शान्त शीतल रहें निरोग दीर्घजीवी बनें

October 1974

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दीर्घ जीवन के लिए जिन साधनों और उपायों की आवश्यकता अनुभव की गई है उनमें एक अति महत्व पूर्ण डडडडम हैं—शीत का सान्निध्य। हमारा शरीर शीत के वातावरण में अधिक स्थिर रहता है और भली प्रकार विकसित होता है। यों आवश्यकता तो गर्मी की भी पड़ती है पर वह एक सह्य और सीमित मात्रा में ही होनी चाहिये। अधिक ताप का संपर्क जीवन शक्ति को क्षीण करता है यह तथ्य शीत और उष्ण प्रदेशों के निवासियों की शारीरिक स्थिति को देखकर सहज ही जाना जा सकता है। उत्तर भारत में शीत की मात्रा अधिक रहती है और दक्षिण में गर्मी ज्यादा होती है फलतः पंजाबियों की अपेक्षा मद्रासी, बंगाली, उड़िया लोग दुर्बल पाये जाते हैं। योरोप में जहाँ ठण्ड अधिक पड़ती है वहाँ शारीरिक बलिष्ठता रहती है और संसार के अन्य गर्म देशों में अपेक्षाकृत दुर्बलता की स्थिति पाई जाती है। शीत ऋतु में पाचन क्रिया, गहरी नींद आदि की स्थिति ठीक रहती है। वजन बढ़ाने के लिए पौष्टिक आहार प्रयत्न करते हैं। स्वभावतः भी उन दिनों आम लोगों का स्वास्थ्य अच्छा रहता है। गर्मी के दिनों में जितनी बीमारियाँ फैलती हैं उतनी सर्दी के दिनों में दिखाई नहीं देतीं। उचित और सह्य गर्मी के अतिरिक्त शरीर संरचना की माँग शीत वातावरण की बनी रहती है। स्वास्थ्य सुधार के लिए बड़े लोग अक्सर ठण्डे पहाड़ी स्थानों में जागा करते हैं। ऋषि−मुनियों की तपश्चर्या भी हिमालय जैसे शीत प्रधान क्षेत्रों में ही अधिक सफलता पूर्वक सम्पन्न होती रही है।

यह शीतलता न केवल शरीर की वरन् मस्तिष्कीय सन्तुलन के रूप में भी होनी चाहिए। आवेश, उत्तेजना, चिन्ता, क्रोध, लिप्सा के हड़कम्प में मस्तिष्क की अन्तःस्थिति गरम एवं उत्तेजित रहती है, फलतः इस प्रकार के लोग अपना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य गँवाते चले जाते हैं। रुग्णता ग्रसित होते हैं और अकाल मृत्यु के मुँह में चले जाते हैं।

स्वास्थ्य के संरक्षण और दीर्घ जीवन के लिए शीत की उपयोगिता अब असंदिग्ध रूप से स्वीकार करली गई है। थकान दूर करने के लिए चिर विश्राम का उपयुक्त माध्यम शीत को माना गया है। शरीर के विपत्ति ग्रस्त होने अथवा मृत्यु के निकट जा पहुँचने पर उसे शीत उपचार के द्वारा पुनः अच्छी स्थिति में वापिस लाने की दिशा में जब वैज्ञानिक प्रयत्न दिन−दिन तीव्र होते चले जा रहे हैं।

सन् 1798 में जेम्स क्यूरी ने शीत उपचार से एक पागल आदमी का सफल इलाज किया था। उसे 83 अंश तक के गिरे हुए अपमान में 45 मिनट तक रखकर उन्माद मुक्त किया गया था। इसके 140 वर्ष पश्चात दूसरे सफल प्रयोग डाक्टर टेम्पेल और लारेन्स स्मिथ के थे इन लोगों ने केन्सर के मरीजों को शीत उपचार से अच्छा करके दिखाया। सन् 1938 में उनके प्रतिपादन ने चिकित्सा जगत का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया और हाइपोथमिया (निम्न तापिकी विद्या) को विधिवत् चिकित्सा विज्ञान में महत्वपूर्ण स्थान दिया गया।

सन् 1951 में बेलग्रेड के शरीर विज्ञानी एण्डजस ने कुछ चूहे शून्य से एक डिग्री नीचे तापमान में बर्फ की तरह जमाये उनके हृदय की धड़कन बन्द हो गई, साँस रुक गई और रक्त की दौड़ समाप्त हो गई। मृत्यु का हर लक्षण उस शरीर में था। इस पूर्ण मृत्यु की स्थिति में उसे पूरे एक घण्टे पूरे एक घण्टे रखा गया इसके बाद जीवन लौटाने के उपचार प्रारम्भ किये गये। क्रमशः उसे गर्मी पहुँचाई गई। फेफड़े में हवा पम्प की गई। हृदय को बिजली का झटका देकर धड़काया गया। उन उपचारों से मेरा हुआ चूहा पुनः जीवित हो गया और पहले की तरह फिर सामान्य हरकतें करने लगा।

सन् 1950 में टोरन्टो के विज्ञानी बिंगेलो ने मरे कुत्ते को 20 अंश तापक्रम पर ठण्डा किया और 45 मिनट बाद उसे फिर जिन्दा कर दिया। अमेरिका के डा. लेविस और नियोजीन भी इन प्रयोगों की पुनरावृत्ति करने में सफल रहे हैं। संसार के अन्यान्य देशों में भी इस शीतलीकरण विद्या की शोध हुई है और विश्व विख्यात शरीर शास्त्रियों में से ऐ डजस, स्मिथ और गोल्डज्विग ने घोषणा की है कि अगली दशाब्दी में विज्ञान उस स्थिति में पहुँच जायगा जब मृत्यु को अन्तिम अथवा अवश्यम्भावी कहे जाने की वर्तमान मान्यता को झुठलाया जा सके।

किसी प्राणी के अंग विशेष को उसमें कुछ कोशिकाओं एवं ऊतकों को पृथक करके चिरकाल तक जीवित रखने में बहुत पहले ही सफलता प्राप्त करली गई है। कठिनाई यही पड़ती है कि समस्त शरीर के सुविस्तृत क्षेत्र में मृत्यु स्थिति को पलट कर जीवन को किस प्रकार स्थिर रखा जाय। प्रयोग की दृष्टि से समस्त शरीर की समस्त कोशिकाओं को देर तक विकृति से बचाये रखना वर्तमान साधनों से बहुत कठिन पड़ता है। शीत विद्या की प्रगति को देखते हुए यह आशा बँधती है कि सम्भवतः सम्पूर्ण शरीर से चल पड़े विगठन की रोक, जीवन को वापिस लाने की सम्भावनाएँ बन जायेंगी।

मस्तिष्क जैसे कुछ अंगों को देर तक जीवित रखना हो तो ग्लिसरोल या डाइमिथोइल सल्फाक्साइड जैसे घोल के आवरण में उसे रखकर 79 अंश से. तापक्रम जमा दिया जाता है। इस तापमान पर तो कार्बन डाई आक्साइड गैस तक जम जाती है। नई विधि के अनुसार द्रवीय नाइट्रोजन की 19 अंश से. पर रखने में भी यही काम बन जाता है। कैंब्रिज के विज्ञानी पोल्गे ने बैल के शुक्राणुओं को जमाकर उन्हें सात वर्ष तक सुरक्षित रखने में सफलता पाई थी और मरे हुए साँड़ के सात वर्ष बाद उसे सन्तानोत्पादन का श्रेयाधिकारी बनाया था। मर चुके मनुष्यों के द्वारा भी सन्तानोत्पादन अब न तो आश्चर्यजनक रहेगा और न असम्भव। यह परिपाटी अब सामान्य प्रचलन में आ गई है। पशुओं में कृत्रिम गर्भाधान का कार्य किसी भी पशु केन्द्र पर सरलता पूर्वक होता है। डडडड डडडड शुक्राणु इस प्रयोजन के लिए प्रयुक्त होते हैं। डडडड डडडड हो ही यह आवश्यक नहीं। डडडड डडडड

हृदय के आपरेशन में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि उस कतर–व्यौंत में काफी डडडड लग जाता था जबकि हृदय को रक्त विहीन स्थिति में अधिक से अधिक आठ मिनट तक ही रखा जा सकता है। डडडड देर रक्त विहीन स्थिति रहने पर बल्बों की माँसपेशियाँ अपनी स्वाभाविक क्रिया−कलाप छोड़कर फिव्रिलेशन की शिकार हो जाती हैं और विचित्र प्रकार की क्रियाएँ करने लगती है। यह एक नये प्रकार का संकट होता है। लेकिन ग्राड के प्रो. मगोवस्की ने शीत विद्या के प्रयोग से यह सम्भव कर दिया है कि रक्त भिषरण रुका रहे और हृदय का आपरेशन देर तक चलता रहे। उस समय रोगी मृतक की स्थिति में रहता है पर आपरेशन के बाद उसे फिर जीवित बना लिया जाता है।

स्वास्थ्य की स्थिरता और दीर्घ जीवन की समस्या का केन्द्र बिन्दु कोशिकाओं की अन्तःस्थिति के साथ जुड़ा हुआ है। उनका स्तर जब गिरता है तो जीवनयापन के सामान्य क्रिया−कलापों में अवरोध उत्पन्न हो जाता है। उनमें कठोरता, शुष्कता, मंदता आती है फलतः मलों का निष्कासन एवं नवीन शक्ति का उत्पादन कार्य उनमें ठीक तरह नहीं हो पाता। यही है वृद्धावस्था और मृत्यु का मूल कारण। बीमारियाँ भी इसी स्थिति में पनपती हैं। यदि कोशाओं की स्थिति सामान्य बनाये रखी जा सके तो इन विपत्तियों से बचा जा सकता है। सामान्य स्थिति बनाये रखने के लिए उन्हें बीच−बीच में विश्राम एवं मरम्मत का अवसर मिलना चाहिए। यह कार्य शीत उपचार के माध्यम से ही ठीक प्रकार हो सकता है।

शरीर अरबों खरबों कोशिकाओं की सम्मिलित सत्ता से मिलकर बना है। यह कोशिकाएँ ही जीवन की क्रियात्मक इकाइयाँ हैं। वे विभाजित एवं परिवर्तित होती रहती हैं, अपना काम पूरा करके एक कोशिका समाप्त होती है और अपने स्थान पर अन्य वंशजों का स्थानापन्न बना जाती है। इस क्रम में जब तक तीव्रता रहती है डडड बढ़ता है और जिस क्रम से इस प्रक्रिया डडडड आती है उसी आधार पर शरीर वृद्ध अथवा डडडड रहने लगता है। यह मन्दता जिस क्रम से बढ़ती है उतनी ही शिथिलता अंग−प्रत्यंगों में आती जाती है। निष्क्रियता एवं अशक्ति बढ़ते−बढ़ते स्थिति यहाँ तक जा पहुँची है कि उत्पन्न होते रहने वाले मलों एवं विषों तक को बाहर कर सकना शक्य नहीं रहता फलतः बढ़ी हुई अशक्त ता एवं विषाक्त ता ही मृत्यु को सामने ला खड़ा करती है।

कोशिकाओं का विभाजन क्रम अद्भुत है चार महीने के गर्भस्थ शिशु में वे 40 से 60 बार तक विभाजित होती हैं। 20 वर्ष की आयु में यह क्रम 20 से 40 बार तक रह जाता है। 20 से ऊपर की आयु में वह 10 से 30 बार तक ही सीमित रहते देखा गया है। यह मन्दता ही मृत्यु की दिशा में बढ़ते हुए क्रमिक चरण हैं। जन्म से लेकर मरण तक यह यात्रा अपने ढंग से चालू रहती है और एक दिन इस सुखद यात्रा का दुखद अन्त हो जाता है।

स्नायु संवहन पेशियाँ, चमड़ी, रक्त माँस, अस्थि मज्जा, ज्ञान तन्तु आदि शरीर की विभिन्न पर्तों को परस्पर बाँधे रहने का काम ‘कोलेजन’ नामक प्रोटीन करता है। शरीर में जितना भी प्रोटीन पाया जाता है उसमें एक तिहाई भाग इस कोलेजन का है। कोमलता, स्फूर्ति और अंगों का लचीलापन इसी के कारण रहता है। आयु वृद्धि के साथ−साथ यह प्रोटीन अधिक गाढ़ा और कठोर होता जाता है फलतः विभिन्न अवयवों की कोमलता घटती जाती है और उसका स्थान कठोरता लेती जाती है। आयु वृद्धि के साथ−साथ बढ़ती हुई कुरूपता, कठोरता यही है। स्वभाव में भावुकता का घटना और कठोरता, नीरसता का बढ़ना इसी आधार पर होता रहता है।

इन बहुमूल्य जीवन तत्वों को सुरक्षित रखने के लिए यह आवश्यक है कि न केवल तीख, असह्य, उष्ण तापमान से बचा जाय वरन् मनःक्षेत्र को उद्विग्न करने वाली उन उत्तेजनाओं से भी बचा जाय जो क्रोध, चिन्ता, कामुकता, असंयम, तृष्णा, ईर्ष्या जैसे मनोविकारों के कारण उत्पन्न होती है।


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