अपनों से अपनी बात- वरिष्ठ परिजन ‘प्रज्ञापुत्र’ की भूमिका निबाहें

April 1981

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‘अखण्ड-ज्योति’ के पाठकों को ‘प्रज्ञा परिजन’ कहने में तनिक भी अत्युक्ति नहीं है। वे लम्बी अवधि से जिसे माता का दूध पीते रहे हैं। उनकी प्रतिक्रिया सीता पुत्र लव-कुश, शकुन्तला पुत्र भरत, गंगा पुत्र भीष्म, अंजनी पुत्र हनुमान जैसी ही होनी चाहिए। कामधेनु गौ का दूध पीकर स्वर्गलोक के निवासी देवत्व से परिपूर्ण होते हैं। अपना और अपनी पयस्विनी का गौरव बढ़ाते हैं। ‘अखण्ड-ज्योति’ को कामधेनु तो नहीं कहा जा सकता और न वह सीता, शकुन्तला, गंगा, अंजनी की श्रेणी में खड़ी होती है, फिर भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि उसका पयपान करने वाले शिवाजी, नैपोलियन, विनोबा स्तर के अवश्य हो सकते हैं। माता के दूध की समय-समय पर बोलचाल के मुहावरों में चुनौती दी जाती रही है। वह निरर्थक नहीं है। ‘अखण्ड-ज्योति’ द्वारा प्रस्तुत प्रेरणाओं को सम्बद्ध व्यक्ति किसी समर्थ पयस्विनी से कम नहीं मानते, आँकते रहे हैं। इस मान्यता में बहुत कुछ तथ्य भी है।

‘अखण्ड-ज्योति’ परिवार के प्रज्ञापरिजनों को युग संधि के पावन पर्व पर कुछ विशेष उत्तरदायित्व वहन करने के लिए कहा जायेगा तो वे उसे भी उसी श्रद्धा भावना के साथ शिरोधार्य करेंगे जैसा कि पिछले दिनों समय-समय पर किये गये अनुरोधों का उत्साहपूर्वक परिपालन किया गया है। अनिवार्य व्यस्तता रहने पर कईयों की परिस्थिति सामूहिक प्रयासों में सम्मिलित हो सकने जैसी नहीं होती। फिर भी भावनाशीलों के लिए यह तनिक भी कठिन नहीं है कि वे सामान्य जीवन के निर्धारित कार्यों को पूरा करने के साथ-साथ युग धर्म के निर्वाह के निमित्त भी यथासंभव कुछ करते रहें। व्यसनों की पूर्ति के लिए लोग घोर व्यस्तता रहते हुए भी किसी न किसी प्रकार समय निकालते और पैसा खर्च करते देखे जाते हैं। यदि युग धर्म के निर्वाह को भी एक व्यसन की तरह अपनाया जा सके तो निश्चय ही परिस्थितियों के प्रतिकूल रहते हुए भी हर व्यक्ति कुछ न कुछ करते रहने की सुविधा उत्पन्न कर सकता है।

इन दिनों ‘अखण्ड-ज्योति’ परिजनों में से जो प्राणवान हैं उनसे एक अनुरोध किया जा रहा है कि वे अपने संपर्क क्षेत्र में युगान्तरीय चेतना का आलोक पहुँचाने का प्रयास करें। यह आरम्भ में ही कुछ अटपटा और अनख जैसा लगेगा पर थोड़े ही समय तक अपनाये रहने पर प्रतीत होगा कि वह कितना सरस, कितना सरल और कितना अधिक श्रेयस्कर है। ‘प्रज्ञापुत्र योजना’ की गत अंक में चर्चा हो चुकी है। नव प्रकाशित ‘प्रज्ञा अभियान’ पत्रिका की छः प्रतियाँ मंगाना और उसकी हर प्रति को 4 विचारशीलों तक पढ़ाने, पहुँचाने का उपक्रम अपनाकर एक छोटी स्वाध्याय मण्डली चलाई जा सकती है। नव प्रकाशित ‘प्रज्ञा अभियान’ मासिक ‘युग-निर्माण योजना’ मथुरा के तत्वावधान में इसी वर्ष से प्रकाशित होना आरम्भ हुआ है। उसका वार्षिक मूल्य लागत से भी कहीं कम छः रुपया मात्र रखा गया है। दस पैसा नित्य ज्ञानघट में जमा करने युग निर्माण सदस्यता शर्त जो अपनाये हुए हैं, वे इस राशि को एक वर्ष का पेशगी 36 रुपये भेज कर छः प्रतियाँ मंगाने और उन्हें अपने संपर्क क्षेत्र में 14 को पढ़ाते रहने का क्रम अत्यन्त सरलतापूर्वक कर सकते हैं। यह स्वाध्याय मण्डली गठित कर सकने में जो सफल हो गये, समझना चाहिए उनने पहला मोर्चा फतह कर लिया। इस मंडली को भावात्मक नव-निर्माण की आत्म-कल्याण एवं लोक-कल्याण की गति विधियाँ अपनाने का अवसर मिलेगा। साथ ही वे अपने संपर्क क्षेत्र में युग आलोक को सुविस्तृत करने में भी योगदान देने लगेंगे।

इस वर्ष से पच्चीस पैसा मूल्य वाले युग साहित्य का अभिनव प्रकाशन आरंभ हुआ है। 360 पुस्तिकाएं छापी जा रही हैं। उन्हें हर शिक्षित तक बिना मूल्य घर बैठे निर्मित रूप से पहुँचाने वापिस लेने का उपक्रम चलाने की योजना है। हर दिन एक नई पुस्तिका 360 व्यक्तियों तक पहुँचाने का सिलसिला एक सैट मंगा लेने पर चलता रहता है। एक से दूसरे को दूसरे से तीसरे को तीसरे से चौथे को देने का क्रम बिना किसी कठिनाई के चलाया जा सकता है। एक वर्ष में 360 पुस्तकें छपेंगी। इनकी लागत 90 रुपये बैठती है। यह प्रकाशन तीन किश्तों में होगा। अप्रैल में, अगस्त में, दिसम्बर में। हर किस्त में 120 पुस्तिकाएं छपेंगी जो 30 रुपये की होंगी। कमीशन तो इस लागत से भी कम मूल्य वाले प्रकाशन पर किसी को नहीं दिया जा सकता। पर 30 रुपये का साहित्य लेने पर डाकखर्च या रेलवे खर्च संस्था अपनी ओर से लगा देगी। यह साहित्य इस वर्ष हिन्दी, अंग्रेजी और गुजराती में छापा जा रहा है, अगले वर्ष मराठी बंगला तथा उड़िया में प्रकाशित होने लगेगा। तीसरे वर्ष दक्षिण भारत की तीन भाषाओं में इस प्रकाशन योजना है, प्रयत्न यह होगा कि विश्व की अन्य भाषाओं में भी वहाँ की आवश्यकताओं के अनुरूप युग साहित्य प्रकाशित करने का सिलसिला चल पड़े।

लेखन और प्रकाशन के लिए कितने मनोयोग, श्रम व साधनों की आवश्यकता पड़ती है। इसे उस तंत्र के निकट संपर्क में रहने वाले ही जानते हैं। इसे जुटाने की जिम्मेदारी अभियान के सूत्र संचालकों के कंधों पर आ गई। परिजनों को इसकी भागीदारी अपने क्षेत्र के शिक्षितों को पढ़ाने के रिपु में लेनी है। प्रथम संपर्क में जिन 24 को प्रज्ञा अभियान पढ़ाने के माध्यम से निकटवर्ती सुरुचि सम्पन्न बनाया गया था। उनमें से जो रस लेने लगे उनकी सहायता से 360 व्यक्तियों तक युग साहित्य पहुँचाने, वापिस लेने की योजना बिना किसी कठिनाई के चल सकती है। उनमें से हरेक को अपने निकट संपर्क के लोगों को इसे पढ़ाते रहने का काम सौंपा जा सकता है। संसार में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं जिसका वास्ता दस-बीस शिक्षितों से न पड़ता हो। अन्य बातों के अतिरिक्त युग-साहित्य देने वापिस लेने की प्रक्रिया भी चलती रह सकती है। अच्छा तो यह होता कि घरों पर जाकर देने और वापिस लेने की बात बनती। कोई इसके लिए नियमित समय देता। अवैतनिक सेवा साधक न मिलते तो कुछ घण्टे का पारिश्रमिक देकर यह कार्य कराया जाता। पर इतना न बन पड़े तो मिल-जुलकर भी यह कार्य सम्पन्न होता रहे, ऐसी व्यवस्था बन सकती है।

‘अखण्ड-ज्योति’ के प्रिय परिजनों की संख्या लाखों में है। उनमें से मात्र 24 हजार से तो इस नये उत्तरदायित्व को वहन करने की आशा अपेक्षा की ही जा सकती है। अपने विशालकाय भाव सम्पन्न परिवार में इतने लोगों की उदारता एवं सेवा साधना इस ऐतिहासिक अवसर पर उपलब्ध होने में कोई विशेष कठिनाई नहीं होनी चाहिए। यह अग्रणी समुदाय अपने साथी सहचरों की सहायता से 360 किश्तों तक नियमित रूप से हर दिन युग साहित्य पहुँचाने का प्रबन्ध कर सके तो पाठकों की संख्या आठ करोड़ चार लाख होती है। यह संख्या देश के अधिकांश शिक्षितों तक अपना आलोक पहुँचा सकेगी। इतने लोग नियमित रूप से इस प्रेरणा प्रवाह के साथ जुड़ सकें तो ऊर्जा उतने तक ही सीमित न रहेगी वरन् सूर्य किरणों की तरह क्रमशः व्यापक बनेगी। एक से दूसरे ते उछलती हुई समुद्र की लहरों की तरह विशाल क्षेत्रों में अपने अस्तित्व का परिचय देगी। अशिक्षित भी इस प्रेरणा प्रवाह से वंचित न रहेंगे।

विचार-क्रान्ति की सामर्थ्य का अभी लोगों को परिचय नहीं है और न उस अविज्ञात पर विश्वास ही है। पर जब कभी तथ्यों को समझने और उसका प्रभाव देखने का अवसर मिलेगा तो विदित होगा कि पतनोन्मुखी दुष्प्रवृत्तियों के भाव प्रवाह में भी अपनी सामर्थ्य है। पतन ही नहीं उत्थान भी सशक्त होता है। देव और दानवों की तरह दोनों ही अवसर मिलने पर अपना चमत्कार दिखाते हैं। प्रस्तुत विनाशकारी विभीषिकाओं के मूल में मानवी दुश्चिंतन की ही प्रधान भूमिका है। मनःस्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदात्री होती है। चिंतन की सामर्थ्य संसार की सर्वोपरि शक्ति समझी जा सकती है। उत्थान और पतन की समूची भूमिका विचार चेतना का प्रवाह ही सम्पन्न करता रहता है। वर्तमान संकट के मूल में दुर्बुद्धि का ही कृत्य झाँकता है। उसे उबारने के लिए सद्विचार एवं भावना को ही अग्रिम पंक्ति में खड़ा करना होगा। उन्हीं के पराक्रम से विनाश एवं विघटन को निरस्त किया जा सकेगा। साहित्य एवं कला के विभिन्न पक्षों ने मनुष्य को अवांछनियता की गतिविधियाँ अपनाने के लिए प्रवृत्त किया है। यह क्रिया का मूल चिंतन है, दर्शन का स्तर ही व्यक्ति एवं समाज को पतन के गर्त में गिराता और उत्थान के उच्च शिखर पर पहुँचाता रहा है।

यों आंखों से देखने और मोटी बुद्धि से समझने में घटनाओं परिस्थितियों वस्तुओं एवं व्यक्तियों के श्रेय अपयश दिया जाता है और उन्हें ही सुधारने बदलने का उपक्रम चलता रहता है। इतने पर भी देखा यह गया है कि जहाँ तक दुष्प्रवृत्तियों का संबंध है वह प्रत्यक्ष कारणों से कम और मान्यता एवं भावना क्षेत्र से ही अधिक उद्भूत होती हैं। जड़े यों दिखती तो नहीं पर विशालकाय वृक्ष के उत्थान पतन में उन्हीं की भूमिका प्रमुख होती है। ठीक यही बात प्रत्यक्ष परिस्थितियों के संबंध में है, उन्हें लोक-चिंतन की जनमानस के स्तर की परिणति ही कहा जा सकता है। इस तथ्य को समझा जा सके तो किसी विचारशील को यह मानने में आपत्ति न होगी कि वातावरण की उपयुक्तता एवं परिस्थितियों की अनुकूलता उत्पन्न करने के लिए लोक-मानस में आदर्शवादी उत्कृष्टता का समुचित समावेश करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। प्रज्ञा-अभियान के अंतर्गत युग परिवर्तन के प्रयास का श्रीगणेश इसी प्रक्रिया से आरम्भ किया जा रहा है।

प्रज्ञा परिजनों को इन पृष्ठों में जो कार्य सौंपा जा रहा है। उसे उज्ज्वल भविष्य का भव्य भवन बनाने के निमित्त किया गया प्रत्यक्ष छोटा किन्तु महान संभावनाओं से भरा पूरा शिलान्यास कहा जा सकता है। इस क्षेत्र में से बना लेना लगता भले ही कठिन हो पर वस्तुतः है नितांत सरल। चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवार वोट प्राप्त करने के लिए अपरिचित लोगों से भी संबंध जोड़ते हैं। उनसे घनिष्ठता व्यक्त करते एवं वोट देने लिए भाव भरा आग्रह करते देखे जाते हैं। वहीं उपक्रम यदि विचार-क्रान्ति को व्यापक बनाने के लिए अपनाया जा सके तो कोई कारण नहीं कि उपरोक्त स्वाध्याय मंडली का गठन न हो सके। यह कथन समय से पहले की बात होगी कि जब यह ढर्रा चल पड़ेगा तो उसी प्रज्ञा परिवार में से ऐसे व्यक्तित्व उभरेंगे जिनके कर्तृत्व पर पर सर्वत्र गर्व गौरव व्यक्त किया जाता दृष्टिगोचर हो सके।

‘अखण्ड-ज्योति’ के सुविस्तृत प्रज्ञा परिवार में से मात्र 24000 प्रज्ञा पुत्र आगे आ सके तो इतने भर का अग्रगमन देश के विचारशीलों को उन भावनाओं से अनुप्राणित कर सकता है जो सर्वतोमुखी प्रगति के लिए उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए आवश्यक हैं।

प्रवासी भारतीय प्रायः 3 करोड़ हैं उनसे भी यह आशा अपेक्षा रखी जा सकती है कि जहाँ वे बसते हैं उन देशों में नवोदय की श्रद्धा ऊर्जा से उन प्रदेशों को भी ज्योतिर्मय बनाने में हाथ बंटायेंगे और अपने-अपने संपर्क क्षेत्रों में धर्म तंत्र के माध्यम से भावनात्मक नव-निर्माण की प्रक्रिया विश्व-व्यापी बनाने में अति महत्वपूर्ण भूमिका निबाहेंगे। इस दिशा में इन दिनों कारगर उपाय अपनाये गये हैं। शांतिकुँज में प्रवासी कक्ष की स्थापना, उनकी स्थिति में फिट बैठने वाला साहित्य उन देशों में लम्बी अवधि तक रह सकने वाले कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण, पत्राचार द्वारा संगठन, मार्ग-दर्शन, प्रचारकों का आवागमन जैसे कितने ही ऐसे नये कदम उठाये जा रहे हैं। जिनसे प्रवासी भारतीय भी इस देश में रहने वालों की तरह ही देव-संस्कृति न केवल निष्ठावान अनुयायी बने रहे वरन् बनाने में एक मध्यवर्ती की तरह अपना समुचित रोल प्रस्तुत कर सकें।

प्रज्ञा संस्थानों की कार्य पद्धति सामूहिक है। उसमें सामूहिक प्रयत्नों को अपनाये बिना गुजारा नहीं। किन्तु प्रज्ञा-पुत्र योजना में एक प्रतिभा भी वही काम एकाकी कार्यक्रम अपनाकर छोटे रूप में कर सकती है। जो सामूहिक प्रयत्नों से विनिर्मित प्रज्ञा संस्थान बड़े रूप में करते हैं। अब किसी को भी यह शिकायत करने का अवसर नहीं है कि हमारे यहाँ संगठित सुयोग न बन पड़ने से प्रज्ञा-संस्थान न बन सका और आलोक वितरण की प्रक्रिया को कार्यान्वित न किया जा सका। अब एक व्यक्ति के लिए भी यह अवसर उपलब्ध है कि अपने आपको एक छोटी प्रज्ञापीठ चरणपीठ के रूप में विकसित करे। वह सारा कार्य एकाकी कर दिखाये, जिसके लिए इन धर्म संस्थानों की स्थापना हेतु पिछले दिनों भाव भरा प्रयत्न किया गया है और इन दिनों उसे जारी रख जा रहा है।

थोड़े से समयदान, श्रमदान बढ़ा देने और भावना में उभार ला देने भर से उपरोक्त प्रक्रिया सहज की अग्रगामी हो सकती है। इस योजना का आर्थिक पक्ष भी ऐसा है जिसे कोई एक व्यक्ति आसानी से स्वयं वहन कर सकता है। इस प्रकार कुल मासिक का यों तो इसे मिल-जुलकर भी संग्रह किया जा सकता है, पर वास्तविकता यह है कि जिसकी भावना उभरेगी वह इस राशि को जेब से खर्च करने में तनिक भी कठिनाई अनुभव न करेगा। दस पैसा रोज ज्ञानघट में जमा कराना और एक घण्टा समय देना युग-निर्माण परिवार के सक्रिय सदस्य बनने की न्यूनतम शर्त है। भावना और प्रखरता बढ़ने के साथ-साथ अंशदान भी बढ़ना चाहिए। प्राणवान परिजनों में से अधिकाँश अब महीने में एक दिन की आजीविका देने लगे हैं। उनका अंशदान प्रायः इसी अनुपात से चल रहा है। मासिक का अर्थ है जो तीन सौ रुपया मासिक कमाता है उसे भी देना चाहिए। इतनी भर उदारता बरतने से प्रज्ञा-पुत्र योजना के बजट की पूर्ति भली प्रकार होती रह सकती है। कृपणों के लिए तो एक नी कौड़ी भी परमार्थ के लिए खर्च करना पहाड़ उठाने जैसा भारी है। किन्तु भावनाशील तो इतना बजट अपनी रोटी में से एक कम करके भी भली प्रकार पूर करते रह सकते हैं।

प्रज्ञा पुत्रों की आरम्भिक योजना में 24 से 360 को युग साहित्य पढ़ाना और उनमें से जो प्रतिभावान हैं उनके जन्म-दिन मनाने भर की प्रक्रिया सीमित रखी गयी है। पर जैसे ही थोड़ा और अधिक उत्साह, अभ्यास बढ़ेगा, जैसा ही उन्हें एक और बड़ा कदम उठाना होगा। स्लाइड प्रोजेक्टर टेपरिकार्डर और लाउडस्पीकर की त्रिमूर्ति की व्यवस्था। इसमें प्रायः डेढ़ दो हजार रुपये तक का खर्च आता है। इसे जुटाने में उसी भावना को अपनाया जा सकता है। जिससे कि प्रज्ञा संस्थानों में एक प्रतिमा का खर्च सरलतापूर्वक जुटा लिया जाता है। यह राशि भी एक प्रतिमा जितनी ही है। संग्रह से या कुछेक उदारजनों के सहयोग से इतने पैसे की व्यवस्था हो सकती है। यह त्रिमूर्ति देव प्रतिमा घर-घर पहुंचाकर युगान्तरीय चेतना को विस्तृत करके अपनी उपयोगिता उससे भी अधिक सिद्ध कर सकती है। जितनी कि देवालयों में स्थापित प्रतिमाओं के माध्यम से श्रद्धा सम्वर्धन का उद्देश्य पूरा होता है इतनी राशि कोई प्रज्ञा-पुत्र चाहे तो अपने निजी साधनों को ही बेच-बेचकर या उधार लेकर चुकाते रहने जैसा कोई उपाय अपनाकर भी व्यवस्था बना सकता है। उनके लिए तो इतना खर्च कर देना एक मजाक जितना है। जिन्हें भगवान ने खता, पीता बनाया है। ‘‘अखण्ड-ज्योति’ परिजनों में भी भावनाशीलों को अग्रिम पंक्ति में खड़े होने और प्रज्ञा-पुत्र योजना को अपनाकर अपने संपर्क क्षेत्र में आलोक वितरण की नई जिम्मेदारी सौंपी जा रही है। युग संधि के इस पावन पर्व पर उन्हें इतना साहस दिखाने में आना-कानी नहीं करनी चाहिए।


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