छोटा द्वीप बड़े तथ्य

October 1974

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साठ वर्ग मील क्षेत्रफल का ईस्टर द्वीप सन् 1888 से चिली सरकार के कब्जे में है। चिली (अमेरिका) की राजधानी सेन्टियागो से 1030 मील दूर प्रशान्त महासागर में मात्र 1200 मनुष्यों की आबादी वाला यह द्वीप अपने भीतर ऐसे अजूबे छिपाये बैठा है, जिन्हें देखने के लिए संसार भर से हजारों पर्यटक—पुरातत्ववेत्ता तथा नृवंश विज्ञानी वहाँ अपनी कौतूहल भरी जिज्ञासाओं का समाधान करने के लिए पहुँचते रहते हैं। पर्यटकों की उत्सुकता शान्त करने के लिए उस द्वीप में एक हवाई अड्डा भी है जिस पर छोटे तथा मँझोले जहाजों के उतरने की समुचित सुविधा है। इस पूरे द्वीप में केवल एक ही कस्बा है—हंगारोआ। सभ्य नागरिक इसी में बसते हैं। स्वच्छन्द आदिवासी तो जहाँ−तहाँ उपलब्ध विशालकाय गुफाओं में अपना अड्डा जमाये रहते हैं।

इस द्वीप का सबसे बड़ा आकर्षण है वहाँ बहुत बड़ी संख्या में जहाँ−तहाँ बिखरी हुई दैत्याकार मूर्तियाँ, जिनकी ऊँचाई 30 से 70 फुट तक की है। वे टुकड़ों से जोड़कर नहीं बनाई गई हैं, वरन् प्रत्येक एक समूचे चट्टान की है। इनकी कलाकृति तो बहुत महत्वपूर्ण नहीं है, पर आश्चर्य इस बात का हैं−जहाँ विशालकाय पत्थरों वाले पहाड़ हैं वहाँ से बहुत दूरी पर ये खड़ी हुई हैं। जहाँ वे हैं वहाँ इस प्रयोजन के उपयुक्त पहाड़ नहीं हैं। फिर इतनी दूर—इतनी भारी और विशालकाय चट्टानों को उस जमाने में कैसे लाया गया होगा जिसमें कि याँत्रिक बुद्धि तथा साधन सामग्री का सर्वथा अभाव था। यह प्रतिमाएँ अब से प्रायः एक हजार वर्ष पुरानी तक हैं। देखने वाले आश्चर्यचकित होकर इस द्वीप को देखने के बाद लौटते हैं। जिन जिज्ञासाओं को लेकर वे जाते हैं, उनका समाधान होना तो दूर उलटे अधिक चकित होकर वापस लौटते हैं।

प्रशान्त महासागर के बीचोबीच बसे—समुद्र तट से हजारों मील दूर इस छोटे से द्वीप पर मनुष्य कब पहुँचे? क्यों पहुँचे? उस जमाने में इतनी लम्बी यात्राएँ कर सकने योग्य नौकाएँ इन लोगों ने कैसे बनाई? यहाँ वे किस आकर्षण से आकर बसे? इतनी विशालकाय मूर्तियाँ किस प्रयोजन के लिए—किन साधनों से गढ़ीं। इन्हें बनाने—उठाने और खड़ी करने के साधन किस प्रकार जुटाये। मूर्तियों से भी अधिक आश्चर्यजनक है, उनके सिर पर रखे हुए टोपे जो अलग से बने हैं और मूर्तियों के ऊपर उनके गढ़े जाने के बाद रखे गये हैं। यह टोपे भी पत्थर के हैं और उनका वजन तीन टन तक है। मूर्ति की आश्चर्यजनक ऊँचाई और उस पर भी इतने भारी टोपों को स्थापित किया जाना सचमुच आश्चर्यजनक है और इस बात की साक्षी देता है कि साधनहीन स्थिति में भी मनुष्य की संकल्प शक्ति कितने चमत्कारी सृजन कर सकती है।

अब से ढाई सौ वर्ष पूर्व तक किसी को यह पता भी नहीं था कि इतने छोटे, समुद्र तट से इतनी दूर, किसी द्वीप में कोई प्रवीण मनुष्य जाति निवास कर रही होगी। सन् 1622 में एक डच नाविक रोजीबीन अपने जहाज सहित उधर जा निकला। उसका मन उस द्वीप में थोड़ा विश्राम करने का था। वह उतरा तो वहाँ निवास करने वाले यूरोपियनों की तरह बिलकुल गोरे तथा कुछ साँवले रंग के आदिवासियों को योजनाबद्ध जीवन जीते हुए पाया। वे लोग प्रायः नंगे रहते थे। शरीर पर गुदने गुदे थे। जिन्होंने कानों में छेद करके लकड़ी के गुटके पहन रखे थे वे लम्बकर्ण और जिनके कान नहीं छिदे थे वे लघुकर्ण थे। इनका वर्ण विभाजन इसी कर्ण आकृति के आधार पर किया जा सकता था। वे सूर्य पूजक थे। प्रातःकालीन उदय होते हुए सूर्य को साष्टाँग दण्डवत प्रणाम करते थे और पीछे मूर्तियों के सामने पवित्र अग्नि जलाकर हवन करते थे।

रोजीवीन को कौतूहल तो जरूर हुआ पर उसे निष्प्रयोजन समझा और उपेक्षा पूर्वक चला आया। उसके उतरने के दिन ईसाइयों का ईस्टर त्यौहार था इसलिए उसका नाम ईस्टर रख दिया गया। यों उसका पुराना नाम तोतिहेनुआ था। इसके पचास वर्ष बाद एक स्पेनी नाविक डान फिलिप गोजालिस वहाँ पहुँचा। उसने वहाँ स्पेनिश झण्डा गाढ़ा और अपने सम्राट के नाम पर इस द्वीप का नाम सान कार्लोज रख दिया। इसके बाद वहाँ अंग्रेज नाविक कुक पहुँचा। तत्पश्चात् फ्राँसीसी नाविक ला पिरोजे वहाँ उतरा इन लोगों ने घूम−घूमकर वहाँ की स्थिति को देखा और वहाँ का अनोखापन योरोप वालों को बताया।

उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में अमेरिका गोरे यहाँ पहुँचे और यहाँ के आदिवासियों को पकड़ कर गुलाम बनाने के लिए प्रयत्न करने लगे। पेरु से सात जहाज इसी प्रयोजन के लिए गये थे। उन्होंने जो पकड़ में आ गये उन 900 को कैद किया और शेष को गोली से उड़ा दिया। सन् 1877 में वहाँ स्त्री−बच्चों की आबादी मात्र 111 रह गई। तब से चिली सरकार के आधिपत्य में यह द्वीप है। वहाँ शिक्षा, चिकित्सा, शासन, उत्पादन, व्यवसाय के आधार खड़े किये गये हैं और बढ़ती हुई सुविधा के कारण आबादी बढ़ी है। यहाँ पेड़ तो कम है, पर घास बहुत होती है इसलिए भेड़ें पालने के उद्योग ने वहाँ की समृद्धि में बहुत योगदान दिया है। पीने का पानी कुछ तालाबों में ही मिलता है।

पुरातत्त्ववेत्ताओं ने इस द्वीप का इतिहास जानने के लिए जो खुदाई कराई है उसमें विनायू नामक स्थान में पाया गया आहू मन्दिर का ध्वंसावशेष बहुत महत्वपूर्ण है। उसकी कलाकृति देखते ही बनती है। निष्कर्ष निकाला गया है कि किसी समय अमेरिका में मय सभ्यता फैली हुई थी। वहाँ इनका जाति के बड़े पुरुषार्थी और बुद्धिमान लोग रहते थे। वे ही अपनी हलकी नावे लेकर यहाँ पहुँचे थे और इस प्राकृतिक सौंदर्य से भरे पूरे द्वीप में बस गये थे।

पुरातत्त्ववेत्ताओं को खुदाई में तथा गुफाओं में जो प्रमाण आधार मिले हैं उनसे स्पष्ट होता है कि चिरकाल पूर्व वहाँ सभ्य और कुशल लोग रहते थे उनकी सभ्यता, कारीगरी और साँसारिक जानकारी बढ़ी−चढ़ी थी। आहू मन्दिर के इर्द−गिर्द ऐसे प्रमाणों का बाहुल्य है। रानी रारादू की घाटी में वे विशालकाय मूर्तियाँ गढ़ी जाती थीं वहाँ से उठाकर आहू मन्दिर तक प्राण−प्रतिष्ठा के लिए लाई जाती थीं फिर उन्हें जहाँ उचित समझा जाता था वहाँ पहुँचाया जाता था। क्रेनों का आविष्कार उन दिनों तक नहीं हुआ था, फिर भी वे आदिवासी जानते थे कि स्वल्प मानवी श्रम एवं सामान्य रस्सों से किस कौशल के साथ पचास टन भारी शिला खण्डों को मीलों की दूरी तक सरलतापूर्वक कैसे पहुँचाया जा सकता है?

इस द्वीप निवासियों की प्राचीन बोली और लिखी जाने वाली भाषा ‘रगो−रगो’ रही है। उसका उल्लेख शिलाखण्डों में अब भी उपलब्ध है।

छोटा−सा ईस्टर द्वीप अपने गर्भ में छिपे इस रहस्य का उद्घाटन करता चला जा रहा है कि अमेरिका में कुछ शताब्दी पूर्व ‘इन्का’ नामक बहुत ही सुविकसित सभ्यता वाली द्वीप में जा बसे थे वहाँ की विषम परिस्थितियों में भी उनने इतनी विशालकाय मूर्तियाँ गढ़ी थीं जिनकी तुलना संसार भर में अन्यत्र कहीं नहीं है। अभावग्रस्त और कठिन परिस्थितियों में भी मानवी पौरुष और कौशल चमत्कारी सफलताएँ प्राप्त कर सकता है इस तथ्य का जीता जागता प्रमाण ईस्टर द्वीप है। ‘इन्का’ जाति अमेरिका में बसी थी, पर वह मूलतः भारत से गई थी। ‘मय’ सभ्यता विशुद्ध रूप से भारतीय सभ्यता थी।

अमेरिका और ईस्टर के ध्वंसावशेष एक और भी घोषणा करते हैं कि एक बार सफलता के उच्चस्तर पर पहुँचकर फिर निश्चित हो जाना—सुरक्षा, प्रगति के लिए अनवरत प्रयास जारी न रखना, स्वल्प सन्तोष और आलसी प्रमादी बन बैठना इतना घातक है कि प्रगतिशील लोग भी क्रमशः नीचे गिरते−गिरते दुर्गति के गर्त तक पहुँच सकते हैं। किसी समय के विश्व विजयी आज अमेरिका में पिछड़े हुए ‘रेड इण्डियन’ आदिवासी बनकर पिछड़ी स्थिति में रह रहे हैं और उन्हीं के वंशज ईस्टर द्वीप में भी अपना दयनीय अस्तित्व बनाये हुए हैं।


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