समुन्नत नई पीढ़ी के लिये अध्यात्मवादी भी प्रयत्न करें

October 1974

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नशेबाजी का विस्तार, अणु विस्फोटों का सिलसिला, कारखानों से उत्पन्न जलवायु प्रदूषण जिस क्रम से बढ़ रहा है उसे देखते हुए यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि निकट भविष्य में इस संसार का वातावरण बहुत विषाक्त होने जा रहा है उसमें वर्तमान स्तर के व्यक्ति साँस लेकर जीवित न रह सकेंगे। इसी प्रकार नशेबाजी तथा मानसिक तनावों से उत्पन्न विक्षुब्धता के कारण नर−नारी इस स्थिति में जा पहुँचेंगे कि उनके लिए निरोगी और दीर्घजीवी सन्तानें उत्पन्न कर सकना सम्भव ही न रहेगा। इतना ही नहीं जो बच्चे पैदा होंगे उन्हें आज से सर्वथा भिन्न स्तर के विषाक्त वायुमण्डल में ही निर्वाह करना पड़ेगा। इसके लिए यह आवश्यक है कि नई पीढ़ियों का पूरा ढाँचा ही उस स्थिति के अनुकूल बना हुआ है। जीवन तो उबालने वाली गर्मी और जमाने वाली ठण्डक में भी देखा गया है। जीवाणु दाहक तेजाबों के भीतर भी क्रीड़ा कल्लोल करते पाये गये हैं फिर कोई कारण नहीं कि अणु विकिरण विषैली हवा, गंदे जल और विकृत आहार से भी गुजारा कर सकने वाले बच्चे पैदा न किये जा सकें। यदि वर्तमान प्रगतिवाद इसी क्रम से चलता है और मनुष्य अपना अस्तित्व भी बचाये रहना चाहता है तो फिर यही एकमात्र उपाय शेष रह जाता है कि उसी स्तर के रक्त माँस से बनी पीड़ियाँ उत्पन्न हों।

समय जिस तेजी से आगे बढ़ रहा है और परिस्थितियाँ जिस द्रुतगति से बदल रही है उसे देखते हुए यह प्रश्न उभर कर सबसे आगे आ सकता है कि विकट भविष्य से जूझने वाला—भयंकर समस्याओं को सुलझा सकने वाला—मनुष्य उत्पन्न होना चाहिए। वैज्ञानिक इसका समाधान प्रजनन तत्व में भारी हेर−फेर करके उसे ढूँढ़ रहे हैं। जिन रासायनिक पदार्थों से जीवन बनता है उनकी मात्रा एवं क्रम बदल देने से जीवन बनता है उनकी मात्रा एवं क्रम बदल देने से—वर्तमान जीवकोषों की शल्य−क्रिया कर देने से ऐसा सम्भव हो सकता है। वे सोचते हैं इन सुधरे हुए जीवकोषों को माता के गर्भ की अपेक्षा किसी स्वतन्त्र परखनली में पकाया जाय ताकि माता के रक्त −माँस से होने वाला भ्रूण पोषण कहीं उस कष्ट साध्य सुधार प्रक्रिया को बेकार न कर दे।

डा.रोस्टाण्ड इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि सुविकसित स्तर के मनुष्यों की हू−बहू वैसी ही ‘ब्लू प्रिन्ट’ कापियाँ बनाकर तैयार की जा सकेंगी। तब गाँधी और जवाहरलाल के न रहने से किसी क्षति की आशंका न रहेगी क्योंकि उनके जीवन काल में ही अथवा मरने के बाद हू−बहू वैसे ही व्यक्ति सैकड़ों हजारों की संख्या में प्रयोगशालाएँ उत्पन्न करके रख दिया करेंगी। इन डा.रोस्टाण्ड ने टिश्यू कलचर अर्थात् कोशाओं की खेती की अगले दिनों सामान्य बागवानी की तरह प्रयुक्त होने की भविष्यवाणी की है। कार्नेल विश्व विद्यालय के डा.फेडिक सी.स्टीबर्ड द्वारा गाजर की कोशिका का पूरी गाजर में विकसित करने में सफलता प्राप्त करने के बाद अब वैज्ञानिक मनुष्य के बारे में भी यह सोचने लगे हैं कि रजवीर्य को अनावश्यक महत्व देने की जरूरत नहीं है। हर कोशिका में उतनी सम्भावना विद्यमान हैं कि वह अपने आपको एक स्वतन्त्र मनुष्य के रूप में विकसित कर सके। रतिक्रिया का विकल्प प्रयोगशालाएँ बन सकती हैं और प्रजनन के लिए माता पिता का नगण्य सा सहयोग पाकर अपना उत्पादन जारी रख सकती हैं।

इटली के डा.डैनियल पैन्नुचि ने आलोनो की अपनी प्रयोगशाला में कृत्रिम मनुष्य भ्रूण उत्पन्न किये थे। उन्होंने एक पारदर्शी गर्भाशय बनाया था। उसमें एक रजकोश और एक शुक्रकोश का संयोग कराया तथा वे रसायन भर दिये जिनमें भ्रूण पलता है। भ्रूण स्थापित हुआ और उसी तरह बढ़ने लगा जैसा कि माता के पेट में पलता है। पहला भ्रूण 29 दिन और दूसरा भ्रूण 59 दिन तक उन्होंने पाला। इस उपलब्धि ने संसार में तहलका मचा दिया और यह संभावना स्पष्ट कर दी कि मनुष्यों को कृषि कर्म हो सकना एक सुनिश्चित तथ्य है। डा.पैबुचि से पहले भी यह संभावना बहुत कुछ प्रशस्त हो चुकी थी। डा.शैटल्स, डा.जानराक ने इस प्रयोग परीक्षण की सफल शुरुआत बहुत पहले ही आरम्भ कर दी थी।

विचारक माँलकम मगरिज का कथन है कि सृष्टि के आरम्भ से लेकर अब तक प्रकृति के जितने रहस्य जानने में मनुष्य का सफलता मिली थी, उसकी तुलना में कहीं अधिक ब्रह्माण्ड का रहस्योद्घाटन इस शताब्दी में हुआ है। यह क्रम आगे और भी तीव्र गति से चलेगा। इन उपलब्धियों में एक सबसे बड़ी कड़ी जुड़ेगी अभीष्ट स्तर के मनुष्यों के उत्पादन की। अगले दिनों शरीर की दृष्टि से असह्य समझी जाने वाली परिस्थितियों में रहने वाले मनुष्य उत्पन्न किये जा सकेंगे और विद्वान, दार्शनिक, कलाकार, योद्धा, राजनीतिज्ञ, वैज्ञानिक, व्यापारी, श्रमिक आदि वर्ग न्यूनाधिक योग्यता के आवश्यकतानुसार उत्पन्न किये जा सकेंगे। तब मनुष्य सर्व शक्ति मान न सही असीम शक्ति सम्पन्न अवश्य ही कहा जा सकेगा।

भारत वजी अमेरिकी वैज्ञानिक डा.हरगोविन्द खुराना ने वंश तत्वों के रहस्यों का उद्घाटन करके नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया है। रोबो न्यूक्लिक एसिड (आर.एन.ए.) में जीवनोत्पादन की क्षमता है यह बहुत पहले जान लिया गया था। डायोक्सी रिवोन्यूक्लिक एसिड (डी.एन.ए.) का जीवन संचार में कितना हाथ है यह विश्लेषण अब बहुत आगे बढ़ गये हैं। ए.जी.टी. और सी.प्रोटीनों के सूक्ष्म कण किस प्रकार जीवन तत्व को प्रभावित करते हैं यह जीवविज्ञान के छात्रों को विदित हो चुका है और न्यूक्लियोटाइड की चार रसायनों की भूमिका भली प्रकार जानी जा चुकी है। सन् 1965 से इस विज्ञान ने क्रान्तिकारी उपलब्धियाँ हस्तगत की हैं।

विस्कान्सिन विश्व विद्यालय के विज्ञानियों ने घोषणा की है कि जीवन के वंशानुगत घटक—वंश तत्व—जीन—का समग्र रासायनिक संश्लेषण करने में वे सफल हो गये हैं। वंश तत्व का उत्पादन, अभिवर्धन, प्रत्यावर्तन कर सकने की विद्या उन्हें उपलब्ध हो गई है।

कैलीफोर्निया इन्स्टीट्यूट आफ टेक्नोलॉजी के डा. विलियम जे.ड्रेअर ने भविष्यवाणी की है कि ऐसे निरोधक तत्वों का ‘जीन्स’ में प्रवेश कराया जा सकेगा जो पैतृक रोगों को उन्मूलन करके नई स्वस्थ स्थापना के लिए रास्ता साफ कर सकें। यह तो निवारण की बात हुई। इसका दूसरा पक्ष स्थापना का है। जिस प्रकार किसी अच्छे खेत में इच्छानुसार बीज बोकर अभीष्ट फसल उगाई जा सकती है उसी प्रकार परम्परागत अवरोधों को हटा सकने की सफलता के साथ एक नया अध्याय और जुड़ जाता है कि वंश तत्व में इच्छानुसार विशेषताओं के बीज बोये जा सकेंगे, अगली पीढ़ियों को वैसा ही उत्पन्न किया जा सके जैसा कि चाहा गया था।

ब्रिटेन की इन्टर नेशनल साइन्स राइटर्स ऐसोशियेन के अध्यक्ष जी.आर.टेलर ने अपनी पुस्तक ‘दि बायोलॉजिकल टाइम बम’ नामक पुस्तक में जीव विज्ञान की नवीनतम उपलब्धियों का उल्लेख करते हुए यह बताया है कि वह दिन दूर नहीं जब मनुष्यों की अभीष्ट जातियाँ शाक−भाजियों की तरह उगाई जा सकेंगी और उन्हें कलम लगाकर कुछ से कुछ बनाया जा सकेगा।

एक परिपुष्ट साँड़ द्वारा एक वर्ष में उपलब्ध होने वाले शुक्राणुओं से 50 हजार बच्चे उत्पन्न किये जा सकते हैं। ऐसा ही एक सीमा तक मादाएँ भी एकाधिक सन्तानें एक ही समय में उत्पन्न कर सकती हैं। डा.कार्लएक्सेल गेम्जेल और डा.डोनिनी ने ऐसे हारमोन ढूँढ़ निकाले हैं जो नारी शरीर में प्रवेश कराने के उपरान्त उसे एक साथ कई बच्चे उत्पन्न कर सकने में समर्थ बना सकते हैं। इनमें फोलीकल स्टीम्युलेटिंग हारमोन की चर्चा विशेष रूप से हुई है।

न्यूजीलैण्ड के आकलैण्ड नगर में शोले एन लासन नामक एक महिला ने एक साथ चार लड़कियाँ और एक लड़का प्रसव किया। इसी प्रकार स्वीडन के फालुन नगर में एक महिला करीन ओन्सेन के भी एक साथ पाँच बच्चे जने। यह चमत्कार नव आविष्कृत हारमोनों के प्रयोग का था। जिनके गर्भाशय में पहले एक भी डिम्ब अण्ड नहीं था उनमें एक साथ पाँच अण्डों का उत्पन्न कर देना जीव−विज्ञान का एक विशिष्ट चमत्कार है।

यह उपलब्धियाँ सम्भावना का द्वार खोलती हैं कि मानव भ्रूण का पालन किसी उपयुक्त प्रकृति की पशु मादा के पेट में पालन करा लिया जाय इससे उस बच्चे में मनुष्य और पशु के सम्मिलित गुण विकसित हो जायेंगे। इन प्रयोगों से आरम्भ में थोड़े से बच्चे बनाने में ही अधिक परिश्रम पड़ेगा। पीछे तो कृत्रिम गर्भाधान विधि से वे थोड़े ही बच्चे तरुण होकर सहस्रों बच्चे पैदा कर देंगे। एक स्वस्थ साँड़ के द्वारा जीवन भर का संचित शुक्र 50 हजार तक बच्चे पैदा कर सकता है। विशेष रासायनिक प्रयोगों से उत्तेजित मादा डिम्बों द्वारा एक साथ पाँच तक सन्तानें उत्पन्न कराई जा सकती है। नई मनुष्य जाति को जल्दी बढ़ाने के लिए ऐसे ही तरीके काम में लाये जायेंगे; साथ ही पुरानी पीढ़ी को समाप्त करके उन सबका वन्ध्याकरण किया जायगा। अन्यथा दोनों स्तर की सन्तानें बढ़ती रहीं तो फिर उनका शंकरत्व होने लगेगा और वे वर्ण शंकर न जाने क्या−क्या नई समस्याएँ उत्पन्न करेंगे।

नई पीढ़ी के उत्पादक कोषों के मूल आधार तो मानवी जीवकोष ही रहेंगे, पर उनके साथ उस कृत्रिम जीवन प्रक्रिया को जोड़ दिया जायगा जो अभी−अभी मनुष्य के हाथ लगी हैं। रासायनिक सम्मिश्रण से नवीन जीवाणु बना सकने में सफलता प्राप्त करली गई है। पर वे अभी इस स्थिति में नहीं है कि पूर्ण प्राणी का स्थान ले सकें। इसके लिए उन्हें सुविकसित जीवन तत्व के साथ मिला देने से ही काम चलेगा। पुरातन और नवीन की कलम लगा कर ऐसे जीवकोष तैयार किये जाने की सम्भावना व्यक्त की गई है जो इच्छित स्तर के मनुष्य रूप में विकसित हो सके।

विश्वास किया जाता है कि इन प्रयत्नों के फलस्वरूप अब की अपेक्षा निकट भविष्य में अभीष्ट परिष्कृत स्तर का मानवी उत्पादन किया जा सकेगा। शीत, उष्ण, पहाड़ी, रेतीले प्रदेशों में रह सकने योग्य स्थिति के जिस देश को जब जितने मनुष्यों की आवश्यकता पड़ा करेगी तब वहाँ उतने बच्चे उस प्रकार के पैदा कर लिये जाया करेंगे। इतना ही नहीं आवश्यकतानुसार उस मानसिक स्तर की सन्तानें भी पैदा कर ली जाया करेंगी जिनकी कि उन दिनों आवश्यकता पड़ेगी। कवि, साहित्यकार, गायक, शिल्पी, योद्धा, श्रमिक, वणिक, धर्माचार्य, दार्शनिकों की जब जहाँ जितनी आवश्यकता पड़े तब वहाँ उत्पन्न हो जाया करेंगे और सामाजिक सन्तुलन बनाये रखा जा सकेगा।

अभिनव मनुष्य के निर्माण में, विज्ञान अपने ढंग से सोच और कर रहा है। उद्देश्य और पुरुषार्थ दोनों ही दृष्टि से इन प्रयत्नों की सराहना की जानी चाहिए पर साथ ही यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि मनुष्य पूर्णतया भौतिक तत्वों से विनिर्मित नहीं है जिसे विद्युत आवेशों, रस और रासायनिक प्रयोगों से मात्र प्रयोगशालाओं और उपकरणों के माध्यम से बदला या बनाया जा सके। उसमें एक स्वतन्त्र चेतना का भी अस्तित्व है। उस तथ्य को भुला नहीं देना चाहिए। खोट शरीरों में उतना नहीं जितना उस चेतना में घुस पड़ी आस्थाओं का है। मूलतः वे आस्थाएँ ही गड़बड़ा कर शारीरिक, मानसिक विकृतियां उत्पन्न करती हैं। यह विकृतियाँ चिन्तन से उत्पन्न होती हैं न कि विद्युत आवेशों और रासायनिक पदार्थों की घट−बढ़ से। मनुष्य की वर्तमान दुर्गति का कारण वह चिन्तन भ्रष्टता ही है जिसने मनुष्य को दुर्भावग्रस्त और दुष्प्रवृत्ति संलग्न निकृष्ट कोटि का नर−पशु बनाकर रख दिया है।

सुधार इस चिन्तन स्तर का भी होना चाहिए। अन्यथा वंश परम्परा के खोट हटा देने अथवा रक्त −माँस का स्तर बदल देने से अधिक से अधिक इतना ही हो सकेगा कि शारीरिक एवं बौद्धिक दृष्टि से नई पीढ़ी समय की परिस्थिति के अनुरूप ढल जाय। आस्थाओं की उत्कृष्टता के बिना मनुष्य ‘यन्त्र मानव’ भर रह जायगा। उसमें महामानवों का गौरवास्पद स्तर बनाये रहने की और संसार में सद्भावनाओं का स्वर्गीय वातावरण बनाने की क्षमता कैसे उत्पन्न होगी? और इसके बिना वह क्रियाशील किन्तु भाव रहित पीढ़ी संसार के दिव्य सौंदर्य संरक्षण अभिवर्धन कैसे कर सकेगी? इसके बिना यह विश्व मात्र हलचलों का केन्द्र ही बन कर रह जायगा।

अभिनव मनुष्य के निर्माण में आध्यात्मिक क्षेत्र का भी समुचित योगदान रहना चाहिए। जन्म और जननी का उच्च आदर्शवाद व्यक्तित्व विनिर्मित किया जाय। गर्भ काल से लेकर युवावस्था आने तक उसे परिष्कृत परिस्थितियों में विकसित होने का बालक को अवसर दिया जाय तभी उसकी आत्माओं में उत्कृष्टता का समावेश होगा। भौतिक दृष्टि से नई पीढ़ी को समुन्नत स्तर का बनाने के लिए भौतिक विज्ञानी प्रयत्न करें और आत्मिक दृष्टि से उसे समुन्नत बनाने के लिए अध्यात्म विज्ञानी अग्रसर हों। तब दोनों के समन्वित प्रयत्न ही उस स्वप्न को साकार कर सकेंगे जिसमें समुन्नत स्तर के मनुष्य के निर्माण की आशा की गई है।


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