‘मैं’ तो अहंकार है (kahani)

October 1974

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‘भिक्षु प्रवर! कल राजधानी में होने वाली सभा के लिये सम्राट मिलिन्द ने आमन्त्रित किया है।’

‘ठीक है। मैं अवश्य चलूँगा, पर भिक्षु नागसेन जैसा यहाँ कोई है नहीं। पुकारने में सुविधा हो इस दृष्टि से एक कामचलाऊ नाम रख लिया गया है।’

दूत द्वारा भिक्षु के वचन सुनकर सम्राट असमंजस में पड़ गये।

एक दिन पहले से सम्राट के मन में कितने ही विचार आये और चले गये पर जिज्ञासा को समाधान कहाँ मिला था। वह पहेली अभी भी अनबुझी पड़ी थी। आखिर सम्राट ने पूछ ही लिया ‘यदि विभिनन अंगों के कामचलाऊ योग का नाम भिक्षु नागसेन है तो रथ में सवार होकर कौन आया? स्वागत को किसने स्वीकार किया?’

भिक्षु ने उलझी गुत्थी को सुलझाने का प्रयास करते हुए कहा—’जिस रथ में बैठकर मैं आया हूँ उसके घोड़े अलग करवा दीजिए।’

कहने भर की देर थी चालक ने घोड़े खोलकर अलग बाँध दिये। भिक्षु ने पूछा—’राजन्! जिन घोड़ों को अलग कर दिया गया क्या वही रथ है?’

‘नहीं! नहीं!! घोड़े रथ कैसे हो सकते हैं? सम्राट ने चकित होकर कहा। रथ का एक−एक भाग अलग किया जाने लगा। भिक्षु ने हर बार पूछा—’क्या यह रथ है।’ और उसका सम्राट ने स्वाभाविक ढंग से उत्तर दिया ‘यह रथ कैसे हो सकता है?’ और अन्त में हर वस्तु अलग−अलग कर दी गई। रथ का नाम ही समाप्त हो गया था। घोड़े अलग बँधे थे और रथ के सारे हिस्से अलग पड़े हुए थे।

अन्त में भिक्षु ने पूछा—,’राजन्! अब बताइये रथ कहाँ है? आप तो प्रत्येक चीज के निकलने पर यह कहते थे—’यह भी रथ नहीं है, यह भी रथ नहीं है। सब चीजों के निकल जाने पर कुछ बचा ही नहीं। फिर आखिर रथ कहाँ चला गया? वास्तव में रथ अपने में कुछ भी नहीं है वह तो विभिन्न वस्तुओं के जोड़ का कामचलाऊ नाम है। इसी तरह मैं अनेक पदार्थों के योग का नाम है। शरीर का अंग−प्रत्यंग कर देने के बाद ‘मैं’ समाप्त हो जाता है और शून्य रह जाता है और यह शून्य ही प्रेम है और यह शून्य ही ईश्वर है। ‘मैं’ तो अहंकार है। शून्य के आते ही अहंकार विगलित हो जाता है।’


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