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April 1981

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‘‘योंऽतः सुखोंऽतरारामस्तथांतर्ज्योतिरेव यः। स योगी ब्रह्म निर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति॥’’ (गीता 5।24)

जिसे आत्मस्वरूप में ही सुख होता है, जो आत्म स्वरूप में ही क्रीड़ा करता है, जिसकी आत्म स्वरूप में ही दृष्टि है, वह व्यक्ति ब्रह्म से एक रूप होता हुआ ब्रह्म में ही लीन हो जाता है अर्थात् मोक्ष प्राप्त करता है।


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