हमारी प्रगति,दिशा−विहीन न हो

October 1974

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

प्रगति की दिशा में चलना अच्छा है उससे मनुष्य की पुरुषार्थ परायणता सिद्ध होती है। जो जड़वत् जहाँ के तहाँ जमे बैठे रहते हैं—जिनमें साहस और प्रयास के चिन्ह शेष नहीं रहे उन्हें जीवित मृतक कहा जायगा चेतना का चिन्ह ही अग्रगमन है। किसी की सजीवता उसकी सक्रियता से ही नापी जाती है। जो जितना लगनशील, प्रयत्नशील और पुरुषार्थ परायण है उसे उतने ही अंशों में जीवित कहा जायगा। आगे बढ़ने की महत्वाकाँक्षा का दीपक जिसने सँजोकर रखा है वह अँधेरे में भटकेगा नहीं उसे लक्ष्य तक पहुँचने का रास्ता मिलता ही रहेगा और देर−सवेरे में वह उस स्थान पर जा पहुँचेगा; जिसे प्रगति का अन्तिम लक्ष्य कहा जाता है।

प्रगति तभी सराहनीय है जब वह आदर्श एवं औचित्य की ओर बढ़ रही हो। पथ भ्रष्ट गतिशीलता तो अगति अथवा दुर्गति ही सिद्ध होगी। इस भूल का अपनाने वालों के प्रयास तो उलटे उसी के लिए विपत्ति बन जायेंगे। जाल में फँसा पक्षी जितने हाथ−पैर पीटता है उतने ही उसके बन्धन कड़े होते जाते है। आदर्श विहीन पुरुषार्थ करने वाले तो अपने लिए और दूसरों के लिए केवल संकट ही बढ़ाते चलते हैं।

हमारी प्रगति वृक्ष जैसी हो। वृक्ष अपने अस्तित्व का बढ़ाता है, पर साथ ही अपनी प्रगति का पूरा लाभ दूसरों को देने के लिए भी तत्पर रहता है। जितना बढ़ता है, उतना ही अधिक लाभ दूसरों को मिलता है। पक्षी उसकी डालियों पर घोंसले बनाते हैं। पथिक छाया में बैठकर विश्राम पाते हैं। पत्रों से पशुओं को चारा और जमीन को खाद मिलता है। फलों से कितने ही प्राणियों की क्षुधा तृप्त होती है। लकड़ी से किसी का भवन बनता है, किसी का शीत कर होता है, किसी का चूल्हा जलता है। वृक्ष का पूरा अस्तित्व दूसरों के लिए ही समर्पित रहता है। सभी उसे चाहते और सभी उसे सराहते हैं। हमारी प्रगति इसी स्तर की होनी चाहिए।

महान् प्रयोजनों की पूर्ति के लिए प्रगति करना ही सराहनीय है। उसी आधार पर लोक−सम्मान और जन−सहयोग मिलता है। वृक्षों को लोग लगाते हैं—सींचते हैं, रखवाली करते हैं और अपना उद्यान सुविकसित देखकर प्रसन्नता अनुभव करते हैं। उसकी हरियाली और सघनता देखने मात्र से दर्शकों का मन प्रसन्न होता है। उपयोगी वृक्षों को काटने वालों की भर्त्सना की जाती है; उन्हें पापी ठहराया जाता है। यह जन−सहयोग और लोक−सम्मान पाकर वृक्ष का जीवन धन्य बनता है। उसकी निज की स्थिति सुखद ही रहती है। अपनी इस लोकोपयोगी प्रगति पर उसे सन्तोष एवं गर्व करने का पूरा−पूरा अवसर मिलता है।

जिसने अपनी प्रगति तो की पर दूसरों के लिए कष्टकारक अथवा अनुपयोगी सिद्ध हुए वे घृणास्पद होकर जीते हैं और अपने चारों ओर विरोध−विद्वेष का वातावरण पाते हैं। ऐसी दशा में उन्हें आत्म−रक्षा एवं प्रतिरोध, प्रतिशोध के प्रयत्नों में से ही उलझ कर रह जाना पड़ता है। साँप, बिच्छू, व्याघ्र, बधिक कब किसका स्नेह, सहयोग पाते हैं वे जहाँ जाते हैं आतंक फैलाते है और बदले में प्रतिशोध, विद्वेष के शिकार होते हैं। कँटीली झाड़ियाँ जहाँ भी उगती हैं उन्हें काटने, उखाड़ने, जलाने की दारुण परिस्थिति का ही सामना करना पड़ता है।

हमारी प्रगति दिशा विहीन न हो। बढ़ना तो चाहिए, पर यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि हमारा उत्कर्ष दूसरों के लिए उत्साहवर्धक एवं आनन्ददायक परिणाम उत्पन्न करता रहे।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118