असुरता की नृशंसता में परिणति

October 1974

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मनुष्य में देवता और असुर की—शैतान और भगवान की सम्मिश्रित सत्ता है। दोनों में वह जिसे चाहे उसे गिरादे यह पूर्णतया उसकी इच्छा के ऊपर निर्भर है। विचारों के अनुसार क्रिया विनिर्मित होती है। असुरता अथवा देवत्व की बढ़ोतरी विचार क्षेत्र में होती है उसी अभिवर्धन उत्पादन के आधार पर मनुष्य दुष्कर्मों अथवा सत्कर्मों में प्रवृत्त हो जाता है। यह क्रियाएँ ही उसे उत्थान पतन के—सुख−दुख के गर्त में गिराती है।

असुरता कितनी नृशंस हो सकती है इसके छुटपुट और व्यक्तिगत उदाहरण हमें आये दिन देखने को मिलते रहते हैं। वैसी सामूहिक रूप से—बड़े पैमाने पर और मात्र सनक की पूर्ति के लिए भी किया जाता रहा है उसके उदाहरण भी कम नहीं है।

नादिरशाह जाति का गड़रिया था। डाकुओं की सरदारी करते−करते वह ईरान की गद्दी पर जा धमका। उसने दिल्ली लूटी और एक दिन में डेढ़ लाख आदमी कत्ल कराये। दिल्ली प्रायः ऊजड़ हो गई। भवन निर्माण कला के विशेषज्ञ जितने भी मिले उन सबको कैद करके वह ईरान ले गया।

जर्मनी का हिटलर नृशंसता में अपने वर्ग के सभी साथियों को पीछे छोड़ गया। उसका ख्याल था कि प्रथम महायुद्ध में जर्मनी यहूदियों के कारण ही हारा; इसलिए उसने उसका प्रतिशोध अगली पीढ़ी से जाति वध के रूप में लिया उसने लगभग 50-60 लाख यहूदियों को विषैली गैस से दम घोटकर मार डाला।

इन्हीं में एक कड़ी बँगला देश में पाकिस्तानी नृशंसता की जुड़ती है। तानाशाह याहिया खाँ के हुक्म से वूशेर कहे जाने वाले सेनापति टिक्का खाँ ने 30 लाख बंगालियों को मक्खी, मच्छरों की तरह मार डाला और प्रायः 1 करोड़ को भारत खदेड़ दिया।

चंगेज खाँ का बेटा ‘हलाकू खाँ’ भी अपने बाप की तरह निर्दय था। उसने ईरान पर चढ़ाई करके उसकी ईंट से ईंट बजादी। खलीफा को खत्म किया—इस्लामियों का सफाया किया और उस देश को खून से रंग दिया।

तैमूर लंग वलख की गद्दी पर 1359 में बैठा। उसकी निर्दयता रोमाँचकारी थी। उसने अपने शत्रुओं के रक्त और हड्डियों का गारा बनाकर कितनी ही मीनारें चिनवाई। अंकोरा के सुलतान वायजीद को उसने पकड़ा एक पिंजड़े में उसे बन्द किया और उसके अपने साथ ले गया। दिल्ली लूटा ही नहीं सारे शहर को लाशों से पाट दिया। इस तरह उसने न जाने कितने नगरों और गाँवों में कत्लेआम कराया। खड़ी फसलों और बस्तियों में आग लगाते हुए वह आगे बढ़ता था।

बारहवीं सदी का मंगोल शासक चंगेज खाँ अपने लड़ाकू साथियों सहित जहाँ भी चढ़ाई करता पहला काम कत्लेआम कराने का पूरा करता। लूट के धन से उसे जितनी खुशी होती थी उससे ज्यादा मजा उसे बिलखते चीत्कार करते नर−नारियों के सिर उड़ाने और भाले भौंकने में आता। 49 वर्ष की आयु में वह चीन का शासक बन बैठा। उसने अनेकों नगर गाँव उजाड़े। रूस का एक नगर तो उसने लाशों से इस तरह पाट दिया कि उन्हें उठाने वाला भी कोई नहीं बचा। बदबू से भयंकर बीमारी फैली यहाँ तक कि उसे स्वयं, उस नगर का कब्जा छोड़कर भागना पड़ा।

रोम का शासक नीरो 14 वीं शताब्दी में नौ वर्ष तक सिंहासनारूढ़ रहा उसने अपनी करुणामयी माता का कत्ल करवाया, अपनी पत्नी का सिर कटवा डाला, जिन अफसरों से उसकी अनबन हुई देखते−देखते उन्हें मौत के घाट उतार दिया। एकबार उचंग आई तो पूरा शहर ही जलवा कर खाक करा दिया और उस दृश्य एक अच्छे−खासे मनोरंजन के रूप में ऊँची पहाड़ी पर बैठा देखता रहा। उस सर्वनाश का मजा उसने वंसरी बजाते हुए लूटा।

मृतात्माओं को सुख−सुविधा पहुँचाने के विचार से उनके हितैषी यह प्रयत्न करते थे कि परलोक में उपलब्ध रहने की दृष्टि से उनके मृत शरीर के साथ उपयोगी वस्तुएँ भी—गाड़ी या जलाई जाँय। भारत में मृतक की जीवित पत्नी को मृत शरीर के साथ जलने की प्रथा रही है जिसमें यह सोचा जाता था कि जीवित पत्नी अपने पति के साथ जलकर परलोक में उसकी सेवा करती रह सकेगी।

मिस्र में यह प्रथा सत्ताधीशों के मृत शरीर को परलोक में अधिक सुखी बनाये रखने की दृष्टि से विशालकाय ‘पिरामिड’ स्मारक बनाये गये और उनके भीतर सुख−सुविधा के अनेकानेक साधन रखने का प्रचलन किया गया।

यह तथ्य बताते हैं कि मनुष्य अपने प्रियजनों की सुविधा के लिए अनेकों निरीहों का किस प्रकार और किस हद तक उत्पीड़न कर सकता है।

रोडेशिया में जब सीथियस सभ्यता का बोलबाला था तब राजा की अन्त्येष्टि बहुत शान से होती थी। उसकी लाश में से आँतें निकालकर मसाला भरा जाता था ताकि शरीर बहुत समय तक सड़े नहीं, उसे सुसज्जित रथ में रखकर देश भर में घुमाया जाता था ताकि प्रजाजन उसका दर्शन कर सकें। प्रजा इस मृतक के लिए धन भेंट करती थी और कान का थोड़ा सा टुकड़ा काट कर बलि प्रतीक के रूप में रखना पड़ता था। सभी प्रजाजन मुण्डन कराते थे और समाधि बनाने में श्रमदान करते थे।

इतिहासकार हेकोडोटस ने लिखा है राजा के शव के साथ अन्तःपुर की रानियों में से कम से कम एक को गला घोंटकर मार डाला जाता था और उसे साथ ही दफन किया जाता था। पचास घोड़े तथा पचास सेवक भी मारकर गाढ़े जाते थे ताकि वे परलोक में वाहन एवं सेवकों की आवश्यकता पूरी कर सकें।

तुर्क तातार सरदारों की अन्त्येष्टि और भी भयंकर थी। शवयात्रा लम्बी होती थी और उस रास्ते में जो भी मिल जाता उसे यह कहकर कत्ल कर दिया जाता था कि—”जाओ परलोक में अपने स्वामी की सेवा करना।”

इतिहासकार मार्कोपोलो ने एक सरदार मँगूखाँ की शवयात्रा का वर्णन किया है जिसमें सामने पड़ने वाले 20 हजार व्यक्तियों का कत्ल किया गया था।

वर्तमान रूस के कृष्ण सागर तटवर्ती इलाके में वोल्गा, यूराल, दोन, तथा रुमानिया, हंगरी, बालगेरिया, साइबेरिया क्षेत्रों में ऐसी अनेक कब्रें मिली है जिनकी खुदाई में न केवल स्वर्ण जटित रत्न आभूषण मिले हैं, वरन् मनुष्यों एवं पशुओं के कंकाल भी मिले हैं। समझा गया है कि सत्ताधीशों अथवा श्रीमन्तों को परलोक में सुख−सुविधाएँ पहुँचाने की दृष्टि से ही यह वस्तुएँ तथा प्राणी दफनाये गये हैं। यह मकबरे ईसा से 6 शताब्दी पूर्व से लेकर ईसा की तीसरी सदी तक नौ सौ वर्ष की अवधि के बीच के माने गये हैं।

मिश्र के पिरामिडों में यह प्रचलन चरमसीमा तक पहुँचा हुआ सिद्ध होता है जहाँ रानियाँ, दास−दासियाँ, वाहन, वस्त्र, आभूषण आदि अनेकानेक सुख−साधन बहुत बड़ी मात्रा में तथा बड़े सुसज्जित ढंग से मृतक राजाओं के साथ दफनाये गये हैं।

मनुष्य के भीतर छिपी हुई असुरता अनेक आवरणों में होकर झाँकी है। लोभी से प्रेरित होकर वह चोरी, डकैती, जालसाजी, बेईमानी, रिश्वत आदि का रूप धारण करती है। अहंकार और आतंक का दर्प लेकर वह उत्पीड़न, शोषण, हत्या आदि क्रूर कर्मों में बदल जाती है। अन्ध−विश्वासी सनकों का सहारा पाकर वह पशुबलि—सती प्रथा मृतक प्रियजनों के लिए निरीह निर्दोषों का प्राण हरण करने के रूप में सामने आती है। संकीर्ण स्वार्थपरता के साथ मिलकर वह विलासिता संग्रहशीलता और शाही ठाठ−बाट बनाने की विडम्बना बन जाती है। असुरता किसी भी झरोखे से झाँके आखिर वह मनुष्य जाति के लिए अभिशाप जैसे संकट ही उत्पन्न करेगी।


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