सूर्य के शक्ति भण्डार का स्वास्थ्यवर्धक सदुपयोग

October 1974

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ऋग्वेद में ‘सूर्य को जगत की आत्मा’ कहा गया है वस्तुतः इस संसार में जो कुछ भी विकास−क्रम चल रहा है—हलचलें दृष्टिगोचर हो रही है उस सबका उद्गम शक्ति स्रोत सूर्य ही है। यदि उसका अस्तित्व न होता तो हमारी धरती एक अन्धकार मग्न शीतल, निस्तब्ध, निर्जीव पिण्ड के अतिरिक्त और कुछ न होती।

संसार की अनेकानेक आवश्यकताओं की पूर्ति के अतिरिक्त सूर्य मनुष्य का आरोग्य भी प्रदान करता है। शास्त्र वचन है—’आरोग्य भास्करादिच्छेत्’ आरोग्य की सूर्य से याचना करें। सूर्य संपर्क में रहने से आरोग्य सुरक्षित रखा जा सकता है और रोगों के उपद्रवों को भी सूर्य किरणों की महाशक्ति के सहारे दूर किया जा सकता है।

गाय घास को दूध में परिणत करती है यह जटिल रासायनिक परिवर्तन के द्वारा सम्पन्न होता है। पौधे पानी में रहने वाले हाइड्रोजन तत्व को अपने भीतर खींचने के लिए जिस शक्ति का उपयोग करते हैं उसे वैज्ञानिक की भाषा में ‘एल्कोट्रोमैगनेटिक’ कहते हैं। इसी शक्ति के द्वारा वे हवा में से कार्बन डाइ आक्साइड खींचते हैं। इन जल एवं वायु द्वारा खींचे गये तत्वों का संयुक्त रूप ‘कार्बोहाइड्रेट’ कहलाता है। वनस्पति शास्त्र में इस प्रक्रिया की व्याख्या ‘फोटोसिनथिसिस’ के रूप में की जाती है।

मनुष्य भी इसी प्रकार अन्न, शाक, फल आदि खाद्य−पदार्थों के माध्यम से अपने में रक्त माँस जैसे पदार्थ उत्पन्न करता है और उनके सहारे विभिन्न प्रकार के श्रम उद्योग करने की क्षमता प्राप्त करता है।

प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि यह शक्ति पशुओं, पौधों और मनुष्यों में आती कहाँ से है? इसका उद्गम केन्द्र कहाँ है? निर्जीव पदार्थों में भी जो अणु−परमाणु होते हैं वे भी द्रुतगति से एक क्रम व्यवस्था के साथ हरकत में संलग्न रहते हैं। आखिर उन्हें इस कार्य संचालन के लिए आवश्यक शक्ति कहाँ से प्राप्त होती है? जब सभी प्रकार के यन्त्रों और औजारों को चलाने में शक्ति की व्यवस्था करनी पड़ती है तो यह सारा जड़−चेतन विश्व जिस अनवरत क्रिया−कलाप में संलग्न है आखिर उसके लिए भी तो कोई शक्ति स्रोत होना ही चाहिए।

धरती पर विद्यमान ठोस, प्रवाही एवं वाष्प रूप पदार्थों में विभिन्न प्रकार की शक्तियाँ भरी पड़ी हैं जिन्हें अद्भुत और असाधारण कह सकते हैं। पोते आकाश को भी खाली नहीं समझा जाना चाहिए। दृश्य जगत की अपेक्षा अदृश्य जगत में भरा हुआ शक्ति भण्डार और भी अधिक सामर्थ्यवान है। रेडियो तरंगें उसी में परिभ्रमण करती हैं। प्रकाश, ऊष्मा, शब्द आदि के रूप में पाई जाने वाली शक्तियाँ के असंख्य स्तर और प्रकार हैं यह सारा शक्ति परिवार आकाश क्षेत्र में प्रचुर परिमाण में भरा पड़ा है। वही प्रश्न यहाँ भी है कि इस शक्ति विस्तार का मूल स्रोत आखिर है कहाँ?

अनुसंधानों ने बताया है कि इस धरती के प्रत्येक कण एवं क्षेत्र में पाई जाने वाली शक्तियों का उद्गम केन्द्र सूर्य है। उसकी गुलाबी, नीली, हरी, पीला, नारंगी, लाल दिखने वाली किरणें वस्तुतः शक्ति तरंगें ही हैं जो विभिन्न स्तर के उपहार लेकर इस धरती के प्राणियों एवं पदार्थों को देने के लिए अनवरत रूप से अन्तरिक्ष को चीरती हुई द्रुतगति से आती रहती है।

अल्फा, बीटा, गामा किरणों की ‘चमत्कारी परतें जैसे−जैसे खुलती जाती हैं वैसे−वैसे विदित होता जा रहा है, इन स्रोतों में सर्वशक्ति मान बनने के साधन मौजूद हैं। अल्ट्रावायलेट और इन्फ्रारेड किरणों का जो थोड़ा बहुत उपयोग जाना जा सकता है उसी ने मनुष्य का मदान्ध कर दिया है आगे जो परतें खुलने वाली हैं वे अप्रत्याशित है उनकी सम्भावनाओं का विचार करने पर मस्तिष्क जादुई तिलस्म के लोक में उड़ने लगता है।

सूर्य के शक्ति प्रवाह में पदार्थों के साथ पहला स्पर्श करने का श्रेय अल्ट्रा वायलेट किरणों को है। यह स्पर्श जहाँ होता है वहाँ चमत्कारी उपलब्धियाँ उत्पन्न होती हैं। खाद्य−पदार्थों को ही लें उनकी ऊपरी परत का सूर्य किरणों से अधिक संपर्क रहता है। फल, शाक, अन्न आदि का ऊपरी भाग जिसे चोकर या छिलका कहते हैं सूर्य प्रकाश के अधिक संपर्क में रहता है अस्तु उसमें अन्य उपयोगी तत्वों के साथ−साथ विटामिन ‘डी’ विशेष रूप से पाया जाता है। कैल्शियम एवं फास्फोरस जैसे तत्वों को खाद्य−पदार्थों में से खींचना और शरीर के अंग−प्रत्यंगों में उन्हें घुलाकर स्थिर बना देना यह विटामिन डी का ही काम है।

वर्षा के दिनों में जबकि सूर्य बादलों से जिस क्षेत्र में ढका रहता है उस क्षेत्र में तरह−तरह की छोटी−बड़ी दबी−ढकी बीमारियाँ सिर उठाती हैं, कारण कि उनका प्रतिरोधी तत्व सूर्य स्पर्श प्रभावहीन हो जाता है। रात्रि में हम थके माँदे सो जाते हैं—काम करने का जी नहीं करता इसका बड़ा कारण यही है—सौर उत्तेजना से हमारे क्रियातन्तु प्रेरणा लेना बन्द कर देते हैं और शिथिलता, निष्क्रियता धर दबोचती है।

डा.फोर्व्सविंसलो ने अपने ग्रन्थ ‘लाइट, इट्ज इन्फ्लुएन्स आन लाइफ एण्ड हैल्थ’ में इस बात पर जोर दिया है कि लोग बन्द मकानों में रहना और मोटे परिधानों से ढके रहना छोड़े अन्यथा निरोगता उन्हें छोड़ती चली जायगी।

संसार के अन्यान्य प्रकृति विशेषज्ञों ने भी उपेक्षित सूर्य रश्मियों के गुणकारी प्रभाव के सम्बन्ध में जन−साधारण का ध्यान आकर्षित किया है और कहा है कि सूर्य किरणों के रूप में मिलने वाले बहुमूल्य प्रकृति वरदान की अवज्ञा न करे। इस दिशा में अधिक शोध कार्य करने वाले विज्ञानियों में डा. जेम्स कुक, ए. वी.गारडेन, वेनिट, फ्रेंकक्रेन, एफ.जी.वेल्स, जेम्स जेबसन आदि के नाम अग्रिम पंक्ति में रखे जा सकते है।

प्रातःकालीन सूर्य रश्मियों में ‘अल्ट्रा वायलेट तत्व की समुचित मात्रा रहती है जैसे−जैसे धूप चढ़ती जाती है लाल रंग की किरणें बढ़ती हैं उनमें अधिक गर्मी पैदा करने का गुण है। प्रातःकालीन सूर्य किरणों को नंगे शरीर पर लने का महत्व शारीरिक और धार्मिक दोनों ही दृष्टि से माना गया है। प्रातःकालीन वायु में टहलना भी इसीलिए अधिक उपयोगी माना गया है कि उस समय सूर्यदेव द्वारा निसृत अल्ट्रा वायलेट किरणों के साथ जितना संपर्क स्थापित किया जा सकता है और जितना लाभ लिया जा सकता है वैसा अवसर फिर चौबीस घण्टे में कभी भी नहीं आता।

डा. वरनर मेकफेडन, वेनिडिकट लस्ट, स्टेनली लीक आदि प्रकृति विज्ञानी प्रभातकालीन सूर्य किरणों के सेवन पर बहुत जोर देते रहे हैं। इन किरणों में विटामिन डी विटामिन बी और विटामिन ए की प्रचुर मात्रा शरीर को प्रदान करने की शक्ति है। बलवर्धक टॉनिकों की अपेक्षा यह किरणें कहीं अधिक शक्ति शाली एवं निश्चित परिणाम उत्पन्न करने वाली हैं।

स्विट्जरलैंड के सूर्य रश्मियों से चिकित्सा करने में निष्णात डा. रोलियर ने सर्वसाधारण को अधिक कपड़े पहनकर सूर्य रश्मियों का द्वार बन्द रखने की आदत छोड़ने का परामर्श दिया है। वे कहते हैं बन्द कमरों में जहाँ सूर्य किरणें नहीं पहुँचती वहीं बीमारियाँ पहुँचती है। इसी प्रकार यदि शरीर को ढके रहेंगे तो प्रकृति के एक बड़े वरदान से वंचित रहना पड़ेगा। रक्त में पाया जाने वाला ‘हेमो ग्लोबिन’ तो सन्तुलित स्थिति में सूर्य किरणों का सहारा पाकर ही रहता है। पौधों को खुली धूप से वंचित रखें और उन्हें किसी परिधान से ढका रहने दें तो कुछ ही समय में वे पीले पड़ जायेंगे, मुरझा जायेंगे और अन्ततः अविकसित रह कर मर जायेंगे। जो प्रभाव सूर्य शक्ति से विलग रहने पर पौधों पर होता है वही दुर्गति हमारे शरीर की भी होती है।

भूगोल पर दृष्टि डालने से यह तथ्य अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है कि जिन देशों या द्वीपों में सूर्य किरणों का अधिक लाभ मिलता है, उनकी स्वास्थ्य सम्बन्धी स्थिति उनकी तुलना में कहीं अच्छी है जिन्हें सूर्य किरणों का अवरोध रहता है।

सूर्य किरणों को दो भागों में विभक्त कर सकते हैं एक वे जो दिखती, चमकती हैं—सातों रंग इन्हीं में होते हैं। दूसरी जो दिखती नहीं किन्तु रासायनिक दृष्टि से इनका बहुत महत्व होता है उन्हें अल्ट्रा वायलेट किरणें कहते हैं। इन्फ्रारेड किरणों का अपना अलग ही महत्व है। वे शरीर को गरम करती हैं जब गर्मी रहती है तभी अल्ट्रा वायलेट किरणों का असर होता है। इनकी कीटाणु नाशक शक्ति प्रख्यात है।

धूलि, धुँआ, नमी, कपड़े आदि के व्यवधानों से यह उपयोगी अदृश्य किरणें रुकती हैं और अपना प्रभाव समुचित रूप से शरीर को प्रदान नहीं कर पातीं। शुद्ध वायु मण्डल के पहाड़ी तथा वन्य प्रदेशों में रहने वाले इन उपयोगी किरणों का समुचित लाभ उठाते हैं क्योंकि वहाँ वायु दूषण अथवा अन्य प्रकार की रुकावटें नहीं होतीं। कम से कम और ढीले वस्त्र पहनने की नीति इसीलिए उत्तम है कि इस प्रकार शरीर को सूर्य प्रभाव से अधिक लाभान्वित होने का अवसर मिल जाता है। प्रभातकालीन सूर्य की किरणें यदि खुले शरीर पर नियमित रूप से ग्रहण की जाती रहें तो उनसे त्वचा पर विटामिन डी की परत जमती है और वह शरीर में भीतर प्रवेश करके रोग निवारक एवं बलवर्धक प्रतिक्रिया उत्पन्न करती है।

सूर्य को शक्ति का भण्डार माना गया है। प्राणियों में जीवनी शक्ति और पदार्थों में क्रिया शक्ति का उद्भव सूर्य द्वारा दिये गये अनुदानों के आधार पर ही सम्भव होता है।

यों सूर्य सफेद रंग का दिखता है और उसकी किरणें भी उजली ही लगती है, पर वस्तुतः उनमें सात रंगों का सम्मिश्रण होता है। वे परस्पर मिलकर तो अनगिनत संख्या में हल्के गहरे रंगों का निर्माण करती हैं। हर किरण की अपनी विशेषता है। किसी पदार्थ पर किस किरण का कितना प्रभाव पड़ा इसका परिचय उसके रंग को देखकर प्राप्त किया जा सकता है। विभिन्न वस्तुओं के विभिन्न प्रकार के रंग दृष्टिगोचर होते हैं यह अकारण ही नहीं है। उन पदार्थों ने अपनी विशेषताओं के कारण सूर्य शक्ति की अमुक किरणों को विशेष रूप से आकर्षित एवं संचित किया है; फलस्वरूप उनका वह रंग बना है जिसे हमारी आँखें देखती पहचानती हैं।

रंगों को उपयोग मात्र उनकी पहचान करने तक सीमित नहीं है, वरन् उन्हें देखने से उस विशेषता की सहज उपलब्धि हमें होती है जो सूर्य शक्ति से उन पदार्थों ने अपने भीतर जमा की है। हरियाली को ही लें। पेड़−पौधे, घास−पात हरे रंग के होते हैं। उन्हें देखने से आँखों को प्रसन्नता मिलती है। गर्मी के दिनों में हरियाली के समीप पहुँचने पर जी प्रसन्न होता है। यह अकारण ही नहीं है। हरे रंग में वह गुण है जिससे गर्मी के आतप का समाधान हो सके।

सर्दियों में आग की गर्मी से दूर रहने पर भी उसकी दूरवर्ती सिन्दूरी आभा मन पर गरम प्रभाव डालती है, ठण्ड से बचने में उसका दर्शन भी बहुत राहत पहुँचाता है। आग के निकट पहुँचकर उसकी गर्मी का लाभ तो मिलता ही है; उसका सिन्दूरी रंग भी कम उत्साह उत्पन्न नहीं करता सिन्दूरी रंग में सूर्य की ऊष्मा का बाहुल्य अनुभव होता है।

बच्चों के अंग−प्रत्यंगों पर कोमलता सूचक आभा, किशोरों के कपोलों का गुलाबीपन, वृद्धावस्था में त्वचा का बदलता हुआ चाकलेटीपन यह बताता है कि प्रकृति उन्हें किन उपहारों से लाद रही है अथवा क्या−क्या वापिस लेकर उसकी जगह पर क्या स्थानान्तरण कर रहीं है। सौंदर्य और कुरूपता का बहुत कुछ लेखाजोखा इसी आधार पर मिलता जाता है।

अमेरिकी डाक्टर अर्नेस्ट ने मानव शरीर के विभिन्न अंगों में घटते−बढ़ते रंगों को देखकर उसकी आन्तरिक स्थिति जानने का विज्ञान विकसित किया है। कनाडा के डाक्टर सेलिट ने भी इस संदर्भ में लम्बी खोज की है और रोगियों की त्वचा, आँखें, नाखून, जीभ, मल−मूत्र आदि का रंग देखने भर से यह जानने में सफलता प्राप्त की है कि उनकी आन्तरिक स्थिति क्या है और किस रोग ने उन्हें किस हद तक जकड़ रखा है।

जिस प्रकार एलोपैथी में कीटाणु परीक्षण, होम्योपैथी में विष विस्तार, आयुर्वेद में त्रिदोष परिचय वायोकैमी में लवण विश्लेषण को आधार माना गया है, उसी प्रकार रंग विज्ञान को क्रोमोपैथी नाम दिया गया है। इस विद्या का विस्तार और अन्वेषण क्रमशः अधिक तत्परतापूर्वक हो रहा है। किस रंग की कमी किस रोगी के शरीर में है और उसके लिए उसी रंग की किरणों का—उससे प्रभावित पदार्थों का सेवन संपर्क कराया जाय, इस सम्बन्ध में जितने प्रयोग हुए हैं उनसे उत्साहवर्धक परिणाम सामने आये हैं।

वस्त्रों को रंगना, दीवारों को पेन्टों से पोतना, खिड़कियों में पर्दे लगाना, आँखों पर रंगीन चश्मा पहनना, खाद्य पदार्थों में अभीष्ट रंग की वस्तुओं का चयन करना तथा रंगीन काँच के नीचे रुग्ण स्थान को रखकर उस पर उसी रंग की सूर्य किरणें पड़ने देना जैसे उपचारों को इस विज्ञान में प्रमुखता दी गई है। ऐसे कमरे बनाये गये हैं जिनकी छतों एवं खिड़कियों में रोगी की स्थिति के अनुरूप रंगीन काँच बदल दिये जाते हैं फलतः सारे कमरे में उसी रंग की धूप आती है जिसकी कि रोगी के शरीर में कमी पड़ रही थी। यदि रंगों की न्यूनाधिकता का निदान सही हो सकता तो इस उपचार से रोग निवृत्ति में आश्चर्यजनक सफलता मिलती है।

एक वर्ष अमेरिका के एक क्षेत्र में पानी कम बरसा, पशुओं को हरी घास न मिल सकी। पिछले वर्ष की सूखी घास उन्हें दी गई तो वे देखने भर से उसे खाने में आनाकानी करने लगे इस पर उनकी आँखों पर हरे रंग के चश्मे चढ़ा दिये गये। अस उन्हें वह सूखी पीली घास हरी दीखने लगी और मजे−मजे में खाने लगे। गर्मी की ऋतु में हरे और नीले चश्मे पहनकर कड़ी धूप में हम निकलते हैं और उतनी गर्मी अनुभव नहीं करते। इसे रंगों का चमत्कार ही कह सकते हैं। कमरों की दीवारें हलके हरे या नीले रंग मिले चूने से पोती जाने का रिवाज है इससे आँखों को राहत मिलती है। यदि गहरा लाल या काला रंग पोत दिया जाय तो वे ही दीवारें न केवल डरावनी मालूम पड़ेंगी वरन् वहाँ रहने वालों को बुरे सपने लाने से लेकर स्वभाव में चिड़चिड़ापन उत्पन्न होने तक के अनेक विकार उत्पन्न करेंगी।

पीला रंग पाचक, नीला शीतल शान्तिदायक, लाल ऊष्मा प्रधान गरम माना गया है। यह तीन रंग मुख्य हैं इन्हीं के सम्मिश्रण से अन्य हलके भारी रंग बनते हैं। शरीर की स्थिति एवं आवश्यकतानुसार रंगीन काँचों में छानकर रुग्ण अंग पर उसी रंग की सूर्य किरणें ली जा सकती हैं।

सामान्यतया सूर्य के संपर्क में रहना ही अच्छा है। असह्य तेज धूप में फिरने की तो आवश्यकता नहीं है, पर अपना निवास एवं कार्य क्षेत्र ऐसे स्थानों में ही रखना चाहिए जहाँ सूर्य किरणों का उन्मुक्त आवागमन होता रहे। खुली वायु और सूर्य किरणों के संपर्क में रहकर हम पौष्टिक भोजन जितना ही आरोग्य लाभ कर सकते हैं।


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