हिंसा पर साहस की विजय

April 1981

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दांए बांए, अगल बगल चारों और पुस्तकें फैली हुई थी। विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर अपने अध्ययन कक्ष में बैठे तन्मयता से साहित्य सृजन कर रहे थे। वे अपने काम में इतने तल्लीन थे कि कमरे के बाहर और कमरे के भीतर क्या हो रहा है? इसका तनिक भी भान नहीं था। चुपके से एक व्यक्ति ने उनके कक्ष में प्रवेश किया, रवीन्द्र बाबू को इसका भी पता नहीं चला।

उस व्यक्ति के चेहरे से भयावह हिंस्र भाव टपक रहा था। डरावने नंगे, चेहरे पर तनाव, हाथ में लपलपाता-सा लम्बा छुरा। वह चुपके से रवीन्द्र बाबू के सामने आ कर खड़ा हो गया और एक-एक शब्द को चबा-चबा कर बोलने के से ढंग से कहा, ‘अपने प्रभू का स्मरण कर लो। मैं तुम्हारी हत्या करने आया हूँ।’

विश्व कवि की तन्मयता ये शब्द सुन कर टूटी और उन्होंने उस व्यक्ति की ओर दृष्टि उठा कर देखा, ‘तुम मेरी हत्या करने आये हो?’ रवीन्द्र बाबू ने पूछा।

‘देखते नहीं हो। मेरे हाथ में यह छुरा। आज में तुम्हारी इहलीला समाप्त करने आया हूँ, उस व्यक्ति ने अपने हाथ में छुरा नचाते हुये कहा।

वह व्यक्ति रवीन्द्र बाबू के किसी विरोधी द्वारा उकसाने और लालच देने पर विश्व की इस महान विभूति का अन्त करने के लिये आया था ताकि सूरज अस्त हो जाए और जुगनुओं को चमकने का अवसर मिले।

रवींद्र बाबू ने उस की और देखा, जैसे पुस्तक का कोई पन्ना देख रहे हों। न मन में भय न मृत्यु का डर। बहुत ही मधुर स्वर में उन्होंने कहा, ‘तो ठीक है। परन्तु तुम जरा जल्दी आ गये। मुझे यह कविता पूरी कर लेने दो। तब तक आराम से बैठो।’

‘मूर्ख-नहीं मैं’, वह गुर्राया, ‘तब तक तुम्हारे सेवक इस बीच यहाँ एकाध चक्कर लगायेंगे ही और, तुम अपनी रक्षा के लिये कोई उपाय कर लोगे।’

हंसे रवीन्द्र बाबू! उनकी हंसी भी शांत और निश्चल थी। फिर रुककर उन्होंने कहा, ‘गलत समझे हो मित्र। इस समय सभी लोग सो चुके, आधी रात्रि बीतने जा रही है। जरा अनुमान तो लगाओ इस आधी रात में कौन मेरे पास आएगा।’

फिर उन्होंने कहा, तुम्हें मेरी हत्या के लिए भेजा गया है। मैं नहीं चाहता कि तुम असफल होकर लौटो। और मुझे मृत्यु का भी कोई भय नहीं हैं। परन्तु कठिनाई यह है कि इस समय मेरी यह रचना अधूरी पड़ी हुई है। इस समय तुम साक्षात काल बने हुये हो। तुम से इतना ही निवेदन करता हूँ कि थोड़ी देर प्रतीक्षा करो और रचना पूरी हो जाने दो।

विश्व कवि उसी प्रकार अकंपित धीर वाणी में कहते जा रहे थे परन्तु वह व्यक्ति समझ रहा था कि शायद रवीन्द्र बाबू, मृत्यु से डर रहे हैं। इसलिये वह कड़क कर बोला, ‘मेरे पास समय नहीं है। अभी और इसी क्षण मुझे अपना काम करना है। अतः अपनी कलम नीचे रख दो और मरने के लिए तैयार हो जाओ।’

रवीन्द्र बाबू अब भी शाँत और संयत थे। हत्या के उद्देश्य से आये आगन्तुक को इस प्रकार समझा रहे थे, जैसे कोई हठी बच्चे को समझा रहा हो और कोई जब बार-बार समझाने पर भी नहीं समझता है तो उसे जिस तरह डपट दिया जाता है। उसी प्रकार रवीन्द्र बाबू ने उसे डपटा, ‘चुप चाप बैठ जाओ। मुझे अपना काम करने दो।’

धक्क रह गया हत्या के उद्देश्य से आया गुण्डा। रवीन्द्र बाबू इतना कह कर चुप चाप अपने काम में लग गए। उनके इन शब्दों और मृत्यु की और से भी लापरवाह, बेखबर रहते हुए अपने काम को प्राथमिकता देने वाले साहस ने हत्यारे को परास्त कर दिया।

वह कुछ ही क्षणों तक वहाँ ठहर सका था। बोला, ‘क्षमा कीजिए गुरुदेव! मैं आज एक जघन्य अपराध से बच गया। कहीं हाथ उठ जाता तो एक देव पुरुष से भारत ही नहीं समूचा विश्व शून्य हो जाता।’

और वह जिस तरह आया था, उसी तरह चला गया।


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