दीपक का अंतिम सन्देश (kahani)

October 1974

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दीपक का तेल चुक गया था। केवल रुई की बाती जलकर मन्द−मन्द प्रकाश बिखेर रही थी। उसके अन्तिम समय को निकट आया देखकर एक गृहस्थ ने पूछ ही लिया−’तुम जीवन भर आलोक बिखेर कर दूसरे का पथ−प्रदर्शन करते रहते हो, संसार के साथ इतनी भलाई करते रहते हो; फिर भी तुम्हारा इस प्रकार दुःखद अन्त देखकर मेरा हृदय विदीर्ण हुआ जा रहा है।’

बुझते दीपक ने पूर्ण शक्ति के साथ अन्तिम बार अपनी आभा को बिखेरते हुए कहा—’भाई इस भौतिक जगत में जिसका जन्म होता है उसका अन्त भी होता है। हम प्रयास करने पर भी उससे बच नहीं सकते। हाँ इतना अवश्य कर सकते हैं कि अपने जीवन की मूल्यवान घड़ियों को व्यर्थ ही नष्ट न होने दें।’


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