सतर्कता बनाम आशंका

October 1974

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सतर्कता जितनी आवश्यक है; आशंका उतनी ही अनावश्यक। जो काम करने हैं उनमें क्या अवरोध आ सकता है, क्या चूक हो सकती है और किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है, इसका ध्यान रखा जाना चाहिए और उन तरीकों को अपनाना चाहिए जिनसे सम्भावित विघ्नों से बचते हुए प्रगति पथ पर व्यवस्थित रीति से चला जा सके। यह सतर्कता है। जहाँ इस बरता जायगा वहाँ उन कठिनाइयों से बहुत कुछ बचा जा सकेगा जो आगे की बात न सोच सकने वालों के सामने प्रायः आती रहती है।

सतर्कता बुद्धि कौशल का एक महत्वपूर्ण अंग है। अभीष्ट प्रयोजन की दिशा में आगे बढ़ने के लिए साहस, धैर्य, पुरुषार्थ एवं व्यवस्था बुद्धि की आवश्यकता होती है। उपयुक्त साधन जुटाने एवं परिस्थिति उत्पन्न करने के लिए चिन्तन और कर्म को एक तारतम्य में बाँधते हुए प्रबल प्रयास करना पड़ता है। इसके बिना महत्वपूर्ण सफलताओं की उपलब्धि किसी के लिए सम्भव नहीं होती। कल्पना के हवाई पर चढ़कर जो मनोरथों की मंजिल सहज ही पूरे करने के सपने देखते रहते हैं उन्हें निराशा के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता। इतना सब होने पर भी सतर्कता को साथ लेकर चलना पड़ता है। जो कर रहे हैं उसमें कुछ चूक तो नहीं हो रही। परिस्थितियों में उलट−पुलट तो नहीं हो रही है। साधनों और सम्भावनाओं में उतार−चढ़ाव तो नहीं जाया। सहयोगियों के व्यवहार में अन्तर तो नहीं पड़ा आदि अनेकों तथ्य ऐसे हैं जिन्हें ध्यान में रखकर हमें अपने क्रिया−कलाप में अन्तर करना पड़ता है। भावी कठिनाइयों की जहाँ भी सम्भावना दिखाई पड़ती है वहाँ पहले से ही बचाव, परिवर्तन और टकराव के लिए तैयार रहना पड़ता है। यह सब सजग सतर्कता के माध्यम से ही सम्भव है। इसलिए उसे आवश्यक माना जाता है और महत्वपूर्ण कहा जाता है।

सतर्कता से मिलती−जुलती एक और प्रवृत्ति है—आशंका। यह आवश्यक ही नहीं हानिकारक भी है। वह मनुष्य के मनोबल को गिराती—हड़बड़ी पैदा करती और अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए किये जाने वाले प्रयासों को अस्त−व्यस्त करती है।

जीवन−यात्रा की लम्बी मंजिल पार करने में आये दिन—मोड़ अवरोधों का सामना करना पड़ता है—पड़ सकता है। उनके साथ हँसते−हँसते हुए चलें तभी यात्रा क्रम जारी रखा जा सकता है। यदि सम्भावित अवरोधों को सुनिश्चित आपत्ति मान लिया जाय और समझ लिया जाय कि उस विभीषिका से जूझना अपने बस की बात नहीं है तो फिर मन में बेतरह हड़बड़ी मचेगी—डर लगेगा और विपत्ति सिर पर घुमड़ती दिखाई देगी। कठिनाई की बढ़ी−चढ़ी कल्पना और अपनी बुद्धि तथा शक्ति के विश्वास की कमी इन दोनों के मिलने से आशंका उत्पन्न होती है।

मित्रों ने यदि मुँह मोड़ लिया और शत्रुता का व्यवहार किया तो? भाग्य उलटा हो गया तो? अशुभ ग्रह−नक्षत्रों का प्रकोप हो गया तो? असफलता मिली और घाटा पड़ा तो? बीमारी अथवा मौत ने आ घेरा तो? आदि एक से एक विलक्षण और विचित्र प्रकार की आशंकाएँ एक के बाद एक के क्रम से शंकाशील दुर्बल मनःस्थिति के व्यक्ति पर आक्रमण करती हैं। वह अपने स्वजन सम्बन्धियों तक से आतंकित रहने लगता है। स्त्री के चरित्र से लेकर मित्र के—विश्वासघात तक की कुकल्पनाएँ इतनी गहरी बन जाती है कि वे कल्पना मात्र न रहकर वास्तविकता जैसी प्रतीत होने लगती हैं। ऐसे व्यक्तियों के लिए महत्वपूर्ण दिशा में अभीष्ट प्रयास करते ही नहीं बन पड़ता। क्षमता तो आशंका में ही नष्ट हो जाती है। अस्तु आशंका स्वयमेव आपत्ति बनकर सामने आ खड़ी होती है। साथियों की खीज के कारण आशंका के दुष्परिणाम और भी अधिक बढ़ जाते हैं।


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