प्राणघातक रोगों का जन्मदाता धूम्रपान

October 1974

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आजकल धूम्रपान का रिवाज बढ़ता ही चला जा रहा है। हर जगह लोग रेल के इंजन या कारखाने की चिमनी की तरह धुँआ निकालते दिखाई पड़ते हैं। एक दूसरे को देखकर फैशन की तरह, प्रारम्भ किया जाने वाला यह व्यसन जीवन के लिए कितना घातक सिद्ध हो सकता है इस पर हमने यदि कभी विचार किया होता तो लाखों रुपये की सम्पत्ति में नित्य आग न लगाई होती।

रासायनिक परीक्षणों से यह सिद्ध हो चुका है कि तम्बाकू में निकोटीन, पायकोलिन, पायरीडिन, कोलीडीन, मार्श गैस, अमोनिया, साइनोजेन, परफेरोल, पूसिक एसिड, फुरफुरल, कार्बोनिक एसिड, कार्बन मोनोक्साइड, सेकोलिन तथा एजोलिन जैसे 24 प्रकार के विष होते हैं। तम्बाकू जलाने से जो धुँआ उठता है उसमें 19 प्रकार के विष रहते हैं। यह सभी विष एक से एक बढ़कर प्राणघातक हैं।

पायरीडीन से आमाशय में कब्ज तथा आँतों में खुश्की हो जाती है। इस खुश्की के कारण ही हिस्टीरिया, क्षय और एनीमिया जैसे रोग होते हैं। यह खुश्की ही कैंसर को जन्म देने वाली है। लन्दन के कैंसर विशेषज्ञ ए. जी. हेगे का कहना है—’धूम्रपान संख्या अब से बीस वर्ष पहले पुरुषों की अपेक्षा बहुत कम थी। लेकिन अगले दो दशकों में इनकी संख्या बराबर हो सकती है।

नशे की स्थिति में लोग शरीर की क्षमता से अधिक काम करते हैं जिससे स्नायु में खुश्की बढ़ जाती है फिर क्या लोगों का जुकाम, नजले में बदलने लगता है। नेत्र−ज्योति धीमी पड़ती जाती है और कम उम्र में ही चश्मा लगाना पड़ता है। जब तक व्यक्ति का स्नायु मण्डल स्वाभाविक स्थिति में बना रहता है तब तक उसका स्वास्थ्य ठीक रहता है। स्नायुमण्डल से प्रकृति विरुद्ध कार्य लेने पर उत्तेजना, चिड़चिड़ापन और विवेकहीनता की स्थिति आ जाती है। एक तरह से शारीरिक और आध्यात्मिक दृष्टि से उसका पतन होने लगता है।

कोलीडिन से सिर चकराने लगता है और स्नायु शिथिल हो जाते हैं। मार्शग्रैस से वीर्य पतला हो जाता है। अमोनिया से जिगर बिगड़ता है। साइनोजेन तथा एजोलिन से रक्त दूषित होता है। परफेरोल से दाँतों के रोग तथा कार्बन मोनोआक्साइड से दमा, हृदय और नेत्र रोग होते हैं। पूसिक एसिड थकान और जड़ता उत्पन्न करती है। कार्बोनिक एसिड से स्मरण शक्ति कमजोर पड़ जाती है और रात को गहरी नींद नहीं आती।

आगरा में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा मार्च 1968 में एक क्षेत्रीय सेमिनार का आयोजन किया गया था उसमें डा. के. पी. दुबे ने बताया था ‘नशा करने वालों में से 6.8 प्रतिशत मानसिक रोग के शिकार होते हैं जबकि उन व्यक्तियों में से जो नशा नहीं करते हैं केवल 2.3 प्रतिशत व्यक्ति मानसिक रोग के शिकार होते हैं। इस प्रकार सामान्य लोगों से नशेबाजी को मानसिक रोग हो जाने की आशंका लगभग तीन गुनी होती है।’

मादक वस्तुओं के उपयोग से अधिक स्फूर्ति भले ही अनुभव हो पर आगे चलकर उनकी एकाग्रता, तर्क शक्ति और स्मरण शक्ति क्षीण होने लगती है। अधिक समय तक मादक पदार्थों के सेवन से मेनिया, स्कीजोफेनिया, डिमेशिया, मिरगी और व्यक्तित्व परिवर्तन के रोग हो जाते हैं। डा. ओवर बैक राइट, किरमेन तथा ट्रैडगोल्ड जैसे कितने ही मानसिक रोग विशेषज्ञों का कहना है कि मादक पदार्थ सेवन करने वाले माता−पिता की सन्तान मानसिक रूप से दुर्बल तथा मिरगी का शिकार होती है। माता−पिता की बुरी आदतों के दुष्परिणाम बेचारे बच्चों को भी भुगतने पड़ते हैं।

यदि सिगरेट या बीड़ी के धुएँ को बाहर न निकाल कर पेट में ही रखा जाये तो थोड़ी ही देर में प्राणघातक संकट उत्पन्न हो सकता है। जिस तरह हुक्के की नली में काले रंग का विषैला पदार्थ जमा हो जाता है उसी तरह श्वाँस नली और फेफड़ों में भी यह विष धीरे−धीरे जमा होता जाता है। हुक्के का पानी इतना विषैला हो जाता है कि यदि उसे छोटे−मोटे कीड़ों पर डाल दिया जाये तो वे तुरन्त मर सकते हैं। फिर यह तम्बाकू जिसका धुँआ अन्दर तक जाता है अपना कितना विषैला प्रभाव शरीर के अन्दर छोड़ता होगा। एक किलो तम्बाकू का विषैला सत 30 मनुष्यों, 175 खरगोशों और 850 चूहों के प्राण लेने के लिए पर्याप्त है।

धूम्रपान के दुष्परिणामों को देखते हुए बुद्धिमत्ता इसी में है कि हम दुर्व्यसन से बचे रहकर अपने स्वास्थ्य को सुरक्षित रखे और इस मद पर होने वाला व्यय परिवार निर्माण तथा लोक−मंगल के कार्यों में लगायें।


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