आध्यात्मिक चिकित्सा विज्ञान की कसौटी पर

April 1981

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आधी शताब्दी से भी अधिक वर्षों तक जिस देश के नागरिकों को यह समझाया जा रहा है कि धर्म अफीम की गोली है और दुनिया में ईश्वर नाम की कोई चीज नहीं है। साम्यवादी शासन प्रणाली अपनाए हुए देश रूस में इन दिनों एक महिला की चर्चा बहुत आम है। नाम है उसका जूना दपिताश्वलि। जूना के संबंध में विख्यात है कि वह बिना किसी औषधि और उपचार के लोगों को जटिल से जटिल रोगों से मुक्ति दिला कर स्वस्थ बना देती है। 73 वर्षीय इस अविवाहित महिला से जब पूछा गया कि वह किस प्रकार बिना दवा उपचार के रोगियों को ठीक कर देती है? तो उसका उतर था, ‘कुछ नहीं केवल ईश्वर विश्वास। केवल ईश्वर के प्रति विश्वास रखकर ही मैं रोगी के लिए स्वास्थ्य की प्रार्थना करती हूँ। मेरा विश्वास फलित होता है और रोगी ठीक हो जाता है।’

पिछले दिनों जूना के संबंध में कई सोवियत पत्र-पत्रिकाओं में उसकी इस चमत्कारी क्षमता के संबंध में विस्तृत विवरण प्रकाशित हुआ और यहाँ तक कि सोवियत नेता लियोनिद ब्रेजनेव ने भी पिछले दिनों अस्वस्थ होने पर इस महिला की चमत्कारी क्षमता से स्वास्थ्य लाभ किया। जहाँ भी वह जाती है लेखक, बुद्धिजीवी, कलाकार अधिकारी और प्रतिष्ठित व्यक्ति जो किन्हीं रोगों से त्रस्त होते हैं उसके इर्द-गिर्द भीड़ लगाए इकट्ठे हो जाते हैं, उसकी इस विशेष क्षमता से लाभ उठाकर स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करने के लिए।

जूना इन दिनों इतनी अधिक व्यस्त है कि महीनों पहले उसके पास उपचार के लिए मरीज अपने नाम भेज देते हैं ताकि उनका क्रम आने पर वे इलाज करवा सकें। रूस के अधिकारी, साम्यवादी नेता जो वहाँ की जनता को हमेशा से यह समझा रहे हैं कि इस दुनिया में चमत्कार या दैवी कृपा जैसी बातों का कोई आधार नहीं है, अब जूना की इन क्षमताओं का वैज्ञानिक अध्ययन करने की योजना बना रहे हैं। एक सोवियत पत्रिका में छपे जूना के परिचय में कहा गया है कि उसने अल्सर के एक पुराने रोगी को कुल पन्द्रह मिनट में ठीक कर दिया। एक क्रानिक सिर दर्द के मरीज को उसकी आँखों पर अंगुलियां घुमाकर रोग मुक्त करा दिया। वह मरीज को देखकर ही बता देती है कि उसका उपचार किया जा सकता है अथवा नहीं और यदि उपचार किया जा सकता है तो कितने समय में वह ठीक हो जाएगा।

साम्यवादी व्यवस्था में इस तरह की मान्यताओं का कोई स्थान या महत्व न होने पर भी जूना किस आधार पर इस बात का जीता जागता प्रमाण बन सकी है कि स्थूल कलेवर से हटकर भी मनुष्य का कोई सूक्ष्म कलेवर है जो स्थूल की अपेक्षा अधिक समर्थ और शक्तिशाली है। इसे ईश्वर विश्वास का प्रतिफल कहा जाए अथवा चमत्कार। यह निश्चित है कि जूना उस स्तर की सिद्ध महिला है, जो प्रकृति को अपना नियंत्रण स्थापित कर इच्छित दिशा में अभीष्ट परिणाम प्राप्त कर सकती है। योग विद्या के जानकार जानते हैं कि योग साधनाओं के परिणाम स्वरूप मनुष्य में ऐसी अनेक विशिष्ट क्षमताएं उत्पन्न हो जाती हैं, जिन्हें चमत्कार ही कहा जा सकता है। योगदर्शन सहित अन्याय योग ग्रन्थों में इस प्रकार की कई सिद्धियों और चमत्कारी क्षमताओं का उल्लेख आता है जो साधारण मनुष्य को महामानव और अति मानव बना देती है।

जूना पहले एक रैस्टोरेंट में ग्राहकों को भोजन कराने काम करती थी। यह काम करते हुए ही उसे विलिस में एक ईसाई भिक्षुणी मिली और उसने जूना को कुछ साधनाएं सिखाईं। भिक्षुणी का संपर्क पाकर जूना के संस्कार जाग उठे और वह अपना काम मुस्तैदी से करते हुए भी बताई गईं साधना के लिए समय निकालने लगी। धीरे-धीरे उसकी साधना के सत्परिणाम सामने आने लगे और उसने अपने में यह अद्भुत क्षमता जागृत होती हुई अनुभव की। कुछ लोगों पर उसने प्रयोग भी किये जिसके आशाजनक परिणाम निकले। बस, उसने आध्यात्मिक चिकित्सा को ही अपने जीवन का मिशन बना लिया और प्राण-प्रण से इसी काम में जुट गई। उसी का परिणाम है कि जूना पहले जिस रेस्तरा में काम करती थी, उसी शहर में एक विशेष क्लिनिक खोलने की व्यवस्था की जा रही है ताकि वह अपना काम अधिक व्यवस्थित ढंग से कर सके और उसकी इस चमत्कारी क्षमता अधिकाधिक लोग लाभ उठा सकें। जहाँ तक उसकी प्रामाणिकता का प्रश्न है, रूस के वे मूर्धन्य नेता भी जूना की इस असाधारण प्रतिभा का लोहा मानने लगे हैं, जो इस तरह की बातों का मखौल उड़ाया करते थे। जूना अभी भी अपने लिए कुछ नहीं चाहती उसका इतना ही कहना है कि, ‘‘लोग न तो बुरे हैं और न अच्छे केवल अस्वस्थ हैं या स्वस्थ।’’

इस तरह की दृष्टि का विकास आत्मिक चेतना के उच्चस्तरीय विकास का ही परिचायक है। भारतीय दर्शन तृष्णा-वासना, लोभ-मोह, अहंता-ममता को विकार ही माना है और विकार रोग ही उत्पन्न करते हैं। रोगी भर्त्सना या निन्दा का नहीं करुणा तथा सेवा का पात्र इसलिये इन विकारों के निष्कासन में किसी को स्वयं उसे ही लगाया जाय अथवा खुद ही प्रयत्न किये जांय, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता।

भारतीय दर्शन किसी को भी गर्हित या निंदित नहीं मानता। गर्हित और निंदित है तो विकार है, उन्हें ही किया जाना चाहिए। यही कारण है कि नारद ने रत्नाकर डाकू के मल विकारों का शोधन कर उसे डाकू से सन्त बना दिया, भगवान बुद्ध ने दुर्दान्त दस्यु अंगुलिमाल को अहिंसा की दीक्षा दी। ऐसे अनेकानेक उदाहरण हैं जिन्होंने किसी शरीर को ही स्वस्थ और स्वच्छ नहीं बनाया, बल्कि उसके व्यक्तित्व को भी परिष्कृत कर नराधम से नर रत्न बना दिया।

जहाँ तक आस्था या आत्मिक शक्ति के बल पर किसी स्वस्थ कर देने का प्रश्न है भारत में ऐसे अनेकों संत महापुरुष हुए हैं जिन्होंने अपनी सहज करुणावश असंख्य जनों को लाभान्वित किया। स्वामी योगानन्द परमहंस ने अपनी आत्म-कथा ‘आटोबॉय ग्राफी आफ ए योगी’ में अपने गुरु तथा उनके गुरु का इन क्षमताओं से संबंधित कई घटनाओं का विवरण दिया है। एक स्थान पर उन्होंने लिखा है, “आश्रम में अपने प्रारम्भिक निवास के समय मैंने एक दिन देखा कि श्री युक्तेश्वर जी मेरी ओर तीक्ष्ण दृष्टि से देख रहे हैं। उन्होंने कहा- ‘मुकुन्द तुम बहुत दुर्बल हो।’

‘उनके इस कथन ने मन के एक अति कोमल स्थान को छू दिया। अपनी धँसी हुई आंखें और क्षीण काया मुझे स्वयं नहीं भाती थी। मेरे कमरे में टांड़ पर टॉनिक की शीशियाँ रखी रहती थीं और मैं उनका बराबर सेवन करता था, परन्तु किसी से कोई लाभ नहीं होता। मैं दुखित होकर अपने आपसे पूछने लगता ऐसा अस्वस्थ शरीर लेकर जीने से क्या लाभ है? मैं कुछ सोच ही रहा था कि मेरे गुरु ने कहा- ‘औषधियों की कोई सीमा नहीं है। दिव्य संजीवनी प्राणशक्ति की कोई सीमा नहीं है। उसमें विश्वास रखो तुम स्वस्थ और मजबूत बन जाओगे।’

गुरुदेव के वचनों से मुझे तुरन्त विश्वास हो गया कि मैं उनमें निहित सत्य का अपने जीवन में सफल प्रयोग कर सकता हूँ। इसके पहले अन्य किसी भी चिकित्सक ने मेरे मन में इतना विश्वास पैदा नहीं किया था। दिन प्रतिदिन मेरे स्वास्थ्य और शक्ति में वृद्धि होने लगी। दो सप्ताह में ही मेरे शरीर का वजन इतना बढ़ गया कि पहले अथक प्रयासों से भी उतना कभी नहीं बढ़ा था। मेरे पेट की गड़बड़ियां सदा के लिए दूर हो गईं। उसके बाद तो अनेक बार गुरुदेव की दैवी शक्ति के द्वारा बहुत सारे लोगों को मधुमेह, मिरगी, यक्ष्मा या पक्षाघात आदि कठिन और असाध्य समझे जाने वाले रोगों से मुक्त होते हुए देखने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ।

रूस में ही नहीं अन्य यूरोपीय देशों में भी इस प्रकार की चिकित्सा विधि पर खोज की जाने लगी है। पश्चिमी देशों में तो कई व्यक्ति इस विधि का इतनी क्षमता के साथ उपयोग करते हैं कि रोगी देखते चंगा हो जाता है। डॉक्टर जिस रोग को दुस्साध्य बता देता है, उस रोग का सामान्य-सा उपचार इस तरह की चिकित्सा विधि जानने वाले करते हैं। कभी रुग्ण अंग पर हाथ फेर कर कभी आँखों में आंखें डालकर कुछ निर्देश देकर तो कभी प्रार्थना द्वारा और कभी अभिमंत्रित जल पिलाकर इस पद्धति से उपचार किये जाते हैं। सुविधा के लिए लोगों ने इस पद्धति के विभिन्न नाम रख लिए हैं। दैवी चिकित्सा, फेथ हीलींग, थिरैप्टिक टच आदि नाम इस विद्या के प्रयोक्ता अपनाई जाने वाली पद्धति के लिए करते हैं।

इस पद्धति से किस प्रकार का लाभ होता है? रोग का सही निदान होता है अथवा नहीं? रोगी को सचमुच आराम पहुँचता है या नहीं? आदि कई प्रश्न चिकित्सा विज्ञानियों के लिये खोज के विषय बने हुए हैं। स्वयं उस पद्धति का उपयोग करने वाले नहीं जानते कि उनके उपचारात्मक प्रयास किस प्रकार रोगी को लाभ पहुँचाते हैं? परन्तु लाभ पहुँचता है। इस चिकित्सा विज्ञान की जितनी प्रामाणिक और सुसंगत व्याख्या भारतीय मनीषियों ने की है, उतनी संभवतः दुनिया के किसी भी देश में नहीं हो सकी है। भारतीय दर्शन शरीर को गौण और प्राण को मुख्य मानता है। प्राण ऊर्जा ही शरीर को स्वस्थ रखने में समर्थ होती है। न केवल शरीर को वरन् मस्तिष्क, स्वभाव, आचरण, व्यवहार और चरित्र का स्वास्थ्य भी प्राण ऊर्जा पर अवलम्बित है। भारतीय मनीषियों की मान्यता है कि परिष्कृत और प्रखर प्राण-ऊर्जा का प्रवाह व्यक्ति को पूर्ण स्वस्थ रखने में समर्थ होता है। उसका स्वरूप या स्तर जब गिरता है तो व्यक्ति का शारीरिक मानसिक और नैतिक स्वास्थ्य भी लड़खड़ाने लगता है। तब प्राण ऊर्जा सम्पन्न व्यक्ति अपनी प्राणशक्ति का प्रक्षेपण कर रुग्ण व्यक्ति को स्वस्थ बना देता है।

न्यूयार्क विश्वविद्यालय की एक नर्स डोलोरिस क्रेगर ने भी इस प्रकार प्रभावी आध्यात्मिक चिकित्सा में सफलता प्राप्त ही है तथा नाम यश कमाया है। क्रेगर ने यह विद्या उसी विश्वविद्यालय की एक प्रोफेसर एन. अंडेल से सीखी थी। अमेरिका में इन दिनों आध्यात्मिक चिकित्सा पर बड़ी तेजी से काम हो रहा है और किस प्रकार रोगी को जल्दी से जल्दी ठीक किया जा सके, इसके उपाय ढूंढ़े जा रहे हैं। इन शोधकर्ताओं में ब्राइस बौण्ड, कैथरीन कुलपैन, एम वालिस, मारिया जेनिस, गैरी कूवर, ज्वेल बर्ली आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

इस चिकित्सा पद्धति की वैज्ञानिकता को अभी पूरी तरह परखा नहीं जा सका है। पर जो लोग इसे विवादास्पद बताते हैं, वे भी इतना तो स्वीकार करते ही हैं कि फेथ हीलर्स के उपचार से ठीक हुए रोगी वास्तव में स्वस्थ हो गए हैं। उनमें रोग के कोई लक्षण नहीं पाए गए, जो उपचार से पहले विद्यमान थे। जब रोगी ठीक नहीं होता है तो विवाद का क्या आधार रह जाता है? इसके उत्तर में यही कहना पड़ता है कि अभी इस दिशा में वैज्ञानिक शोध, परीक्षण, निरीक्षण या प्रयोग अंतिम स्थिति में नहीं पहुँचे हैं। संशयात्मक स्थिति है। आध्यात्मिक चिकित्सा का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं मिला है तो ऐसा भी नहीं है कि निराधार सिद्ध हो गई।

इस संदर्भ में नोबेल पुरस्कार विजेता शरीर विज्ञानी डा. चार्ल्स राबर्ट रिशे का यह कथन उल्लेखनीय है कि, आध्यात्मिक चिकित्सा को अभी तक विज्ञान के रूप में मान्यता नहीं मिली है। किन्तु शीघ्र ही विज्ञान उसे स्वीकार कर लेगा। हम अपने शरीर और मस्तिष्क द्वारा जो अनुभव करते हैं या परीक्षण और अनुभव के जो साधन हमारे पास उपलब्ध हैं वे पर्याप्त नहीं हैं। इसीलिए अभी हम इस प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाने वाली विद्या को विज्ञान के रूप में मान्यता नहीं दे पा रहे हैं। कोई सत्य दुर्लभ है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि उसका कोई अस्तित्व नहीं। यदि किसी विद्या का अध्ययन कठिन है तो क्या उसे केवल इसलिए जानने का प्रयास नहीं करना चाहिए कि उसका अध्ययन कठिन हैं।

आध्यात्मिक चिकित्सा को विज्ञान आज नहीं तो कल मान्यता देगा। उसके जो प्रत्यक्ष प्रमाण या लाभ दिखाई दे रहे हैं, विज्ञान उन्हें तो नहीं नकार रहा है। यह बात अलग है कि वह अभी उसे प्रयोगशाला में वैज्ञानिक कसौटियों कर कस रहा है।


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