सभी भाँति समझाने, डराने, धमकाने से लेकर प्रलोभन देने तक के उपाय अपना लेने के बाद भी प्रह्लाद ने भगवद्भक्ति का आश्रय नहीं छोड़ा तो हिरण्यकश्यप क्रोधाविष्ट होकर बोला, ‘रे दुष्ट! इस कुल में विष्णु का नाम लेने वाला कोई नहीं हुआ है और तुम ईश्वर-ईश्वर की रट लगाकर कुल मर्यादा भंग किये जा रहे हो। यह अक्षम्य अपराध है।’
‘श्रेष्ठ कर्म करने कुल मर्यादा नहीं टूटती तात! प्रह्लाद ने शान्त गम्भीर वाणी में अपने पिता को समझाना चाहा, उन्हें कभी भी कोई भी नमन करे उनसे कुल का गौरव ही बढ़ता है।’
उन्मत्त हिरण्यकश्यप की क्रोधाग्नि में प्रह्लाद के इन वचनों ने घी का काम किया और वह गरजता हुआ प्रह्लाद की और दौड़ा, मेरी सीख को न समझकर मुझे ही उपदेश देने वाले दुष्ट! तू ऐसे नहीं मानेगा। तुझ जैसे कुल कलंकी का तो कुल में न होना ही अच्छा।
और हिरण्यकश्यप प्रह्लाद को मारने के लिये झपटा। आवेश में संतुलन न रह सका और जो घूँसा प्रह्लाद पर वार करने के लिये उठा था वह उसे खम्भे पर पड़ा जिसके सहारे प्रह्लाद खड़ा था। खम्भा टूट गया और उसी खम्भे से प्रकट हुए नरसिंह भगवान, आधा नर और और आधा सिंह का रूप धरण किए। उन्होंने हिरण्यकश्यप को पकड़ कर अपने तीक्ष्ण नखों से उसका पेट फाड़ डाला दैत्यगज हिरण्यकश्यप ने अनुचर अपने प्राण बचाकर भागे।
उस समय भगवान नरसिंह को रौद्र रूप देखकर उपस्थित देवगण तक काँप उठे। सबने अलग-अलग स्तुति की परन्तु किसी का कोई परिणाम नहीं हुआ। देवगण सोचने लगे कि यदि प्रभु का क्रोध शांत नहीं हुआ तो अनर्थ हो जायेगा। उन्होंने भगवती लक्ष्मी को भेजा किन्तु लक्ष्मी जी भी वह विकराल रूप देख कर भयभीत हो लोट आईं। अन्त में ब्रह्माजी ने प्रह्लाद से कहा, ‘बेटा तुम्हीं समीप जाकर उनका क्रोध शाँत करो।
प्रह्लाद सहज भाव से प्रभु के सम्मुख गये और दंडवत् प्रणिपात करके उनके सामने लेट गये। भगवान नरसिंह ने अपने भक्त को सामने प्रणिपात देखकर कहा, वत्स! मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो वही वरदान माँग लो।
‘प्रभु! मेरी क्या इच्छा हो सकती है?’ प्रह्लाद ने कहा- ‘मुझे कुछ नहीं चाहिये।’
‘नहीं प्रह्लाद कुछ भी माँग लो’ भगवान ने कहा- ‘मैं तुम्हारी भक्ति से बहुत प्रसन्न हूँ।’
‘भगवन्! मुझे कुछ नहीं चाहिये। जो सेवक कुछ पाने की आशा से अपने स्वामी की सेवा करता है, वह तो सेवक ही नहीं है। आप तो पर उदार हैं, मेरे स्वामी हैं और मैं आपका आश्रित अनुचर। यदि आप कुछ देना चाहते हैं तो यही वरदान दें कि मेरे मन में कभी कोई कामना ही उत्पन्न न हो।’
एवमस्तु, भगवान ने कहा और पुनः आग्रह किया फिर भी प्रह्लाद कुछ तो अपने लिये माँग लो।
प्रह्लाद ने सोचा प्रभु जब बार-बार मुझसे माँगने के लिये कह रहे हैं तो अवश्य ही मेरे मन में कोई कामना है। बहुत सोच-विचार करने मनःमन्थन करने के बाद भी जब उन्हें लगा कि कुछ भी पाने की आकाँक्षा नहीं है तो वह बोले ‘नाथ! मेरे पिता ने आपकी बहुत निन्दा की है और आस्तिक जनों को बहुत कष्ट दिया है। वे घोर पातकी रहे हैं। मैं यही चाहता हूँ कि वे इन पापों से छूटकर पवित्र हो जांय।’
भगवान नरसिंह ने प्रह्लाद को गदगद होकर कण्ठ से लगा लिया और उसकी सराहना करते हुये कहा- ‘धन्य हो बेटा तुम, जिसके मन में यह कामना है कि अपने को कष्ट देने वाले की भी दुर्गति न हो।’