अगर हम समय पर जाग पाये (kavita)

April 1981

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अगर हम समय से नहीं जाग पाये, किरन क्या कहेगी, गगन क्या कहेगा।

नये सूर्य की रोशनी रो उठेगी, अगर प्रातः अंगड़ाइयों में बिताई। सबेरा कहाँ फिर सबेरा रहेगा, अगर प्रातः, जमुहाइयों में बिताई॥

धरा की उदासी नहीं तोड़ पाये, कली क्या हँसेगी, सुमन क्या हँसेगा?

हुई बात क्या जो किरन अनमनी है, उगे सूर्य का आचरण रोशनी है। छुआ प्राण की पाँखुरी को प्रभा ने, अभी गन्ध वह, बंदिनी क्यों बनी है?

सराबोर होकर नहीं साँस गाये, नयी ज्योति का आगमन क्या कहेगा?

वृथा रोशनी ने, सबेरा उतारा, वृथा चेतना ने, सजाया संवारा। कि दीवार-दीवार में प्राण, बन्दी- रहा छटपटाता, हमारा-तुम्हारा।

नहीं पीर को प्यार का बल मिलेगा, व्यथा क्या कहेगी, रुदन क्या कहेगा?

जागो प्राण के, पंछियो गीत गाओ। धरा की उदासी, प्रभाती बनाओ। किरण प्राण की नाचती आ रही है- नयी भैरवी के नये स्वर जगाओ।

नहीं गीत ने प्रीति के प्राण फूँके- महा भाव का आचरण क्या कहेगा?

*समाप्त*


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