ब्रह्मसत्ता की तीन मूल शक्तियाँ- त्रिदेव

April 1981

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निर्गुण, निराकार, अचिंत्य, सृष्टा, दृष्टा, साक्षी, नियन्ता, ब्रह्म सत्ता, एक अखण्ड अविभाज्य अविवेच्य है। सृष्टि सृजन उस ब्रह्म सत्ता के संकल्प की चमत्कारिक परिणति है। ब्रह्म की पारमार्थिक सत्ता निर्विकार है, किन्तु सृष्टि व्यवहार में प्रयुक्त उसकी सगुण सत्ता या व्यावहारिक सत्ता सृष्टि व्यापार के संचालन में सक्रिय रहती है। सम्पूर्ण विश्व में ओत-प्रोत यह सत्ता त्रिगुणात्मिका प्रकृति को निरन्तर क्रियाशील रखती है। इस व्यावहारिक सत्ता या सगुण सत्ता की तीन मूल शक्तियों को ही त्रिदेव कहा जाता है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश इन्हीं तीन दिव्य मूल शक्तियों की संज्ञाएं हैं।

ब्रह्म सूत्र में कहा है- त्रयाणामेव चैवमुपन्यासः प्रश्नश्च। (ब्र.सू. 1-4-6)

अर्थात्- सम्पूर्ण सृष्टि में तीन शक्तियों का ही उपन्यास यानी व्याप्ति एवं विस्तार है तथा इन्हीं की विवेचना है। त्रिगुणमयी प्रकृति में इन्हीं की चेतना प्रतिबिंबित है। सांख्य सूत्र में त्रिगुण प्रकृति के बारे में यह स्पष्ट किया गया है, कि इन तीनों ही गुणों या क्रिया-शक्तियों में साधर्म्य अथवा साम्य यह है कि ये तीनों ही सूक्ष्म हैं। उन सूक्ष्म क्रियाशक्तियों को चेतना का प्रकाश त्रिदेव सत्ताओं से ही मिलता है। साँख्य दर्शन इन क्रिया शक्तियों को जड़ प्रकृति की ही शक्ति मानता है। देववाद में इन्हें चेतन शक्तियाँ कहा जाता है। यह भेद दोनों में अवश्य है, किन्तु तीन मूल शक्तियों की विद्यमानता के बारे में दोनों में मतैक्य है। वेदान्त-दर्शन के अनुसार मूल प्रकृति स्वयं में निश्चेतन है, अतः प्रकृति के क्रियाकलापों में चेतना की विद्यमानता ब्रह्म की व्यावहारिक सत्ता के ही कारण है। इसे ही ब्रह्म की विराट्लीला योग माया आदि कहा गया है।

भारतीय तत्त्ववेत्ताओं ने विश्व की रचना-प्रक्रिया से लेकर नीति, सदाचार की प्रेरणा-प्रक्रिया तक को समझाने के लिये देव प्रतीकों की संरचना की है। अनन्त सत्य की अभिव्यक्तियों को इन पुराण-प्रतीकों द्वारा अभिव्यंजित किया गया है।

सत्यान्वेषी को देव प्रतीकों सन्निहित तत्वज्ञान को ही प्रधानता देनी चाहिए। जैसा कि जर्मन विद्वान हेनरिरव जीमर कने अपने ग्रन्थ “मिथ्स एण्ड सिम्बॉल्स इन इंडियन आर्ट एण्ड सिविलाइजेशन” में कहा है, “विष्णु, रुद्र, शिव, ब्रह्मा आदि विविध पौराणिक प्रतीक युगों के अनुभूत जीवन तथ्यों तथा सत्य की ही अभिव्यक्तियाँ हैं।’’ अतः हमें उन मूलभूत तथ्यों तथा सत्य को ही समझना चाहिए, तभी पूर्ववत मनीषियों के तत्वज्ञान का लाभ उठाना संभव है।

प्रकृति के मूल में जो चेतन सत्ता है, उसकी क्रियात्मक शक्ति त्रिविध है- प्रकाशन, प्रवर्तन एवं नियमन। ये तीन शक्तियाँ सृष्टि के अणु-अणु, कण-कण में मात्रा-भेद एवं स्तर-भेद से परिव्याप्त है।

प्रकृति शब्द का व्युत्पत्यात्मक अर्थ यह है कि सम्पूर्ण सृष्टि को उत्पन्न करने वाली जो शक्ति है, वह प्रकृति है। “प्रकरोतीति प्रकृतिः।” आधुनिक भौतिक की भाषा में इसे “कॉस्मिक एनर्जी” या “क्रिएटेवि पोटेन्सी” कह सकते हैं। प्रकृति त्रिगुणात्मिका है और उससे उत्पन्न होने वाले समस्त तत्वों में ये तीनों ही गुण पाये जाते हैं। भौतिकजगत एवं मनोजगत दोनों में ही ये तीनों गुण विद्यमान रहते हैं।

सम्पूर्ण प्रकृति में जो चेतना-शक्ति विद्यमान है, वही ब्रह्म की सगुण सत्ता है। उसकी त्रिविध अभिव्यक्तियाँ ही त्रिदेव हैं। इस सृष्टि में ऐसा कुछ भी नहीं जो इन त्रिदेवों के नियंत्रण से परे हो। क्योंकि सृष्टि मात्र वस्तुतः इन्हीं तीन दिव्यशक्तियों की लीला है। सृष्टि इनकी ही प्रजा है। ये सृष्टि के प्रजापति हैं।

‘प्रजा’ शब्द के भी भिन्न-भिन्न प्रयोग हैं। प्रारम्भिक प्रयोग में ‘प्रजा’ शब्द महत्तत्व आदि मूल सृष्टि कार्यों यानी ऊर्जा-तंरगों के लिए ही किया गया है- “प्रकर्षेण व्यक्त रूपेण जायन्ते, आविर्भवन्ति इति प्रजाः महदादयो विकाराः” अर्थात् आद्या प्रकृति में प्रकर्ष के द्वारा जो महत्तत्व आदि विकट व्यक्त हुये, आविर्भूत हुये, वे ही ‘प्रजा’ हैं। श्वेताश्वतर उपनिषद् में त्रिगुणात्मिका प्रकृति से इसी प्रारम्भिक प्रजा के प्रथमतः रचे जाने का संकेत है-

‘‘अजामेकां लोहित शुक्ल कृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः। अजो ह्येको जुषमारगेऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः॥’’ (श्वे. 4।5)

अर्थात्- त्रिगुणात्मिका अनादि प्रकृति जो शुक्ल लोहित कृष्णवर्णी यानी सत्व-रज-तमोमयी है। वह अपने ही सदृश त्रिगुणमय अनेक प्रजाओं यानी महत्तत्व आदि से प्रारम्भ कर प्रभूत भूत-समुदायों तक को जन्म देती है। आसक्त जीव उन्हीं में लिप्त भोग भोगता रहता है, दूसरा जो अज चैतन्य पुरुष है, वह उससे दूर ही रहता है, उस भुक्तभोगी प्रकृति के वैविध्य में वह बंधता नहीं।

इस प्रकार प्रकृति अपनी ऊर्जा-तरंगों के विविध परिमाण युक्त परिणामों को नाना-नाम रूपों में व्यक्त करती है।

वे सभी क्रियाऐं त्रिगुणात्मिका हैं। बाह्य जगत में भी और अंतर्जगत में भी तीन भावसत्ताएं त्रिविध क्रिया शीलताएं ही मूलतः विद्यमान हैं- ये हैं- प्रकाशशील सत्व, क्रियाशील रज और स्थितिशील तम। विशुद्ध सत्व ही ब्रह्मा हैं, विशुद्ध रज शक्ति ही विष्णु हैं और विशुद्ध तम शक्ति ही शिव हैं। तीनों गुण इन्हीं तीन दिव्यसत्ताओं की क्रियाएं हैं।

तीनों ही गुण क्रमशः प्रकाशन, प्रवर्तन एवं नियमन करते हैं। जैसे कि सांख्यकारिका की 12 वीं कारिका में कहा गया है-

‘‘प्रीत्य प्रीतिविषादात्मका प्रकाश प्रवृत्ति नियमाथी। अन्योन्याभिभवाश्रय जनन् मिथुन वृत्तयश्च गुणम्।’’

अर्थात्- ये तीनों गुण क्रमशः प्रीति परक या सुखात्मक, अप्रीति परक या दुःखात्मक और मोहात्मक या विषदात्मक परिणाम उत्पन्न करते हैं। इनके कार्य हैं प्रकाशन, संचालन और नियंत्रण। साथ ही ये एक दूसरे के अभिभावक उत्पादक एवं सहचारी होते हैं। इसीलिये ये तीनों देवाधिपति कहलाते हैं। तीनों में कोई बड़ा या छोटा नहीं। क्योंकि तीनों ही एक दूसरे के अभिभावक हैं, सहकारी हैं और परस्पर उत्पादक भी हैं। प्रकृति के सम्पूर्ण कार्य व्यापार इनकी उपस्थिति में ही सम्भव है।

श्री अरविन्द ने इन तीन गुणों को ‘‘प्रकृति के कार्य व्यापार के तीन अनिवार्य प्रकार’’ ( थ्री एसेन्शियल मोड्स ऑव एक्शन ऑव नेचर) कहा है। इनकी न्यूटन के ‘गति के तीन नियमों’ (थ्री लॉज ऑफ मोशन) से भी तुलना की जा सकती है। न्यूटन ने गति की तीनों विधाओं को क्रमशः ‘इनशिंया’, ‘एक्सीलियरेशन’ तथा ‘रिएक्शन’ नाम दिया था। आधुनिक भौतिकी में इन्हें (1) ‘इनर्जी’ या ‘मास’, (2) ‘मूमेन्टम’ तथा (3) ‘स्ट्रेस’ कहा जाता है।

भौतिक जगत में सत्व गुण गतिशील वस्तुओं को उनकी सहज अवस्था में प्रकाशित करता है। रज गुण क्रिया या प्रवृत्ति उत्पन्न करता है। वृद्धि क्षय, विनाश, आदि परिणाम इसी कारण होते हैं। तमस् गति क्रिया का निरोध अथवा नियमन करता है। ये तीनों ही गुण एक ही क्रिया-शक्ति के व्यापारों के तीन विशिष्ट प्रकार मात्र हैं। ये कभी भी पृथक-पृथक नहीं रहते। एक समय में एक गुण प्रधानतया कार्य करता है, शेष दो उस कार्य में सहायता करते हैं। इसीलिए इन्हें एक दूसरे का अभिभावकत्व करने वाला और परस्पर मिथुन-भाव या युग्म भाव से रहन वाला कहा गया है।

इनकी सर्वव्यापकता का संकेत करते हुये सांख्याचार्य कहते हैं-

‘‘ऊर्ध्व सत्व विशालस्तमोविशालश्च मूलतः सर्गः। मध्ये रजोविशालो ब्रह्मादिस्तंब पर्यन्तः॥’’ (सांख्यकारिका 54)

अर्थात्- ब्रह्मा से लेकर तृणादि पर्यन्त जो सृष्टि है वह सब त्रिगुणात्मक है। उसके उर्ध्व स्तर में सत्व-प्राधान्य रहता है। और निम्न स्तर में या सर्गमूल में तम-प्राधान्य रहता है। बीच में रज प्राधान्य होता है।

यही क्रमशः सृष्टि का आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक स्तर है। मात्रा-भेद एवं गुण-भेद से सम्पूर्ण सृष्टि की प्रत्येक वस्तु में ये तीनों गुण या तीनों स्तर विद्यमान हैं।

वृक्ष में जो बाढ़ हो रही है, वह रजस् का परिणाम है। यदि मात्र यही व्यापार जारी रहे, तो पेड़ बढ़ता ही चला जाय, इसीलिए सत्व उस बाढ़ में संतुलन लाता है तथा तमस् इस वृद्धि क्रम को सिद्ध करता है। सत्व न रहे, तो तमस् वृक्ष की बाढ़ को रोक ही दे। सत्व इस निरोध का परिहार करता है ये तीनों ही व्यापार वृक्ष में अति तीव्रता से निरंतर होते रहते हैं, इसीलिये सामान्यतः वे अलग-अलग दृष्टव्य नहीं हो पाते। इसी प्रकार वृक्ष ज्ञान का उदाहरण लें-

वृक्ष का बोधांश ही प्रकाश है। जिस क्रिया विशेष द्वारा यह बोध उत्पन्न हुआ वह इस ज्ञान में संलग्न क्रिया है और जो शक्ति अवस्था उद्रिक्त होकर ज्ञान स्वरूप होती है, वही धृति या स्थिति है।

यह अंतर्जगत का उदाहरण हुआ। क्योंकि ज्ञान तो अंतर्जगत की ही प्रक्रिया है।

बाह्य जगत में भी सर्वत्र यही स्थिति देखी जाती है। अट्रैक्शन या आकर्षण, रिपल्सन या विकर्षण और उदासीनता यानी न्यूट्रल प्रवृत्तियां सर्वत्र एक दूसरे में गुंथी देखी जाती है। वैज्ञानिक शब्दावली में इन्हें ही पॉजेटिव, निगेटिव और न्यूट्रल ना दिया जा सकता है। परमाणु को ही लें, तो उसके केन्द्र यानी नाभिक में न्यूट्रान और प्रोटान रहते हैं, जो क्रमशः तमस् और सत्व गुण सम्पन्न कहे जा सकते हैं। न्यूट्रान की स्थिति शक्ति न्यूट्रल होती है। प्रोटीन धनावेशी (पॉजेटिव) विद्युत से सम्पन्न होता है। इलेक्ट्रान ऋणावेशी (निगेटिव) विद्युत या रजोगुण से सम्पन्न होते हैं और नाभिक के चारों और द्रुतगति से घूमते रहते हैं।

परमाणु से महत्तत्व तक समस्त समस्त सृष्टि प्रजाएं त्रिगुणात्मक हैं। बोध से लेकर गति तक प्रत्येक व्यापार में प्रकाश, क्रिया और स्थिति की विविध शक्तियां आधार रूप में विद्यमान रहती हैं।

पदार्थ जगत की ही तरह अनुभूति-जगत में भी तीनों ही शक्तियाँ साथ-साथ क्रियाशील रहती हैं।

अन्तःकरण, ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेंद्रिय एवं प्राण- इन सब करणों में जो बोध उपलब्ध होता है वह प्रकाश है। जो गति मिलती है और परिवर्तन मिलता है, वह क्रिया है तथा जो ‘स्टोर्ड एनर्जी’ की दशा है वही स्थिति है।

वस्तुतः प्रकाश, क्रिया एवं स्थिति के अतिरिक्त बहिर्जगत तथा अंतर्जगत का अन्य कोई तत्व ज्ञेय नहीं है।

बाहरी जगत का ज्ञान शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध द्वारा ही होता है। इसमें उदाहरणार्थ शब्द में जो बोध है, वह प्रकाश है, उस बोध का कारण क्रिया है और उस क्रिया का कारण शक्ति है। चित में भी प्रख्या, प्रवृत्ति और धृति रूप तीन गुण ही देखे जाते हैं।

इस प्रकार अंतर्जगत हो या बहिर्जगत, सम्पूर्ण सृष्टि में एक ही मूल चैतन्य-सत्ता की त्रिविध शक्तियाँ सर्वत्र विद्यमान पायी जाती हैं। ये ही सर्वव्यापक, सब की आधारभूत त्रिदेव सत्ताएं हैं, जिन्हें ब्रह्मा, विष्णु और महेश की संज्ञा भारतीय तत्व वेत्ताओं ने दी है। इन तीनों शक्तियों के स्वरूप के समझना और उनसे लाभ उठाकर अपने समग्र उत्कर्ष की दिशा में निरन्तर आगे बढ़ना ही त्रिदेवों की उपासना तथा उनसे महत्वपूर्ण वरदानों, अनुदानों की उपलब्धि की यथार्थ प्रक्रिया है।


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