गायत्री सिद्धि के मूल भूत आधार

April 1981

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यात्रा दो पैरों के सहारे करनी पड़ती है। और गाड़ी दो पहियों के सहारे पर लुढ़कती है। सामान्य प्रगति के लिए श्रम और मनोयोग के संयुक्त समन्वय की आवश्यकता पड़ती है। उसी प्रकार आत्मिक प्रगति के लिए गायत्री उपासना और गायत्री साधना ये दोनों माध्यम अपनाने पड़ते हैं। इससे बच निकलने और सरल पगडंडियाँ ढूंढ़ निकालने के प्रयासों में सिवा आत्म-प्रवंचना के और कुछ हाथ नहीं लगता। सस्ते मोल से ईश्वर की प्राप्ति करा देने से लेकर कुण्डलिनी जगा देने तक के प्रलोभन देने वालों की कमी नहीं है। किन्तु स्पष्ट है कि उस प्रवंचना में भ्रम जंजाल के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता। हमें अपनी रोटी आप खानी और पचानी पड़ती है। आत्मिक प्रगति के लक्ष्य तक पहुँचने के लिए गायत्री उपासना और साधना के दोनों पैरों के सहारे चलना पड़ता है।

कोई भी किसान खेत में बीज डालने से पूर्व पहले उसे पानी से भर कर उसकी अच्छी तर जुताई करता है। कूड़ा-करकट निकालता है, खाद डालता है तब भूमि इस योग्य हो पाती है कि उसमें बीज डालने और उसके उगने की संभावनाएं सुनिश्चित होती हैं। उपासना मनोभूमि में उगने वाला बीज है उसके फलने-फूलने की आशा तभी की जा सकती है जब मनोभूमि का उसी प्रकार परिष्कार किया जाय जिस प्रकार कृषक अपने खेतों का करता है- मनोभूमि को शुद्ध किए बिना डाला गया उपासना का बीज झाड़ झंकार, बाढ़ में पड़े बीज की तरह होगा जो या तो स्वयं सड़-गलकर नष्ट हो जाता है या जिसे चिड़िया, चूहे और जंगली जीव चुन ले जाते हैं।

जितना महत्व उपासना का है उतना ही साधना का भी है। हमें उपासना पर ही नहीं साधना पर भी ध्यान और जोर देना चाहिए। जीवन को पवित्र और परिष्कृत, संयत और सुसंतुलित, उत्कृष्ट और आदर्श बनाने के लिए अपने गुण, कर्म स्वभाव को उच्चस्तरीय बनाने के लिए निरन्तर प्रयत्न करना चाहिए। इस प्रयत्न का नाम ही जीवन साधना अथवा साधना है। उपासना पूजा तो निर्धारित समय का क्रिया-कलाप पूरा कर लेने पर समाप्त हो जाती है, पर साधना चौबीस घण्टे चलानी पड़ती है। अपने हर विचार और हर कार्य पर एक चौकीदार की तरह कड़ी नजर रखनी पड़ती है कि कहीं कुछ अनुचित अनुपयुक्त तो नहीं हो रहा है। जहाँ भूल दिखाई दी कि उसे तुरन्त सुधारा, जहाँ विकार पाया कि तुरन्त उसकी चिकित्सा की, जहाँ पाप देखा कि तुरन्त उससे लड़ पड़े। यही साधना है। जिस प्रकार सीमारक्षक प्रहरियों को हर घड़ी शत्रु की चालों और बातों का पता लगाने और जूझने के लिए लैस रहना पड़ता है, वैसे ही जीवन संग्राम के हर मोर्चे पर हमें सतर्क और तत्पर करने की आवश्यकता पड़ती है। यही तत्परता साधना है।

उपासना और साधना के समन्वित उपक्रम को योग भी कहा जा सकता है। योग का सामान्य अर्थ होता है जोड़ना। आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ देने की प्रक्रिया योग कहलाती है। इसमें उपासना और साधना दोनों का समान महत्व है। योग साधना में कई प्रकार के उपासनात्मक क्रियाकृत्य अपनाने पड़ते हैं। इनका उद्देश्य आत्म चेतना को परमात्म चेतना से जोड़ने वाली मनःस्थिति उत्पन्न करना है। इस तथ्य को ध्यान में रख कर चला जाय तभी लक्ष्य की पूर्ति होनी संभव है। यदि चेतना के परिष्कार का प्रयत्न न किया जाय और मात्र उन क्रियाकृत्यों को ही योगाभ्यास मान लिया जाय तो उस भ्रान्ति के कारण घोर परिश्रम करते रहने पर भी कोल्हू के बैल की तरह जहाँ के तहाँ बने रहना पड़ेगा। उपासनात्मक क्रियाकृत्यों में जप, ध्यान, नाद, एकाग्रता, तन्मयता, स्वाध्याय, सत्संग आदि साधनों का आश्रय लिया जाता है ताकि चेतना को दिशा एवं प्रेरणा दी जा सके और उसे अपनी जीव ससीमता को ब्रह्म असीमता में घुला देने के लिए आवश्यक प्रकाश एवं प्रशिक्षण मिल सके।

लक्ष्य विहीन साधना मनोरंजक भटकाव ही कहा जा सकता है। शारीरिक और मानसिक क्रियाकृत्यों को योगाभ्यास के आधार साधन मानना ही पर्याप्त है। उन कृत्यों को ही जादुई मान बैठना और उनकी प्रवीणता मिल जाने मात्र से लक्ष्य पूरा हो जाना मान लिया जाएगा तो यह विशुद्ध भ्रान्ति ही सिद्ध होगी। एक व्यक्ति दूसरे तक अपने मनोभाव पहुँचाने के लिए कागज कलम का प्रयोग करता है। यह उपकरण निश्चय ही बड़े महत्वपूर्ण हैं। इनके बिना विचारों का आदान-प्रदान करने में बड़ी कठिनाई पड़ेगी। फिर भी यह मात्र कागज कलम से पत्राचार का उद्देश्य पूरा नहीं होता। उसमें भावों की अभिव्यक्ति का तथ्य जुड़ा ही रहना चाहिए। यदि ऐसे ही कागज पर कलम घिसते रहा जाय और कुछ भी टेड़ी-सीधी लकीरें बनाई जाती रहें तो उससे पत्र-व्यवहार द्वारा विचारों के आदान-प्रदान का उद्देश्य पूरा न हो सकेगा। लेखन क्रिया के साथ भावों की अभिव्यक्ति नितान्त आवश्यक है। योगाभ्यास में प्रयुक्त होने वाले उपचारों में मात्र शारीरिक, मानसिक हलचलों को ही सब कुछ मानकर संतुष्ट नहीं हो बैठना चाहिए। उत्कट प्रयत्न यह होना चाहिए कि आत्मा को परमात्मा से जोड़ देने पर उपयुक्त भाव चेतना उत्पन्न की जा सके। महत्व तो इस ‘भाव उभार’ का ही है। वह उभरेगा तो गाड़ी आगे चलेगी अन्यथा तथाकथित योगाभ्यासों की हलचलें कुछ समय तक श्रम-साधना में जितनी कुछ जैसी कुछ अनुभूति दे सकती हैं, उसे देकर समाप्त हो जायेंगी। भाव-विहीन साधना से शरीर की स्वस्थता और मन की एकाग्रता भले ही कुछ सीमा तक बढ़ सके, आत्मिक प्रगति का लक्ष्य पूरा न हो सकेगा, इसके लिए भावनाएं तरंगित करनी पड़ेंगी।

यह मानकर चलना भी गलत है कि भजन करने मात्र से पाप कट जायेंगे और ईश्वर प्रसन्न हो जायेगा। अतएव जीवन को शुद्ध बनाने अथवा कुमार्गगामिता से बचाने की आवश्यकता नहीं है। इसी भ्रमपूर्ण मान्यता के कारण लोग अध्यात्म के लाभों से वंचित रहते हैं। यह भ्रम दूर हटना चाहिए और भारतीय अध्यात्म का तत्वज्ञान एवं ऋषि अनुभवों को यही निष्कर्ष अपनाना चाहिए कि उपासना और साधना आध्यात्मिक प्रगति के दो अविच्छिन्न पहलू हैं, एक दूसरे के पूरक हैं तथा एक के बिना दूसरा अपूर्ण है। जिस प्रकार अन्न और जल, रात और दिन, शीत और ग्रीष्म, स्त्री और पुरुष का जोड़ा है उसी प्रकार उपासना और साधना भी अन्योन्याश्रित हैं। एक के बिना दूसरा अकेला, असहाय एवं अपूर्ण ही बना रहेगा, इसलिए दोनों को साथ लेकर अध्यात्म मार्ग पर आरूढ़ होना ही उचित है।

गायत्री उपासक का जीवन क्रम उत्कृष्ट आदर्शवादी एवं परिष्कृत होना ही चाहिए। नशा पीने पर मस्ती आनी ही चाहिए। भक्ति का प्रभाव सज्जनता और प्रगतिशीलता के रूप में दिखना ही चाहिए। इसलिए गायत्री का वरदान प्राप्त करने की पात्रता उत्पन्न करने के लिए उपासना के साथ साधना का उपक्रम भी अनिवार्य रूप से जोड़े रखना चाहिए अर्थात् उसमें आत्मनिरीक्षण, आत्मसुधार, आत्मनिर्माण एवं आत्मविकास की परिपूर्ण प्रक्रिया जुड़ी ही रहनी चाहिए। उपासना और साधना का अलग अस्तित्व है, यह सोचना गलत है। एक को कर लेने से दूसरे की पूर्ति हो जायेगी यह सोचना भी अनुचित है। अस्तु, गायत्री की भावात्मक, क्रियाकाण्ड परक पूजा की जानी चाहिए। हम निष्पाप बनें इतना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् यह भी आवश्यक है कि अपने कर्म एवं स्वभाव में सद्गुणों का समुचित समावेश करके दिव्य जीवन बनावें तथा उसके द्वारा अपना और समस्त समाज का कल्याण करें। व्यक्तित्व को परिष्कृत और विकसित रखते हुए ही हम आत्मिक प्रगति के मार्ग पर बढ़ सकते हैं तथा उसमें पूर्णता प्राप्त करने में सफल हो सकते हैं।


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