आत्म-शक्ति अभिवर्धन का श्रेष्ठतम उपाय- गायत्री

April 1981

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सम्पूर्ण विश्व मूलतः दो ही शक्तियों का क्रिया व्यापार है, एक चेतन, दूसरी जड़। जड़ दिखाई पड़ने वाले पदार्थ दिखने भर में ही जड़ प्रतीत होते हैं। अन्यथा उनमें भी अद्भुत क्रियाशीलता विद्यमान है। उदाहरण के लिए पदार्थ को ही लें। पदार्थ जड़ दिखाई देता है, पर उसका सबसे छोटा घटक परमाणु अपने आप में अद्भुत क्रियाशील लिए रहता है। पदार्थ चर्मचक्षुओं स्थिर संबंध दिखाई पड़ता है, लेकिन जब सूक्ष्मदर्शी यंत्रों से उसकी अंतरंग स्थिति को देखा जाता है तो प्रतीत होता है कि उसके भीतर कितनी प्रचण्ड शक्ति विद्यमान है और कितनी द्रुतगामी हलचलें उसमें काम कर रही हैं। वैज्ञानिक जानते हैं कि पदार्थ का यह सबसे छोटा घटक परमाणु अपने भीतर कितनी भयंकर क्षमता दबाये हुए है और वह क्षमता कितनी सक्रिय हलचलें उत्पन्न कर रही है?

पदार्थ सभी जड़ और स्थिर समझे जाते हैं, रेत, पर्वत, तालाब आदि सभी मोटी दृष्टि स्थिर लगते हैं, परन्तु उनमें सृजन, अभिवर्धन और विघटन का जो क्रम अनवरत रूप से चलता रहता है, उसे गम्भीरतापूर्वक देखने से प्रतीत होता है कि जीवधारी जिस प्रकार अपने विभिन्न प्रयोजनों में निरन्तर कुछ न कुछ सोचते, करते रहते हैं, उसी प्रकार पदार्थ की दृश्य और अदृश्य गतिशीलता भी इस संसार के हलचल युक्त बनाये हुए है। अपनी पृथ्वी से लेकर असंख्य ग्रह-नक्षत्रों तक सभी ब्रह्माण्डीय पिण्ड द्रुतगति से अपनी धुरी और कक्षा पर भ्रमण कर रहे हैं और अपनी आकर्षण शक्ति के द्वारा एक दूसरे के साथ जकड़े हुए हैं। इतना ही नहीं, उनके अन्तः क्षेत्र में चित्र-विचित्र गतिविधियाँ अत्यन्त तीव्रगति से चलती रहती हैं। पदार्थ के साथ यह सक्रियता अविच्छिन्न रूप से जुड़े होने के कारण ही उनका अस्तित्व बना हुआ है।

पदार्थ की संरचना उसकी प्रचण्ड क्रियाशीलता के साथ जुड़ी हुई है। इसी के कारण वस्तुएं स्वयमेव उपजती और बदलती रहती हैं। पदार्थ की इस क्रियाशीलता को ही अपरा प्रकृति कहा गया है। परमाणु की तरह ही दूसरा घटक है- जीवाणु। जीवाणु का शरीर कलेवर तो रासायनिक पदार्थों से ही बना है, पर उसकी अन्तः चेतना मौलिक है और वह अपने प्रभाव से कलेवर को तथा समीपवर्ती वातावरण को प्रभावित करती रहती है। इसे ही चेतना कहते हैं।

चेतना के दो गुण हैं, एक इच्छा एवं आस्था तथा दूसरी विवेचना एवं विचारणा। इच्छा को भाव और विचारणा को बुद्धि कहते हैं। एक को अन्तरात्मा तथा दूसरी को मस्तिष्क भी कहा जा सकता है। मस्तिष्क जो सोचता है उसके मूल में आकाँक्षा, आस्था, विवेचना एवं विचारणा की सम्मिलित प्रेरणा ही काम करती है। इस जीव चेतना को पराप्रकृति कहा जाता है।

अपरा प्रकृति का सबसे छोटा घटक परमाणु है इसका संयुक्त रूप ब्रह्माणु अथवा ब्रह्माण्ड है। व्यष्टि और समष्टि के नाम से भी इसे जाना जाता है। जीवाणु की चेतनसत्ता आत्मा कहलाती है और उसकी समष्टि विश्वात्मा अथवा परमात्मा। ब्रह्माण्ड में भरी क्रियाशीलता से परमाणु प्रभावित होता है। इसे यों भी कहा जा सकता है कि परमाणुओं की संयुक्त चेतना ब्रह्माण्ड व्यापी हलचलों का निर्माण करती है। इसी प्रकार चेतना के क्षेत्र में इसी तथ्य को परमात्मा द्वारा आत्मा को अनुदान मिलने अथवा आत्माओं की संयुक्त चेतना के रूप में परमात्मा के विनिर्मित होने की बात किसी भी तरह से कही जा सकती है।

जड़ जगत के, पदार्थ तत्व के मूल घटक परमाणु का गहनतम विश्लेषण करने पर जाना गया है कि वह मूलतः ऋण और घन विद्युत प्रवाहों के मिलने से उत्पन्न होने वाली हलचल मात्र है। परिस्थितियों के अनुसार वह हलचल ही दृश्य रूप धारण करती और पदार्थ के रूप में दृश्य होती चली जाती है। इसी प्रकार जीवात्मा भी यों स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर धारण किये, अनेक प्रकार के साधन उपकरण सम्हाले दिखता है। उसकी अपनी अहंता और इच्छा भी है किन्तु मूलतः वह व्यापक चेतना का ही एक स्फुल्लिंग मात्र है। उसे विभिन्न प्रकार की क्षमताएं विश्वात्मा के महा समुद्र से ही मिलती हैं। मछली का शरीर, आहार, निर्वाह सब कुछ जलाशय पर ही अवलम्बित है, इसी प्रकार जीव भी ब्रह्म पर आश्रित है। इस ब्रह्माण्ड में संव्याप्त उस चेतना मानसरोवर को गायत्री कह सकते हैं, जो प्राणियों में संवेदना और पदार्थों में सृजन परिवर्तन करने वाली क्रियाशीलता बन कर काम करती है। इसे ब्रह्म चेतना से ही उद्भूत माना गया है। ज्ञान से कर्म बना और दृश्य ने अपना कलेवर धारण किया। इस प्रकार यह विश्व मूलतः अद्वैत होते हुए भी द्वैत बन गया। ब्रह्म से प्रकृति बनी बौर फिर वे दोनों मिल जुलकर सृष्टि का इतना विकास कर सके, जैसा कि हमें दृष्टिगोचर होता है। इसी तथ्य को पुराणों में अनेकों अलंकारिक कक्ष उपाख्यानों के रूप में बताया गया है।

शास्त्र पुराणों में उल्लेख आता है कि ब्रह्माजी की दो पत्नियाँ थीं, एक गायत्री और दूसरी सावित्री। इसमें यही संकेत छुपा हुआ है कि ब्रह्म की दो क्षमताएं हैं एक परा प्रकृति चेतन सत्ता और दूसरी अपरा प्रकृति अर्थात् पदार्थ सत्ता। एक का धर्म ज्ञान है तो दूसरी का कर्म। एक अदृश्य है तो दूसरी दृश्य। एक सजीव है, तो दूसरी निर्जीव। इतने पर भी दोनों का उद्गम स्त्रोत एक ही है। हिमालय के अन्तराल में से गंगा और यमुना दोनों ही धाराएं निकलती हैं। इसी प्रकार ब्रह्म से परा और अपरा प्रकृति का उद्भव हुआ है।

गायत्री को मूलतः ब्राह्मी शक्ति कह सकते हैं। समुद्र ही असंख्य लहरें पृथक दिखती हैं और उनकी आकृति प्रकृति में भी भिन्नता रहती है। इतने पर भी समुद्र की सतह पर होने वाली हलचल ही इन लहरों का सृजन करने का मूलकारण है। गायत्री महा शक्ति के चेतन और जड़ विभाजन तो आरम्भिक हैं, आगे चलकर गंगा और यमुना में उठने वाली अनेकों लहरें, धराएं तथा भंवर आदि के रूप में उत्पन्न होने वाली हलचलों की तरह उस ब्राह्मी शक्ति की भी अनेकानेक धाराएं हैं। इन्हें विभिन्न नाम दिये गये हैं। गायत्री के अनेकों नाम रूप हैं। गायत्री सहस्रनाम में उसके एक हजार नाम गिनाये गए हैं। इन्हें उस महान शक्ति सागर की लहरें तरंगें कह सकते हैं। सहस्रनाम से तात्पर्य उस ब्राह्मी शक्ति के प्रकारों को अमुक गणना में सीमा बद्ध कर देना नहीं है वरन् उसका तात्पर्य है असंख्य। सहस्रनाम तो अगणित असंख्य की ओर इंगित मात्र है।

इस महा शक्ति के स्वरूप, क्रिया-कलाप एवं उपयोग को शास्त्रों में अनेक उदाहरणों के साथ ही बताया गया है। कहीं तो उस शक्ति ने स्वयं ही अपने स्वरूप का परिचय दिया है और कहीं देवताओं ने अथवा ऋषियों ने स्तवन के रूप में उसके स्वरूप का गुणगान सहित वर्णन किया है। इन वर्णनों के आधार पर यह जाना जा सकता है कि गायत्री शक्ति तत्व इस संसार में कहाँ, किस प्रकार कार्य कर रही है?

कहा गया है-

गायत्री पददेवतेति गहिता ब्रह्मैव चिद्रूपिणी।

अर्थात्- यह गायत्री सबसे परा श्रेष्ठ देवता है, ऐसा कहा गया है। यह चित् स्वरूप वाली गायत्री साक्षात् ब्रह्म है।

गायत्री तुपरं तत्वं गायत्री परमागतिः। -वृहद् पारासर 5।4

गायत्री ही परम तत्व है। गायत्री ही परमगति है।

सैषा चतुष्पदा षडविद्या गायत्री तदेतह्याभ्यनूत्तम। तावानस्य महिमा ततो ज्याया श्च पूरुषाः। पादोऽस्य सर्व भूतानी त्रिपाऽस्यामृतं दीविति। -छांदोग्य 3।12।5

अर्थात्- यह गायत्री चार पाद वाली और छः भेदों वाली है। इस गायत्री की अविच्छिन्न महिमा है। यह तीन पद वाला परम पुरुष अमृत और प्रकाश रूप बन कर आत्मा में स्थित हो। इसका एक पद सन्तोष विश्व है।

गायत्री की चेतनात्मक धारा सद्बुद्धि के, ऋतम्भरा प्रज्ञा के रूप में काम करती है और जहाँ उसका निवास होता है, वहाँ ब्राह्मणत्व एवं देवत्व का अनुदान बरसता चला जाता है, साथ ही आत्मबल के साथ जुड़ी हुई दिव्य विभूतियाँ भी उस व्यक्ति में बढ़ती चली जाती हैं। इस तथ्य का उल्लेख शास्त्रों में इस प्रकार हुआ है।

सर्वदा स्फुरिस सर्वछदि वासयासे। नमस्ते परारूपे नमस्ते पश्यन्ती रूपे नमस्ते, मध्यमा रूपे नमस्ते बैखरी रूपे सर्व तत्वात्मिके सर्व विद्याऽऽत्मिके। सर्व क्त्यात्मिके सर्वदेवात्मिके वशिष्ठेय मुनि नाऽऽराधाधिते विश्वामित्रेण मुनिनोप संव्यमाने नमस्ते नमस्ते। -असिमालिकोपनिषद

अर्थात्- हे महा शक्ति तुम सर्वत्र विद्यमान हो, सर्वत्र स्फुरण करती हो, सभी हृदयों में तुम्हारा निवास है। परा, पश्यन्ती, मध्यमा और बैखरी वाणियाँ तुम्हारे ही रूप हैं। तुम तत्व रूपिणी हो, सर्व विद्यमान हो, समस्त शक्तियों की अधिष्ठात्री हो, सब देवताओं की आराध्य हो, वशिष्ठ और विश्वमित्र ऋषियों ने तुम्हारी ही उपासना करके सिद्ध पाई है। तुम्हें बार-बार नमस्कार है।

ऋग्वेद में कहा गया है-

गायन्ति त्वा गायत्रिणोऽर्यन्त्यर्क मर्किण। ब्रह्मणस्त्वा शतक्रता उदवंशपिवमेपिरे॥ ऋग्वेद 1/10/1

हे माता गायत्री, मन्त्रवेत्ता तेरा ही गुणगान करते हैं। गायत्री मंत्र द्वारा यजन करने वाले कर्मयोगी याजक यज्ञ याग द्वारा तुम्हारी ही अर्चना करते हैं। विद्वान तुम्हारे नाम की ही यश-पताका को लिए फिरते हैं।

यह दृश्य जगत पदार्थमय है। इसमें जो सौंदर्य, वैभव, उपभोग सुख दिखाई पड़ता है वह ब्रह्म की अपरा प्रकृति का ही अनुदान है यह सब गायत्रीमय है। सुविधा की दृष्टि से इसे सावित्री नाम दे दिया गया है ताकि पदार्थ जगत में उसके चमत्कारों को समझने में सुविधा रहे। गायत्री की इस स्थूल धारा सावित्री को जो जितनी मात्रा में धारण करता है, वह भौतिक क्षेत्र में उतना ही समृद्ध सम्पन्न बनता जाता है। इस विश्व में बिखरी हुई सीमा सम्पन्नता को उसी महा शक्ति का इन्द्रियों में अनुभव किया जा सकने वाला स्वरूप कह सकते हैं। शास्त्रों में उसकी अनेक प्रकार से चर्चा की गई है। कहीं उसके विराट् रूप का विवेचन किया गया है तो कहीं उसके शक्ति रूप की विभिन्न तरह से चर्चा की गई है। पर इतना स्पष्ट है कि वह स्थूल और सूक्ष्म, जड़ और चेतन अपरा और परा प्रकृति में संव्याप्त चेतना शक्ति ही है।

शक्तिवान के साथ शक्ति का जुड़ा होना निश्चित और असंदिग्ध है। गायत्री ब्रह्म और शक्ति का ही समन्वय युग्म है। प्रत्येक शक्तिवान की सामर्थ्य को उसी संव्याप्त क्षमता का स्वरूप कहा जा सकता है। इसे कई स्थानों पर पति-पत्नी के उदाहरणों सहित भी चित्रित किया गया है। समर्थों की सामर्थ्य के रूप में, विशिष्टों की विशेषताओं के रूप में इस महाशक्ति के दर्शन स्थान-स्थान पर किये गए हैं।

मंत्राणां मातृका देवी शब्दानां ज्ञान रूपिणी। ज्ञानानां चिंतातीता शून्यानां शून्यसाक्षिणी।

अर्थात्- यह महाशक्ति मंत्रों में मातृ का रूप, शब्दों में ज्ञानरूप, ज्ञानियों में चिंतयातीत और शून्यवादियों में शून्य रूप है।

गायत्री का मूल स्वरूप शक्ति है। यह स्पष्ट है कि संसार में जितने भी अभाव और कष्ट हैं, जितनी भी आधि-व्याधियां हैं उन सबका कारण शक्ति का अभाव ही है और सभी शक्तियों का उद्गम आत्मशक्ति है। आत्मशक्ति के अभाव में मनुष्य की विचारणा निकृष्ट बनती है और प्रतिभा के अभाव में सुख साधनों से वंचित रहना पड़ता है। अस्तु, शक्ति संचय के प्रयत्न निरन्तर करने चाहिए। भौतिक समर्थता किस प्रकार प्राप्त होती है, इसे सब जानते हैं, पर आत्मिक तेजस्विता किस प्रकार पाई जा सकती है इसका मार्गदर्शन अध्यात्म विज्ञान ही कर सकता है। इस दृष्टि से गायत्री उपासना आत्म-शक्ति अभिवर्धन का सरल और श्रेष्ठतम उपाय है। जो इसके लिए प्रयत्न करते हैं वे समर्थ, सफल और सार्थक जीवन जीते हैं।


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