परिव्राजक का वचन

April 1981

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पीत चीवर ओढ़े, भिक्षापात्र लिए एक मुंडित मस्तक भिक्षु शांत भाव में नगर में आ रहा था। तपः तेज से उद्दीप्त मुख-मंडल, परमार्थ पथ पर आरुढ़ होने का दृढ़ संकल्प और स्वस्थ, पुष्ट, बलिष्ठ देह का स्वामी भिक्षु उपगुप्त निर्विकार भाव से अपने पथ पर चला जा रहा था, उद्देश्य था- भिक्षाटन। काषाय धारी उपगुप्त का सात्विक सौंदर्य इतना अप्रतिम था कि वातायन में बैठी नगर वधू वासवदत्ता ने उसे देखा तो देखती ही रह गई और भिक्षु उपगुप्त ने मार्ग पर से अपनी दृष्टि उठाकर उस विशाल अट्टालिका की ओर देख तक नहीं।

वासवदत्ता, मथुरा की सर्वश्रेष्ठ नर्तकी, सौंदर्य की प्रतिमूर्ति, नगर के धनीमानी प्रतिष्ठित जनों से लेकर राजपुरुष तक जिसकी चाटुकारी किया करते थे और जिसके राजभवन से भव्यप्रसाद की देहरी पर चक्कर काटा करते थे, वह नर्तकी भिक्षु उपगुप्त के दैवी सौंदर्य को देखकर उन्मत्त सी हो गई। दो क्षण तो ठिठकी देखती रह गई ऐसा अद्भुत तेज, ऐसा सौम्य मुख और फिर जितनी शीघ्रता उससे हो सकी, उतनी शीघ्रता से वह दौड़ी गई, उपगुप्त के पीछे। कुछ समीप पहुँचने पर वासवदत्ता ने उसे पुकारा, ‘भन्ते!’

भिक्षु आकर पूर्ववत् मस्तक झुकाये आकर खड़ा हो गया और अपना भिक्षापात्र वासवदत्ता के सम्मुख बढ़ा दिया।

‘आप ऊपर पधारें, नर्तकी सलज्ज भाव से बोली।’ और उपगुप्त के प्रासाद में प्रवेश करने के बाद यथोचित सत्कार करते हुये अपना मंतव्य कह उठी, ‘यह मेरा भवन मेरी सब संपत्ति और स्वयं मैं अब आपकी हूँ। मुझे आप स्वीकार करें।

नर्तकी के शब्द काँप रहे थे। उसकी वाणी में प्रणय याचना थी और शरीर कामावेग से तप्त रतिमय हो रहा था।

उपगुप्त ने दृष्टि उठाकर वासवदत्ता की ओर बेधक दृष्टि से देखा, ‘मैं फिर तुम्हारे पास आऊँगा।’

‘कब?’ वासवदत्ता को लगा उपगुप्त ने उसे स्वीकार कर लिया है। कौतूहल वश वह पूछ बैठी।

‘समय आने पर’ भिक्षु ने कहा और आगे बढ़ गया, उसी शांत और निर्विकार भाव से। वह जब तक दिखाई देता रहा, वासवदत्ता द्वार पर खड़ी उसी की ओर देखती रही।

और उपगुप्त उसके बाद कभी उस मार्ग पर नहीं दिखाई दिया। वासवदत्ता ने उसे खोजने के लिये अपने अनुचर भी भेजे परन्तु उसका कहीं पता न चला। कुछ काल तक वासवदत्ता इस स्मृतिदंश से व्यथित रही। समय की औषधि ने उसका उपचार किया और धीरे-धीरे स्मृति विस्मार हो गई। सब कुछ सामान्य गति से चलने लगा।

इस घटना के कई वर्षों उपरान्त। यमुना तट पर एक स्त्री भूमि पर पड़ी थी। अत्यन्त मलिन वासना और जीर्ण काय। देह पर घाव हो गये थे, जिनसे पीव और रक्त की सड़ांध आ रही थी। उस ओर से निकलते समय लोग अपना मुख दूसरी ओर कर लेते थे। वही लोग जो कभी इस स्त्री के रूप यौवन पर लोभी भंवरे बनकर प्रासाद में मंडराया करते थे, उसे भूल चुके थे। वह भव्य प्रासाद, वह अतुल वैभव और वह रूप यौवन सब नष्ट हो चुका था। भयंकर यौन रोगों से त्रस्त वासवदत्ता का सब कुछ नष्ट हो गया था और वह इस रूप में अपने जीवन की शेष घड़िया गिन रही थी।

सहसा एक भिक्षु उधर से निकला और उस दुर्दशाग्रस्त नारी के समीप जाकर खड़ा हो गया। उसने पुकारा, ‘वासवदत्ता! मैं आ गया हूँ।’

“कोन” ‘वासवदत्ता ने बड़े कष्ट से भिक्षु की ओर देखने का प्रयत्न किया। वह उसे पहचाने की चेष्टा कर रही थी।’

‘भिक्षु उपगुप्त,’ भिक्षु वहीं बैठ गया और यमुना से अपने कमण्डलु में जल लाकर वासवदत्ता के घाव धोने लगा।

‘बहुत विलम्ब से आए उपगुप्त,’ वासवदत्ता ने कराहते हुये कहा। उसे वर्षों पूर्व की वह घटना स्मरण हो आई।

‘क्यों?,’ उपगुप्त ने पूर्ववत् परिचर्या निरत रहते हुए पूछा।

‘‘अब मेरे पास क्या है? मेरा यौवन, सौंदर्य, धन आदि सभी कुछ तो नष्ट हो गया। अब मैं तुम्हारे योग्य कहाँ रही?’’

‘मेरे आने का समय तो यही है भद्रे! मैं उपयुक्त समय पर आया हूँ। इसी समय तुम्हें मेरी आवश्यकता थी,’ भिक्षु ने कहा और परिचर्या में व्यस्त हो गया। औषध उपचार और दीर्घकाल तक सुश्रूषा करने के उपरान्त वासवदत्ता स्वस्थ हो गई और उपगुप्त ने एक विनष्टप्राय नारी को धर्म मार्ग अलौकिक करने योग्य बनाया।


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