मरणोत्तर जीवन के लिए चुनाव की स्वतंत्रता

April 1981

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पदार्थ के सूक्ष्म से सूक्ष्म कण और विराट् से विराट् अस्तित्व ब्रह्मांड के संबंध में बहुत कुछ जान लेने के बाद भी मृत्यु और मृत्यु के बाद वाले जीवन के संबंध में मनुष्य बहुत कम जान पाया है और वह जानना नगण्य के बराबर है। जो कुछ जाना जा सका है वह भी इतना अधिक है कि उसके आधार पर मृत्यु तथा मरणोत्तर जीवन के संबंध में बहुत कुछ कहा जा सकता है। प्राचीन काल में भारतीय मनीषियों ने मृत्यु तथा मरणोत्तर जीवन के संबंध में जो तथ्य निरूपित कर दिये थे, वे आज भी वैज्ञानिक अनुसंधानों से पुष्ट ही होते हैं।

मरणोत्तर जीवन के संबंध में वैज्ञानिक ढंग से अन्वेषण करने वालों में बार्थर लाडार्ट, ग्रेस रोशर, ऐन्थेनी वोर्गिया, एफन हैस्लोप आदि वैज्ञानिकों के नाम प्रमुख हैं। बार्थर लाडार्ट तथा उनके अन्य सहयोगी वैज्ञानिकों ने अपने अनुसंधान प्रयोगों के बाद यह प्रतिपादित किया है कि मनुष्य ही नहीं प्रत्येक प्राणी का अस्तित्व शरीर, मन और आत्मा इन तीनों से मिल कर बना होता है। मृत्यु में केवल शरीर ही नष्ट होता है, मन तथा आत्मा नहीं और यह भी कि मृत्यु मात्र आत्मा को शरीर से पृथक करने वाली प्रक्रिया भर का नाम है। आत्मा के देह-त्याग के बाद केवल शरीर ही नष्ट होता है, मनुष्य प्राणी का अशरीरी अस्तित्व फिर भी बचा रहता है।

मृत्यु के बाद मानवी चेतना किस रूप में विद्यमान रहती है? इस विषय में विभिन्न अनुसंधानकर्ताओं ने अनेक तरह से खोज बीन की है। इस खोज बीन में दिवंगत आत्माओं से संपर्क स्थापित करने से लेकर मरने के बाद पुनः जीवित हो उठे व्यक्तियों से पूछ-ताछ तक के विभिन्न प्रकरण सम्मिलित हैं। “पोस्ट-मार्टम जनरल” पुस्तक की लेखिका ‘मिसेज जेन शेरवुड’ ने अपनी पुस्तक में एक ऐसे व्यक्ति के जीवन-क्रम तथा मरणोपरांत उसकी दिवंगत आत्मा द्वारा दिये गये विवरणों को संकलित किया है, जो अपने जीवनकाल में बड़ा दुस्साहसी था। उस व्यक्ति का नाम था स्काट। स्काट को तीव्रगति से मोटर गाड़ी चलाने, पहाड़ों पर चढ़ने, गहरी और तेज प्रवाह वाली नदियों में तैरने का बहुत शौक था। उसकी मृत्यु भी मोटर साइकिल दुर्घटना में हुई थी, जब वह बहुत तेजी से गाड़ी चला रहा था।

जेन शेरवुड ने प्रेत विद्या विशारदों के साथ प्रेतात्माओं का आह्वान किया तो स्काट की आत्मा ने बताया कि- ‘‘दुर्घटना के तुरन्त बाद क्या हुआ? इस का मुझे कोई अनुभव नहीं हुआ। मैंने अपने आपको एक ऐसी दुनिया में पाया जहाँ न प्रकाश था न अंधेरा। कुछ समय के लिये मैंने अपने आपको सचेत पाया, परन्तु फिर अचेत सा हो गया। कब बेहोशी टूटी? कुछ पता नहीं। जब निद्रा टूटी तो व्यक्तित्व का आभास धीरे-धीरे तीव्र हुआ और मैंने अपने आपको एक ऐसी अजीब दुनिया में पाया, जहाँ मेरे अतिरिक्त और कोई नहीं था। परन्तु वहाँ मेरी आवाज मुझे स्पष्ट तौर पर सुनाई देती थी। मैंने उस समय कई आवाजें लगाई, परन्तु कहीं से कोई उतर नहीं मिला। धीरे-धीरे वातावरण में कुछ परिवर्तन आना आरम्भ हुआ और कुछ प्रकाश-सा दिखाई देने लगा। ऐसा लगता था मानो हेमन्त ऋतु का मौसम है और मेरे पास पर्याप्त वस्त्र नहीं हैं, फिर भी मुझे ठण्ड का तनिक भी आभास न हुआ।’’

स्काट की आत्मा ने बताया कि जो कुछ भी और जैसा कुछ भी अनुभव होता था उसका कारण और उन परिस्थितियों के लिये मैं स्वयं जिम्मेदार था। इसी प्रकार लंदन की एक और प्रेतविद् महिला ग्रेस रोशर को गोर्डन नामक व्यक्ति की आत्मा ने अपने अनुभव सुनाये। ग्रेस रोशर ने अपने अनुभव ‘वियोण्ड दी होराइजन’ पुस्तक में लिखे हैं। इस पुस्तक में उन्होंने गोर्डन आत्मा से हुये साक्षात्कार का विवरण इस प्रकार लिखा है, “सितम्बर की संध्या को जबकि साढ़े तीन बजे थे मैं टेबल पर बैठी कुछ पत्र लिख रही थी। मैंने एक पत्र समाप्त कर दिया था और लिफाफे पर पता लिख चुकी थी। मैंने एक हाथ में पैन पकड़ रखा था और उसका सिरा पैड पर टिका हुआ था मुझे तब एक आवाज सुनाई दी, ‘अपने हाथ को वहीं पर रहने दो और फिर क्या होता है?, मैंने तब देखा कि मेरा पैन बिना मेरे द्वारा हाथ हिलाए स्वयं हिल रहा है। मुझे कुछ ऐसा महसूस हो रहा था जैसे मेरे अन्दर किसी स्वतंत्र बिजली शक्ति ने हरकत पैदा कर दी है। धीरे-धीरे कागज पर शब्द उभर आए, ‘स्नेह सहित मैं गोर्डन’ ये शब्द से में मिले हुये थे और बहुत छोटे थे।’’

मेरे मन में फिर यह प्रश्न उठा कि यह कौन लिख रहा है? गोर्डन है या मैं स्वयं ही लिख रही हूँ? इन प्रश्नों के मन में उठते ही तुरन्त पैन ने लिखना आरम्भ कर दिया, ‘मैं गोर्डन, गोर्डन’। संभवतः नाम इसलिए आ गया था कि मैं संतुष्ट हो जाऊं कि लेखक गोर्डन ही है। क्योंकि ये सारी बातें मेरे पूर्व अनुभव से बाहर की थीं और मेरी संभावनाओं से परे थीं। इसलिए इस संबंध में मैंने कुछ कहना उचित नहीं समझा। गोर्डन से मेरे संबंध बड़े घनिष्ठ थे। उसका देहावसान हो चुका था। इस घटना से मैंने जाना कि वह मुझसे संपर्क रखना चाहता है। क्यों न मैं उसे अपने आपको व्यक्त करने का मौका दूँ? यह विचार करके मैं कागज का पैड और पैन लेकर बैठ गई। तुरन्त एक क्षण में गोर्डन लिखना आरम्भ कर दिया। उसने लिखा, ‘मैं तुमको कुछ लिखना चाहता हूँ, मुझे तुमसे बहुत कुछ कहना है।’

इसके बाद गोर्डन की आत्मा ने जो कुछ लिखा, वह सब उसी ढंग का था, जैसी कि जीवन काल में उसकी मान्यताएं और आकांक्षाएं थीं तथा वह ग्रेस रोशर से प्रायः उन मान्यताओं या आकाँक्षाओं के संबंध में बातें करता रहता था।

‘मोर, एबाउट लाइफ वन द वर्ल्ड अनसीन’ के लेखक ऐन्थेनी वोर्गिया ने एक आत्मा से पूछा था कि ‘क्या परलोक में नरक जैसा कोई स्थान भी है?’ इस प्रश्न के उतर में संपर्क में आने वाली आत्मा ने बताया, ‘विभिन्न धर्मों ने नरक की जैसी रूपरेखा खींची है, ऐसा कोई स्थान परलोक में नहीं है परन्तु परलोक में ऐसी कुछ बस्तियाँ अवश्य हैं जहाँ पहुँचने पर लोगों का मन आक्लांत हो जाता है और वहाँ एक प्रकार की घुटन अनुभव होने लगती है। उन स्थानों की सीमा नहीं है तथा न ही उन्हें किन्हीं परिभाषाओं में बाँधा जा सकता है। उन स्थानों में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को यह छूट मिली हुई है कि वे जब चाहें इस दुःखद वातावरण से किसी भी समय छुटकारा प्राप्त कर लें किन्तु वे अपने नीच विचारों के कारण अपना नरक स्वयं बनाये रखते हैं। कभी-कभी ऐसे आदमियों को ऊपर उठाने में बड़ा परिश्रम करना पड़ता है।

लेखक से जिस आत्मा ने संपर्क किया, वह आत्मा जीवित अवस्था में भी वोर्गिया से परिचित थी। वोर्गिया ने कहा कि ठीक इसी प्रकार की धारणाएँ और दृष्टिकोण, वह व्यक्ति बैन्सन जीवन काल में भी व्यक्त किया करता था। बैन्सन की मृत्यु 43 वर्ष की आयु में हुई थी। उसकी आत्मा ने कहा कि यहाँ आयु का कोई बंधन नहीं है। कोई व्यक्ति वृद्धावस्था में भी मरता है तो भी उसकी स्थिति जवानों जैसी ही होती है। उसे यहाँ बूढ़ा नहीं होना पड़ता। बैन्सन अपने जीवनकाल में भी कहा करता था कि बचपन, जवानी और बुढ़ापा तो शरीर की नियति है, आत्मा का जन्म नहीं होता है इसलिए वह कभी भी बचा नहीं रहती और न कभी वह मरती है। इसलिये वृद्धावस्था का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। ईसाई धर्म से भिन्न प्रकार की धारणाएं उस व्यक्ति की थीं, इसलिये मरणोपरांत भी उसका सूक्ष्म शरीर इसी प्रकार की अनुभूतियाँ करता रहा।

मृत्यु के समय अलग-अलग लोगों को अलग-अलग तरह के अनुभव होते हैं। ‘इन द डान बियाण्ड ऑफ’ के लेखक रेवरेण्ड सीडेट्रन टोमस ने अपनी पुस्तक में एक व्यक्ति को मृत्यु के समय हुए अनुभवों को इन शब्दों में व्यक्त किया है, ‘मेरा हृदय बैठा जा रहा था। दिन का प्रकाश जैसे समाप्त हो रहा था। पहले एक अंधकार की दुनिया आई जिसमें सिर घूमता-सा लगता था। फिर वायुमंडल में कुछ उजाला दिखाई दिया। मुझे अपने उन बच्चों की आवाजें सुनाई दे रही थीं जो मुझसे पहले चल बसे थे। एक अर्ध मूर्छा की अवस्था के बाद मुझे अब साफ सुनाई दे रहा था। मेरे लड़के, मरे भाई तथा अनेक संबंधी जो मुझसे पहले मर चुके थे, मेरे पास ही उपस्थित थे।’’

इसी पुस्तक में एक अन्य दिवंगत आत्मा के अनुभव टोमस ने उसी के शब्दों में इस प्रकार लिखे हैं, ‘मुझे ऐसा अनुभव हुआ जैसे में आस-पास की दुनिया से ऊपर उठ रहा हूँ उस समय मेरे चारों तरफ बहुत से इष्ट मित्र थे और मरे स्वर्गवासी माता-पिता भी मौजूद थे। मुझे किसी विशेष परिवर्तन की अनुभूति नहीं हुई और मुझे तुरन्त निद्रा ने आ घेरा। मैं तीन चार दिन तक सोता रहा। मैंने फिर अनुभव किया कि मैं पृथ्वी से किसी दूरस्थ स्थान पर हूँ। चारों तरफ का वातावरण सुँदर और प्रकाशमय था।

एडवर्ड सी रेण्डेल ने एक दिवंगत व्यक्ति की आत्मा के मृत्यु अनुभव को अपनी पुस्तक ‘फ्रण्टियर ऑफ द ऑफ्टर लाइफ’ में इस प्रकार लिखा है, ‘‘मरने के बाद मैंने अपने चारों ओर उन व्यक्तियों को मौजूद पाया जो मुझसे पहले ही मर चुके थे। पहले पहल मैंने अपन आपको ऊपर उठते हुए देखा और फिर धीरे-धीरे नीचे आ गया। एक शरीर बिस्तरे पर पड़ा था और दूसरा मैं जो खड़ा था। मेरी तमाम शारीरिक वेदनाएं समाप्त हो गई थीं। जो मुझे लेने आए थे, उन्होंने मुझसे चलने को कहा। उस समय एक विचार आया कि क्या यह स्वप्न तो नहीं है? परन्तु जो आत्माएं मुझे लेने आई थीं उन्होंने मुझे आश्वस्त किया कि मैं मर चुका हूँ।”

कुछ व्यक्तियों को मरने के समय सुरंग में से गुजरने का अनुभव होता है, कुछ को प्रकाश दिखाई देता है और कुछ गहन रात्रि का-सा निविड़ अंधकार अनुभव करते हैं। ‘व्हेयर द टू वर्ल्डस् मीट’ पुस्तक के लेखक ‘आर्थर फिंडले’ ने लिखा है- मरणासन्न व्यक्ति को अपने पिछले जीवन की सारी घटनाएं क्रमानुसार दिखाई देती हैं। यह सब तब होता है, जब वह शरीर छोड़ता है। ‘साइकित ब्रिज’ की लेखिका श्रीमती जेन शेरवुड ने भी इसी मत को दोहराते हुये कहा है कि, “मृत्यु के समय तमाम जीवन की फिल्म, विचारों की भीड़ भाग रही होती है। उल्लेखनीय है इस पुस्तक की लेखिका ने मरणोपरांत प्रेत अवस्था में एक माध्यम से लिखवाया था।

अब तक इस संबंध में हुए अनुसंधान और शोध निष्कर्षों से यही प्रमाणित होता है कि मृत्यु के समय मनुष्य की वैसी ही मनःस्थिति रहती है जैसी कि उसके जीवनकाल में होती है। यों भी कहा जा सकता है कि जीवन भर के संस्कार, अनुभव, धारणाएं तथा दृष्टिकोण मिलकर ही पारलौकिक जीवन का स्वरूप निर्धारण करते हैं? भगवान श्रीकृष्ण ने इस शाश्वत सत्य का उद्घाटन हजारों वर्ष करते हुए कहा है-

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते क्लेवरम्। तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च। मय्यर्पितमनोर्बुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥ (भगवद् गीता 8/6, 7)

अर्थात्- हे कुँती पुत्र अर्जुन, अंतिम समय जिस जिस भाव का स्मरण करते हुये मनुष्य शरीर को छोड़ता है, सर्वदा उसी भाव के आश्रित हो कर उसी भाव को प्राप्त करता है। इसीलिए सभी कालों में मुझे (ईश्वर को) ही स्मरण करते हुये (जीवन) संग्राम में लड़ो। मुझ में ही मन और बुद्धि को अर्पित करो तभी तुम निस्संदेह मुझे प्राप्त होंगे।

मरने के बाद नया जीवन मिलता है, उस जीवन में क्या संभावनाएं उपलब्ध हो सकती हैं, इसकी आधारशिला भी इसी जीवन में निर्धारित हो जाती है। अस्तु, परलोक को सुखमय बनाने के लिए भी इस जीवन को इतना आनंदित, शुद्ध और पवित्र बनाना आवश्यक है कि मरने के बाद वैसी ही परिस्थितियां प्राप्त हो सकें।


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