इस युग के तीन प्रमुख किन्तु उलझे हुये दर्शन

October 1974

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रूसो का प्रजातन्त्र, मार्क्स का साम्यवाद और नीत्से का नास्तिकवाद इन तीनों की तिकड़ी अपनी पीढ़ियों के मस्तिष्क पर बेतरह छाई हुई हैं। उनके प्रतिपादनों पर विचार करने के लिए हर किसी को बाध्य होना पड़ा है। क्या समर्थक क्या विरोधी दोनों ही पक्ष प्रस्तुत तर्कों पर विचार करने के लिए बाध्य हुए हैं।

इस तिकड़ी के प्रतिपादनों को उपहास, उपेक्षा, भर्त्सना के प्रहार कम नहीं सहने पड़े। परम्परा समर्थक लोगों ने उनका विरोध करने में कुछ कमी नहीं रखी, पर कुछ कारण ऐसे हैं जिनके कारण वे समस्त प्रतिबन्धों का उल्लंघन करते हुए आगे ही बढ़े हैं। प्रजातन्त्रवाद की पिछली शताब्दियों और दशाब्दियों में धूम रही है। युग−युग से चले आ रहे राजतन्त्र की जड़ें उस प्रजातन्त्रवादी तूफान ने उखाड़ कर फेंक दीं। दुनिया के अधिकाँश देशों में प्रजातन्त्री शासन स्थापित हुए। यों अब अनुभव ने उसमें भी खोट निकाल दी है कि अज्ञ और अनुत्तरदायी लोगों के हाथ में वोट का अधिकार चले जाने से चुने हुए लोगों में अवाँछनीय तत्वों की भरमार हो जाती है फलतः जिन लोगों द्वारा सरकारें चलाई जाती हैं वे प्रजा द्वारा प्रजा पर राज्य होने के पवित्र उद्देश्य से भटक कर निहित स्वार्थों की पूर्ति में लग जाते हैं फलतः प्रजा के हाथ ऐसा कुछ नहीं लगता जिसे पाने के उसे स्वप्न दिखाये गये थे। इस खोट के निराकरण का उपाय न निकलते देखकर अब प्रजातन्त्र के प्रति आरम्भिक आकर्षण शिथिल होने लगा है और यह सोचा जा रहा है कि चुनाव की पद्धति में कोई ऐसा मौलिक और क्रान्तिकारी परिवर्तन होना चाहिए जिससे प्रजाद्रोही तत्वों को प्रजापति बनने की घुसपैठ से रोका जा सके।

दूसरी विचारधारा है मार्क्स का साम्यवाद। इसके लिए भी लोगों का आरम्भिक उत्साह कम नहीं था। आर्थिक समानता का नारा निर्धन और अभावग्रस्त वर्ग को बहुत आकर्षक लगा। ‘गरीबों तुम्हें साम्यवादी बनकर सिर्फ गरीबी ही खोनी है।’ इस आश्वासन ने, सहज अर्थ लाभ के सुखद स्वप्नों, बहुमत को साम्यवाद समर्थक बना दिया। रूस की राज्य क्रान्ति के बाद साम्यवाद मात्र दर्शन न रहकर एक प्रचण्ड तन्त्र बन गया। एक के बाद एक देश उसकी गोद में बैठने लगे, अब रूस, चीन तथा उनके पिछलग्गू देशों की आबादी पृथ्वी की आबादी से प्रायः आधी है। जहाँ शासनसत्ता नहीं हथियायी जा सकी वहाँ भी साम्यवादियों की मान्यताओं से प्रभावित लोगों की संख्या कम नहीं है। इस दृष्टि से समय का पलड़ा प्रजातन्त्र को पीछे छोड़ कर साम्यवाद की ओर झुका हुआ मालूम पड़ता है।

प्रजातन्त्र की तरह साम्यवादी तन्त्र के खोट भी अनुभव के सामने लाकर रख दिये। व्यक्ति को शासन का गूक वधिर गुलाम बनकर जिस प्रकार अनुगमन के लिए प्रताड़ित किया गया है उस लोभ हर्षक दबाव ने लोक−चेतना को भयभीत कर दिया है। साम्यवादी बनने का अर्थ है व्यक्तिगत चेतना की समाप्ति। वह कुछ नये सुधार, सुझाव संशोधन प्रस्तुत करने में असमर्थ होकर बौद्धिक अपंग की तरह ही जी सकता है। उच्च सत्ता की इच्छा के विरुद्ध कुछ करना तो दूर सोचा भी नहीं जा सकता। साम्यवाद के साथ अधिनायकवाद जिस प्रकार अविछिन्न बनकर प्रकट हुआ उससे सम्भव है उन देशों की आर्थिक वैज्ञानिक अथवा दूसरी प्रगतियों में सहायता भी की हो, पर व्यक्ति की मौलिकता एवं स्वतन्त्रता का एक प्रकार से अन्त ही हो गया है। यह घाटा इतना बड़ा है जिसे वह प्रजा गले उतारने को तैयार नहीं हो रहे हैं जो अभी उस तन्त्र के अंतर्गत नहीं आई। विचारशील वर्ग साम्य सिद्धान्तों का दार्शनिक समर्थन तो करता है, पर जब उस सत्ता के अंतर्गत चले जाने की बात सोचता है तो असहमति ही व्यक्त करनी पड़ती है। इस प्रकार आरम्भिक अत्युत्साह के दिन अब क्रमशः लदते जा रहे हैं। अब हर मर्ज की रामबाण औषधि साम्य सिद्धान्तों को बताने वाले अत्युक्ति वादी ही गिने जाने लगे हैं।

सम्पन्न वर्ग की समाप्ति से विपन्न वर्ग की ईर्ष्या को थोड़ा समाधान अवश्य मिलता है। हम दुखी तो दूसरे भी सुखी क्यों रहें—इस भाव विद्रोह से अवश्य ही साम्य सिद्धान्तों को राहत मिलती है किन्तु दूसरा स्वप्न पूरा नहीं होता। प्रजा की स्थिति सुधरने की किंचित ही गुंजाइश है। महत्वाकाँक्षा साम्यवादी शासन अपना व्यय इतना बढ़ाते चल रहे हैं कि प्रजा को जीवित रहने भर की सुविधा ही पल्ले पड़ती है राजतंत्र या प्रजातन्त्र वाले देशों की तुलना में साम्य तन्त्र के अंतर्गत रहने वाली प्रजा की स्थिति कुछ अच्छी नहीं गई−गुजरी ही है। अपने उपार्जन का लाभ अपने को न मिलने से मध्य स्तर के लोगों में निराशा बढ़ रही है और बड़े दबाव में जहाँ भी शिथिलता आती है तत्काल उत्पादन घट जाता है। प्रतिपादन ने साम्य तन्त्र को अंगीकार करने का अर्थ स्वर्ग राज्य में प्रवेश करना बताया था। पर अनुभव ने बताया कि वह सामन्ती गुलाम प्रथा की दुखद स्मृतियाँ ही ताजा कर रहीं हैं। शासक और शासितों के बीच की खाई वहाँ गैर साम्यवादी देशों की अपेक्षा कम चौड़ी नहीं है। ऐसे ऐसे अनेक कारण है जिनमें जन−मानस की दार्शनिक सहानुभूति होते हुए भी व्यवहार में साम्यवाद से कतराने की प्रवृत्ति पनप रही है और तूफानी उभार ठण्डा होने लगा है। इस तथ्य ने उस तन्त्र के सूत्र संचालकों को पुनर्विचार करने के लिए बाध्य किया है। प्रजातन्त्र और साम्यवाद की सम्मिलित प्रणाली ‘समाजवाद’ को विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। ऐसे−ऐसे और भी कई विकल्प है जिसे कठोरता को कोमल बनाने की गुंजाइश निकाल कर आशंकित और आतंकित लोक−मानस को आश्वस्त किया जा सके।

प्रजातन्त्र और साम्यवाद की तरह ही तीसरी प्रचंड विचारधारा नास्तिकवाद की है जिसने बुद्धिवाद को बहुत प्रभावित किया है। यों अनीश्वरवाद कोई शासन पद्धति नहीं है फिर भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि जीवन की गतिविधियों को प्रभावित करने में उसका बहुत बड़ा हाथ है। ईश्वरवाद मात्र पूजा उपासना की क्रिया−प्रक्रिया नहीं है उसके पीछे एक प्रबल दर्शन भी जुड़ा हुआ है जो मनुष्य की आकाँक्षा, चिन्तन प्रक्रिया और कर्म−पद्धति को प्रभावित करता है। समाज, संस्कृति, चरित्र, संयम, सेवा, पुण्य परमार्थ आदि सद्वृत्तियों को अपनाने से व्यक्ति की भौतिक सुख−सुविधाओं में निश्चित रूप से कमी आती है, भले ही उस बचत का उपयोग लोक−कल्याण में कितनी ही अच्छाई के साथ क्यों न होता हो। आदर्शवादिता के मार्ग पर चलते हुए जो प्रत्यक्ष क्षति होती है उसकी पूर्ति ईश्वरवादी स्वर्ग, मुक्ति, ईश्वरीय प्रसन्नता आदि विश्वासों के आधार पर कर लेता है। इसी प्रकार अनैतिक कार्य करने के आकर्षण सामने आने पर वह ईश्वर के दण्ड से डरता है। नास्तिकवादी के लिए न तो पाप के दण्ड से डरने की जरूरत रह जाती और न पुण्य परमार्थ का कुछ आकर्षण रहता है। आत्मा का अस्तित्व अस्वीकार करने और शरीर की मृत्यु के साथ आत्यन्तिक मृत्यु हो जाने की मान्यता उसे वही प्रेरणा देती है कि जब तक जीना हो अधिकाधिक मौज−मजा उठाना चाहिए। यही जीवन का लाभ और लक्ष होना चाहिए।

उपासना से भक्त को अथवा भगवान को क्या लाभ होता है यह प्रश्न पीछे का है। प्रदान तथ्य यह है कि आत्मा और परमात्मा की मान्यता मनुष्य के चिन्तन और कर्तृत्व की एक नीति नियम के अंतर्गत बहुत हद तक जकड़े रहने में सफल होती है। इन दार्शनिक बन्धनों को उठा लिया जाय तो मनुष्य की पशुता कितनी उद्धत हो सकती है और उसका दुष्परिणाम किस प्रकार समस्त संसार को भुगतना पड़ सकता है इसकी कल्पना भी कँपा देने वाली है।

निस्सन्देह इस युग के महान् दार्शनिकों में से रूसो और मार्क्स की भाँति ही फ्रैडरिक नीत्से की भी गणना की जाय। इन तीनों ने ही समय की विकृतियों को और उनके कारण उत्पन्न होने वाली व्यथा−वेदनाओं को सहानुभूति के साथ समझने का प्रयत्न किया है। अपनी मनःस्थिति के अनुरूप उपाय भी सुझाये हैं। अपूर्ण मानव के सुझाव भी अपूर्ण ही हो सकते हैं। कल्पना और व्यवहार में जो अन्तर रहता है उसे अनुभव के आधार पर क्रमशः सुधारा जाता है। यही उपरोक्त प्रतिपादनों के सम्बन्ध में भी प्रयुक्त होना चाहिए, हो भी रहा है।

शासनतन्त्र पिछले दिनों निरंकुश राजाओं और सामन्तों के हाथ चल रहा था उनके स्वेच्छाचार का दुष्परिणाम निरीह प्रजा को भुगतना पड़ता था, प्रजातन्त्र का, तदुपरान्त सभ्य तन्त्र का विकल्प सामने आया। बौद्धिक जगत में ईश्वर की मान्यता सबसे पुरानी और सबसे सबल और लोक−समर्थित होने के कारण बहुत प्रभावशाली रही थी। वह मानस तंत्र को दिशा देने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका सम्पादित करती है किन्तु दुर्भाग्य यह है कि ईश्वरवाद के नाम पर भ्रान्तियों का इतना बड़ा जाल जंजाल खड़ा कर दिया गया है जिससे आस्तिकवादी दर्शन का मूल प्रयोजन ही नष्ट हो गया। निहित स्वार्थों ने भावुक जनता का शोषण करने में कोई कसर न रखी। इतना ही नहीं अनैतिक और अवांछनीय कार्यों को भी ईश्वर की प्रसन्नता के लिए करने के विधान बन गये। राजतन्त्र की दुर्गति जिस प्रकार रूसो और मार्क्स को उत्तेजित किया ठीक वैसी ही चोट नीत्से को ईश्वरवाद के नाम पर चल रही विकृतियों ने पहुँचाई।

उसने अनीश्वरवाद का नारा बुलन्द किया और जन मानस पर से ईश्वरवाद की छाया उतार फेंकने के लिए तर्क शास्त्र और भावुकता का खुलकर प्रयोग किया। उसने जन−चेतना को उद्बोधन करते हुए कहा—’ईश्वर की सत्ता मर गई, उसे दिमाग से निकाल फेंको, नहीं तो शरीर पूरी तरह गल जायगा। स्वयं को ईश्वर के अभाव में जीवित रखने का अभ्यास डालो। अपने पैरों पर खड़े होओ। अपनी उन्नति आप करो और अपनी समस्याओं का समाधान आप ढूंढो। अपने ‘सत्’ को अपनी इच्छा शक्ति से स्वयं जगाओ और उसे ईश्वर की सत्ता के समकक्ष प्रतिद्वंद्वी के रूप में प्रस्तुत करो। अति मानव बनने की दिशा में बढ़ो पर जमीन से पाँव उखाड़ कर आसमान में मत उड़ो। वस्तुस्थिति की उपेक्षा कर कल्पना के आकाश में उड़ोगे तो तुम्हारा भी वही हस्र होगा जो ईश्वर का हुआ है।’

नीत्से की ‘संगीत की आत्मा से त्रासदी का जन्म’ ‘प्रकाश की पहली झलक’ और जरयुस्त्र बोला’ ‘प्रफुल्ल विवेक’ ‘पुण्य और पाप से दूर’ ‘नीति वाक्यों की वश परम्परा’ ‘वैग्नर’ एक चरित्र ‘एन्टी क्राइस्ट’ ऐके होमो’ ‘इच्छा शक्ति से समग्र समर्थता तक’ पुस्तकें बहुत ही लोकप्रिय हैं। इन सबमें उसने प्रचलित ईश्वरवाद के साथ जुड़ी हुई भ्रान्तियों और अनैतिकताओं का तर्क और तथ्य पर विश्लेषण किया है और बताया है कि इस मान्यता को इसी रूप में अपनाने से व्यक्ति और समाज की कोई भलाई नहीं हो सकती। एक कदम और आगे बढ़कर उसने और एक आकर्षक घोषणा की और लोगों से कहा—’ईश्वर मर गया। हमने और तुमने मिलकर उसे मार दिया।’

जहाँ तक घोषणा की बात थी वह मनुष्य की विपर्ययवादी मनोवृत्ति को बहुत भाई और उनके प्रतिपादन खूब पढ़े गये। उन पर घर−घर में चौराहे−चौराहे पर चर्चा हुई। किसी ने भला कहा किसी ने बुरा माना। जो हो इस प्रतिपादन ने प्रश्नों की झड़ी लगादी। सर्वत्र उसमें पूछा जाने लगा—”यदि ईश्वर नहीं रहा तो उसका स्थानापन्न कौन बनेगा? जीवन का लक्ष्य क्या रहेगा? संस्कृति किस आधार पर टिकेगी? मर्यादाओं की रक्षा कैसे होगी। समाज का बिखराव कैसे रुकेगा? धर्म और नीति को किसका आश्रय मिलेगा? प्रेम परमार्थ में किये क्यों रुचि रहेगी?” यही प्रश्न भीतर से भी उभरे। कुछ दिन तो हेकड़ी से वह यही कहता रहा—’जो सत्य है वह असत्य नहीं हो सकता।” समस्याओं की आशंका से यथार्थता को झुठलाया नहीं जा सकता। ईश्वर तो मर ही गया है अब अपनी समस्याएँ स्वयं सुलझाओ।”

नीत्से की विचारकता क्रमशः अधिकाधिक गम्भीरतापूर्वक यह स्वीकार करती ही चली गई कि ईश्वर भले ही मर गया हो, पर स्थान रिक्त होने से जो शून्यता उत्पन्न होगी उसे सहज ही न मारा जा सकेगा। उद्देश्य, आदर्श और नियन्त्रण हट जाने से मनुष्य जो कर गुजरेगा वह ईश्वरवादी भ्रान्तियों की अपेक्षा अधिक दुखदायी ही सिद्ध होगा।

नीत्से ने उसका समाधान कारक उत्तर ‘अतिमानव’ का लक्ष्य सामने प्रस्तुत करके दिया है। मनुष्य को अपनी इच्छा शक्ति इतनी प्रखर बनानी चाहिए जो उसके व्यक्तित्व को अति मानव स्तर का बना सके। यह निखरा हुआ व्यक्ति इतना प्रचण्ड होना चाहिए कि जन−प्रवाह के साथ बहती हुई विकृतियों पर नियन्त्रण स्थापित करने के साधन जुटा सके। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ‘अति मानव’ के रूप में विकास होना चाहिए। व्यक्ति गत जीवन में उसे इतनी इच्छा शक्ति उत्पन्न करनी चाहिए जो संकल्पों के मार्ग में आने वाले हर प्रतिरोध का निराकरण कर सके। सामाजिक जीवन में उसे इतना प्रतिभाशाली और साधन संपन्न होना चाहिए कि प्रचलित अवांछनियताओं पर नियन्त्रण कर सकने की क्षमता का अभाव अखरे नहीं।

अनीश्वरवाद का पूरक अति मानववाद की दशाब्दियों तक बहुचर्चित रहा। इस उभय−पक्षी प्रतिपादन ने एक रिक्त ता पूरी कर दी और नीत्से का अनीश्वरवादी दर्शन विधि निषेध की उभय−पक्षी आवश्यकताओं को पूरा कर सकने वालों समझा गया। उसे विचारकों ने समग्र की उपमा दी।

अनीश्वरवाद का पृष्ठ पोषण भौतिक विज्ञान ने यह कहकर दिया कि ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व का ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता जो प्रकृति के प्रचलित नियमों से आर्ग तक जाता हो। इस उभय−पक्षी पुष्टि ने मनुष्य की उच्छृंखल, अनैतिकता पर और भी अधिक गहरा रंग चढ़ा दिया तद्नुसार वह मान्यता एक बार तो ऐसी लगने लगी कि ‘आस्थाओं का अन्त’ वाला समय अब निकट ही आ पहुँचा। ‘अति मानववाद’ के अर्थ का भी अनर्थ हुआ और योरोप में हिटलर मसौलिनी जैसे लोगों के नेतृत्व में नृशंस ‘अति मानवों’ की एक ऐसी सेना खड़ी हो गई जिसने समस्त संसार को अपने पैरों तले दबोच लेने की हुँकारें भरना आरम्भ कर दिया।

खोट, प्रजातन्त्र और साम्यतन्त्र की तरह अनीश्वरवाद में भी है। इसका उचित समाधान बहुत दिन पहले वेदान्त के रूप में ढूँढ़ लिया गया है। तत्वमस्ति सोहमस्मि, अयमात्मा ब्रह्म, प्रज्ञानब्रह्म—सूत्रों के अंतर्गत आत्मा की परिष्कृत स्थिति को ही परमात्मा माना गया है। इतना ही नहीं इच्छा शक्ति को—मनोबल और आत्मबल को—प्रचण्ड करने के लिए तप साधना का उपाय भी प्रस्तुत किया गया है। वेदान्त अति मानव के सृजन पर पूरा जोर देता है। मनोबल प्रखर करने की अनिवार्यता को स्वीकार करता है। ईश्वरवाद का खण्डन किसी विज्ञ जीव की ईश्वर स्तर तक पहुँचा देने की वेदान्त मान्यता बिना रिक्त ता उत्पन्न किये—बिना अनावश्यक उथल−पुथल किये वह प्रयोजन पूरा कर देती है जिसमें ईश्वरवाद के नाम पर प्रचलित विडम्बनाओं को निराकरण करते हुए अध्यात्म मूल्यों की रक्षा की जा सके।

बुद्धिवाद अगले दिनों वेदान्त दर्शन को परिष्कृत अध्यात्म के रूप में प्रस्तुत करेगा तब नीत्से की मान्यताएँ अपूर्ण और बचकानी लगेंगी और प्रतीत होगा कि इस स्तर का चिन्तन बहुत पहले ही पूर्णता के स्तर तक पहुँच चुका है और समस्याओं का समाधान उपयुक्त रीति से खोजा जा चुका है।


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