देश की सम्पत्ति (kahani)

October 1974

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गाँधीजी के सामने डाक का ढेर लगा था। वह आये हुए प्रत्येक पत्र को ध्यान से पढ़ते जाते और जो हिस्सा कोरा होता उसे कैंची से काट कर अलग रख लेते। एक सज्जन वहीं पास में बैठे थे और बहुत देर से गाँधीजी की कतरनी देख रहे थे। उन्होंने बहुत आश्चर्य से पूछा—’मैं यह जानना चाहता हूँ कि आप इन कतरनों को एक ओर एकत्रित कर क्यों रखते जा रहे हैं? इनका क्या उपयोग है?’

‘मुझे जब पत्रों के उत्तर देने होते हैं तब में इन्हीं कतरनों का उपयोग करता हूँ। यदि ऐसा न करूं तो यह कागज बेकार हो जायेंगे और इससे दो प्रकार की हानियाँ होंगी, एक तो अनावश्यक खर्च में वृद्धि हो जायेगी और दूसरे राष्ट्रीय सम्पत्ति नष्ट होगी। किसी देश में जितनी वस्तुएँ होती हैं वह सब उस देश की सम्पत्ति मानी जानी चाहिए। हमारा देश निर्धन है। ऐसी स्थिति में हमें धन का दुरुपयोग न करना चाहिए।’


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