सामान्यतः समझा जाता है कि शरीर का पोषण और विकास पेट में पहुँचने वाले आहार से होता है। पेट में आहार पहुँचता है और वहाँ उसका पाचन होकर रस रक्त आदि का निर्माण होता है। जो शरीर के विभिन्न अंग-अवयवों में पहुँच कर, उन्हें शक्ति प्रदान करते हैं। उस शक्ति से विभिन्न अंग अवयव काम करने योग्य ऊर्जा प्राप्त सकते हैं। इसीलिए स्वच्छ, पौष्टिक और सन्तुलित भोजन की आवश्यकता एक स्वर से बताई, समझाई व स्वीकार की जाती है।
शरीर स्वस्थ रहे इसके लिए निश्चित ही पौष्टिक भोजन का होना आवश्यक है, किन्तु उससे भी अधिक है मानसिक स्थिति का संतुलित और शुचितर होना। भोजन से शक्ति मिलती है और शक्ति से स्वास्थ्य, किन्तु भोजन को पचाने में जो शक्ति खर्च होती है वह कहाँ से आती है? भोजन को पचाने की शक्ति ही नहीं शरीर के अन्यान्य अंग-अवयवों को भी समुचित ढंग से सक्रिय और सुव्यवस्थित रखने के लिए आवश्यक शक्ति का स्त्रोत भी मस्तिष्क ही है। मस्तिष्क यदि अशान्त है तो कितना ही अच्छा और पौष्टिक भोजन क्यों न किया जाए? इससे कोई विशेष लाभ नहीं होता। इसके विपरीत जब मानसिक स्थिति शांत और संतुलित हो तो रूखा-सूखा भोजन खाकर भी स्वस्थ रहा जा सकता है। आदिवासियों और जंगलों में कन्दमूल खाकर अपना जीवन व्यतीत करने वालों लोगों को कहाँ संतुलित और पौष्टिक भोजन मिल पाता है? फिर भी वे शहरी और सम्पन्न व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक स्वस्थ देखे जा सकते हैं। इसका कुल कारण इतना ही है कि वे शहरी लोगों की अपेक्षा कम अशान्त और उद्वेलित मनःस्थिति का शिकार बनते हैं।
यदि भोजन से ही शक्ति मिलने की बात में कुछ वजन होता, तो प्रश्न उठता है कि काम के बाद आराम की आवश्यकता क्यों पड़ती है। जैसे ही थकान चढ़ती वैसे ही कुछ खा पीकर काम चला लिया जाता। किन्तु सोना हर स्थिति में आवश्यक और उपयोगी होता है, क्योंकि इससे मस्तिष्क को आराम मिलता है। रात भर सोने के बाद सुबह जागने पर प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको इतना तरोताजा अनुभव करता है कि वह पूर्ववत् श्रम कर सके और कठोर दिनचर्या का पालन कर सके।
मस्तिष्क को दो भागों में बाँटा जा सकता है। एक वह जिसमें मन और बुद्धि काम करती है। सोचने, विचारने तथा समझने की क्षमता इसी भाग में रहती है। दूसरा भाग वह है जिसमें की आदतें संग्रहित रहती हैं और वहाँ से शरीर के क्रिया-कलापों का निर्धारण किया जाता है। शरीर की नाड़ियों में रक्त बहता है, हृदय धड़कता है, फेफड़े श्वास-प्रश्वास प्रक्रिया सम्पन्न करते हैं, मांस पेशियां सिकुड़ती और फैलती हैं, पलकें झपकती, खुलती हैं, सोने जागने का, खाने पीने और मलमूत्र त्यागने का क्रम अपने ढर्रे पर अपने आप स्वसंचालित ढंग से चलता रहता है। यह सब अनायास ही नहीं होता। इसके पीछे निरन्तर सक्रिय मन की वह शक्ति काम करती रहती है, जिसे अचेतन मस्तिष्क कहते हैं। शरीर के यंत्र अवयव अपना-अपना काम करते रहने योग्य कलपुर्जों से बने हैं, पर उनमें अपने आप संचालित रहने की क्षमता नहीं होती। यह शक्ति उन्हें मस्तिष्क के इसी अचेतन भाग से मिलती रहती है।
मस्तिष्कीय क्रिया-कलाप छोटी-छोटी कोशिकाओं के माध्यम से चलता रहता है। इन्हें नर्बसैल्स या तंत्रिका कोशिकाएं कहते हैं। उनकी संख्या लगभग दस अरब होती है। इन्हें आपस में जोड़ने वाले नर्व फाइवर (तंत्रिका तंतु) और उनके इन्सुलेशन खोपड़ी के भीतर खचाखच भरे रहते हैं। एक तंत्रिका कोशिका का व्यास एक इंच के हजारवें भाग से भी कम होता है और उसका वजन एक औंस के साठ अरबवें भाग के करीब होता है। तंत्रिका तंतुओं से होकर जो विद्युत धारा दौड़ती है वही ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से आवश्यक सूचनाएं उस केन्द्र तक पहुँचाते हैं। तंत्रिका कोषाणु एक सफेद धागे युक्त तन्तु होता है, यह तन्तु अन्यान्य न्यूट्रानों से जुड़ रहता है। इस प्रकार पूरा मस्तिष्क इन परस्पर जुड़े हुए धागों का एक बुना हुआ तन्तु जाल है। इन्हीं सूत्रों से वे परस्पर संबद्ध रहते हैं और अपने कार्यों तथा उत्तरदायित्वों का परस्पर मिल जुलकर निर्वाह करते हैं।
चाहे हम सो रहे हों अथवा जग रहे हों, हर समय लगभग 1400 ग्राम भारी मस्तिष्क, मेरुदण्ड एवं लगभग दस अरब तंत्रिकाओं द्वारा देह की समस्त क्रियाओं का नियंत्रण एवं संचालन होता रहता है। अस्तु यह नहीं समझना चाहिए कि भोजन से शक्ति प्राप्त होती है। शक्ति का उद्गम केन्द्र तो मस्तिष्क है जो पूरे शरीर में अपना एक जाल बिछाये हुए है और उस जाल के माध्यम से शरीर को नियंत्रित करता है। मस्तिष्क से निकल कर नासिका, कान, नेत्र, मुँह और त्वचा तक पहुँचने वाली तंत्रिकाएं उन्हें सक्रिय रहने के लिये शक्ति ही प्रदान नहीं करतीं बल्कि उन्हें आदेश और निर्देश भी प्रदान करती हैं। यदि किसी भी अंग से इनका संबंध विच्छेद हो जाय तो वह अंग पाचन संस्थान से पर्याप्त रस रक्त मिलते रहने के उपरान्त भी कार्य करने में सक्षम नहीं रह जाता।
कहने की आवश्यकता नहीं है कि मस्तिष्क ही देखता है आँखें नहीं, मस्तिष्क ही सुनता है कान नहीं और मस्तिष्क ही स्पर्श आदि का अनुभव करता है त्वचा नहीं। संक्षेप में यदि मस्तिष्क का शरीर में महत्व की दृष्टि से कोई स्थान निर्धारित करना हो तो उसे शरीर राज्य का सम्राट कहा जा सकता है तथा वही कर्ता-भर्ता और भोक्ता भी। क्योंकि उसके बिना शरीर का कोई भी क्रिया-कलाप सम्पन्न होना संभव ही नहीं है।
जीव शास्त्रियों ने अपने प्रयोगों और अनुसंधानों से जो निष्कर्ष निकाले हैं वे और भी विस्मय विमुग्धकारक हैं। डा. जेम्स फील्ड ने अपने दीर्घकाल के प्रयोगों और अन्वेषणों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि यदि हम बिना भूख के, थके हुए मस्तिष्क के समय भोजन करते हैं तो उस भोजन से शरीर को शक्ति मिलने के स्थान पर विपरीत प्रभाव ही होता है क्योंकि तब थका हुआ मस्तिष्क पाचन संस्थान को सुसंचालित रखने की स्थिति में नहीं रहता। इसके अलावा उन्होंने यह निष्कर्ष भी प्रतिपादित किया कि रोगी लम्बे समय तक बिना भोजन के रह सकता है क्योंकि मस्तिष्क को भोजन की आवश्यकता नहीं होती। उसका पोषण आहार से कम विचारों से अधिक होता है। यदि अच्छे विचार मस्तिष्क में आते रहें तो मानसिक संतुलन बना रहता है और वह मनःसंस्थान अधिक कुशलता के साथ कार्य करता रह सकता है।
भूख के कारण रोग उत्पन्न होने की संभावना को नकारते हुए डा. जेम्स फील्ड ने कहा है कि ‘भूख के कारण रोगों का सामना करना पड़ता है,’ यह सोचना गलत है। सही बात तो यह है कि अधिकाँश रोग भोजन के कारण ही होते हैं। क्योंकि तब मस्तिष्क की शक्ति अन्य क्रियाओं के साथ भोजन को पचाने में जितना योगदान दे सकती है उतना नहीं दे पाती। अतः यह तथ्य भली भांति सम लेना चाहिए कि शरीर में शक्ति का स्त्रोत भोजन नहीं मस्तिष्क है और शक्ति सम्पन्न, स्वस्थ तथा पुष्ट शरीर के लिए भोजन से अधिक मानसिक स्थिति का संतुलित होना अधिक आवश्यक है।
यहाँ भोजन की व्यर्थता नहीं बताई जा रही। कहा इतना भर जा रहा है कि आहार से शक्ति नहीं मिलती वह तो बेचारा मस्तिष्क के निर्देशों के अनुसार शरीर में होने वाली टूट-फूट के लिये मरम्मत का सरंजाम भर है। शक्ति स्वास्थ्य और सौंदर्य का उद्गम केन्द्र तो मस्तिष्क है और वह तभी ठीक ढंग से कार्य करता रह सकता है, जबकि शान्त, अनुद्विग्न और आवेश रहित जीवन व्यतीत करते हुए मनःस्थिति को संतुलित रखा जाए।