित करता है। संपर्क में आने वाले प्राणी तथा पदार्थ तो प्रखर व्यक्तित्व की ऊर्जा से प्रभावित होते हैं, उसकी संकल्प शक्ति एवं विचारधारा आकाश में प्रवाहित होकर असीम क्षेत्र पर अपना प्रभाव डालती है।

अपनी पृथ्वी तक सूर्य के प्रकाश की थोड़ी-सी ही किरणें आ पाती हैं इसलिये हमें सूर्य के प्रकाश का बहुत छोटा अंश ही दिखाई व समझ पड़ता है। सूर्य प्रकाश की बहुत अधिक मात्रा तो अन्य दिशाओं में ही प्रवाहित होती रहती है। मनुष्य को भी परमात्मा का स्वल्प सामर्थ्य वाला अंश ही प्राप्त हुआ है। इसे यों भी कहा जा सकता है कि परमात्म सूर्य के प्रकाश का न्यूनतम अंश ही मनुष्य को, अपने भूलोक को प्राप्त हुआ है। उसकी समग्र सत्ता जो असीम ब्रह्माण्ड में बिखरी पड़ी है, इतनी अधिक है कि उसे ठीक प्रकार सोच समझ पाना तो दूर रहा, उसका अनुमान लगा पाना भी अपने छोटे से मस्तिष्क के लिये असंभव ही है। इतने पर भी अपनी सत्ता को तो जाना समझा ही जा सकता है। अपने आत्म स्वरूप का यदि बोध हो सके तो प्रतीत होगा कि परम चेतना की एक छोटी किरण होते हुये भी मानवी चेतना कितनी प्रचण्ड है। इस प्रचण्डता का स्वरूप और उपयोग यदि समझा जा सके तो पुरुष से पुरुषोत्तम और नर से नारायण बनने की सम्भावना मूर्तिमान होकर सामने आ सकती है।

महासूर्य और ध्रुवसूर्य की परिक्रमा करते हुये सौर मण्डल सहित अपना सूर्य 4,32,000 वर्ष बाद उसी स्थान पर लौट कर आ जाता है। इतने पुराने समय की ग्रह गणना यदि किसी के पास हो तो दूसरी आवृत्ति में भी वह ज्यों की त्यों ही मिलेगी। उसमें जरा भी अन्तर नहीं होगा। वर्ष गणना का अभी पूर्णतया सही हिसाब नहीं बैठ सका है। इसी कारण वर्ष और दिन की संगति पूरी तरह ठीक न बैठने पर कोई सर्वांगपूर्ण पंचांग नहीं बन सका है। उसमें जो अन्तर पड़ता है उसे सुधारने और सही-सही गणना करने के लिये ही बार-बार घट-बढ़ करनी पड़ती है। फिर भी वह कमी पूरी नहीं होती और नये सिरे से उसकी गणना ग्रहों की स्थिति देखकर सही करनी पड़ती है। सही हिसाब 4,32,000 वर्ष बाद ही बैठता है। इसीलिए प्राचीन मनीषियों ने इतनी अवधि का एक युग माना है।

स्थूल दृष्टि से सूर्य चन्द्रमा एवं तारक आदि बहुत छोटे दिखते हैं, परन्तु उनका यथार्थ स्वरूप एवं विस्तार विदित होने पर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। सम्पूर्ण सूर्य तो दूर रहा उस पर उठती रहने वाली ज्वालाओं ही अपने आप में एक आश्चर्य है। पिछले दिनों एक विशिष्ट सूर्य ज्वाला देखी गई थी। यह दस बारह मिनट में ही लगभग तीन लाख मील तक फैल गई और उसके कारण सूर्य की दीप्ति तीस गुनी अधिक हो गई।

13 दिसम्बर 1972 को भी ऐसा ही एक विस्फोट हुआ था जिसमें सूर्य के पृष्ठ भाग में प्रभामण्डल से भीम काय बादल निकलते हुये दिखाई दिये। यह विस्फोट पृथ्वी के सम्पूर्ण विस्तार की अपेक्षा 20 से 40 गुना तक बढ़ता था और उसकी गति प्रति सेकेंड 960 किलोमीटर थी। सूर्य में ऐसी ज्वालायें उठती रहती हैं और ऐसे विस्फोट भी होते रहते हैं। सन् 1940 में तो ऐसी ज्वालायें 40 बार उठती देखी गई थीं। खगोलविदों का मत है कि सूर्य के आलोक का जो क्षेत्र है, वह भी निश्चित और नियमित नहीं है। जब ज्वालायें उठती हैं तो वह बढ़ कर 100 गुना तक विस्तृत हो जाती हैं। सूर्य का वर्णमंडल एक प्रकाश क्षेत्र ही नहीं चुम्बक क्षेत्र भी है। उसी में तो वह अपने सौर परिवार के ग्रहों को बाँधे जकड़े है। सौर परिवार के दूरवर्ती प्लेटो आदि ग्रहों तक उसका अत्यन्त थोड़ा-सा प्रकाश पहुंचता है। पृथ्वी पर तो उसका एक बटा दस लाखवां हिस्सा ही पहुँचता है। जबकि प्लेटो सूर्य से सर्वाधिक दूरी पर है। वहाँ सूर्य का कितना प्रकाश पहुँच पाता होगा? फिर भी उसका चुम्बकत्व प्लेटो पर भी काम करता है और अपनी परिधि के ग्रह पिण्डों को जकड़े रहता है।

सूर्य प्रकाश का एक बटा दस लाखवां हिस्सा ही पृथ्वी तक पहुँच पाता है। शेष तो दूसरी दिशाओं में बिखर जाता है। इसका अभी तक कुछ पता नहीं चल पाया है कि सूर्य का किरीट (कोरोना) कितना विस्तृत और कितना प्रभावी है। इसे जानने के लिये कांशेनोग्राफ नामक यंत्र कुछ ही समय पूर्व विनिर्मित हुआ है। वह अथाह सूर्य सागर की थाह लेने का प्रयास कर रहा है।

सूर्य और पृथ्वी के संबंध में और भी रोचक तथ्य पिछले दिनों प्रकाश में आये हैं। खगोलविदों के अनुसार सूर्य भी निरन्तर फैलता और फूलता जा रहा है। सूर्य की तरह ही पृथ्वी का क्षेत्रफल भी निरन्तर बढ़ता हुआ अंकित किया गया है। लन्दन के न्यूकैसेल्स विश्वविद्यालय में भौतिक विभाग के अध्यक्ष प्रो. के.एम. क्रोर ने अपने शेष प्रबन्ध में यह सिद्ध किया है कि पृथ्वी रहस्यमय ढंग से गुब्बारे की तरह फूलती जा रही है। जब वह बनी थी तब उसका जो आदि रूप था, उसकी अपेक्षा वह अब तक लगभग दुगनी फूल चुकी है और भविष्य में भी उसका यह फुलाव क्रमशः तीव्र ही होता जाने वाला है।

परमात्मा तो सूर्य की तुलना में असीम और अगणित गुना शक्ति सम्पन्न है। जब सूर्य को सत्ता और महत्ता को ही नहीं समझा जा सकता, तो परमात्मा की चर्चा किस आधार पर की जा सकती है? आत्म सूर्य को भी यदि ठीक तरह समझा जा सके तो प्रतीत होगा कि भौतिक ऊर्जा तथा प्रभा बखेरने वाला सूर्य जितना बड़ा और जितना सशक्त है, आत्मा की सीमा और गरिमा उससे किसी भी प्रकार कम नहीं है। आत्मा जब अपने स्वरूप में अवस्थित होकर शक्ति किरणें बिखेरता है और बड़े कदम उठाता है तो उसका स्वरूप देखते ही बनता है। महामानव, ऋषि, देवदूत और अवतारी आत्माएं इसी स्थिति की होती हैं। उनकी क्षमता और सामर्थ्य लगती तो अवश्य विचित्र है, पर वह मूलतः हर मनुष्य में समान रूप से होती है। प्रयत्नपूर्वक उसे जो भी चाहे जितनी भी मात्रा में विकसित कर सकता है।


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