मानवी काया काँच की नहीं-अष्ट धातु से बनी है।

March 1972

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सन् 65 की घटना है। अमेरिका का एक हवाई जहाज समुद्र पर ऊपर उड़ते हुए, आग लगने के कारण जल गया। पायलट समुद्र में कूद पड़ा। उसे बहुत चोट लगी। फिर भी वह तैरता रहा और लगातार 40 घण्टे से अधिक परिश्रम के बाद वह किनारे पर पहुँचा। बुखार, निमोनिया, भूख, थकान, दर्द, चोट से पीड़ित बदहवासी की स्थिति में उसे अस्पताल पहुँचाया गया। हालत इतनी गम्भीर थी कि डॉक्टर उसके अब तक बचे रहने पर आश्चर्य करते रहे।

पायलट मरा नहीं, उसकी जीवनी शक्ति ने उसका साथ दिया और वह धीरे-धीरे अच्छा होता चला गया।

पोर्टलैण्ड में एक आठ वर्षीय बालक सड़क कूटने वाले तीन टन भारी इंजन के नीचे आ गया। उसकी कमर से नीचे का भाग बुरी तरह पिस गया। किसी को उसके बचने की आशा न थी, पर जीवनी शक्ति ने काम किया और एक वर्ष तक अस्पताल में रहकर वह अच्छा हो गया पैर चलने लायक तो न हो सके पर जीवन रक्षा तो हो ही गई।

न्यूयार्क की पन्द्रह मंजिल ऊँची इमारत से एक दो वर्ष का नन्हा टामी पेइवा गिरा। उसकी हड्डियाँ टूट गई फिर भी वह मरा नहीं।

कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के भौतिकी प्राध्यापक डॉक्टर क्रेग टेलर ने स्वयं अपने ऊपर प्रयोग करके यह सिद्ध किया कि संसार के सबसे अधिक गरम क्षेत्र में रह कर भी औसत स्वास्थ्य वाला आदमी 100 दिन तक जी सकता है। यदि स्नायु संस्थान अपेक्षाकृत अधिक समर्थ हों तो 200 दिन तक जिया जा सकता है। आमतौर से अत्यधिक गर्मी वाले स्थान के बारे में अब तक यह मान्यता प्रचलित है कि वहाँ कोई 24 घण्टे से अधिक नहीं जी सकता। डॉक्टर टेलर ने 220 डिग्री तक की गर्मी देर तक सहन करके दिखाई और वे 250 डिग्री तापमान को भी 14 मिनट तक सहन करने में सफल रहे।

कितना शीत मनुष्य शरीर सह सकता है इसका परीक्षण मेजर डोनमल्ड ने बर्फीले पानी की शीत एक घण्टे तक सह कर दिखाया। वे कहते हैं यदि शीत रक्षक सूट पहन रखा हो तो, शीत से मृत्यु नहीं हो सकती।

इंग्लैण्ड का एक विमान चालक टेड ग्रीन वे को, द्वितीय महायुद्ध के दौरान विपत्ति में फँस गया। उसके दो और साथी भी थे। भयंकर शीत प्रदेश के बर्फीले प्रदेश में उसे भूखे-प्यासे 10 दिन गुजारने पड़े। कपड़े भी गरम न थे। इतनी विपत्ति का सामना करते हुए उस प्रदेश को पास करते हुए वे लोग बच सकने की स्थिति में पहुँचे।

अमेरिका के युद्ध रोमाञ्च इतिहास में यह घटना जुड़ी हुई है कि उसकी एक सैनिक टुकड़ी ग्रीनलैण्ड के बर्फ से ढके क्षेत्र में फँस गई और नितान्त सादे कपड़े, 88 दिन बिताकर बाहर आ सकने में सफल हुई। 10 दिन तो उस टुकड़ी को बिना भोजन के रहना पड़ा।

मनुष्य के शरीर का तापमान 98.6 डिग्री होता है। यदि वह 19 डिग्री घट जाय अर्थात् 79 के करीब रह जाय तो जीवन संकट उत्पन्न हो जायगा। इसी तरह 9 डिग्री बढ़ जाय अर्थात् तापमान 107 डिग्री पर जा पहुँचे तो मृत्यु हो जायगी। बुखार में तापमान अधिक न बढ़ने पाये इससे इसके लिए डॉक्टर सिर पर बर्फ रखते हैं। इस प्रतिपादन को झुठलाने वाली नर्स है जिसने 110 डिग्री बुखार से कई दिनों तक लड़ाई लड़ी और आखिर वह अच्छी हो गई। डॉक्टर कह चुके थे कि इसका बचना सम्भव नहीं। यदि बच भी गई तो इतनी गर्मी उसके दिमाग को विक्षिप्त अवश्य कर देगी। पर नर्स ने न मौत को अपने पास फटकने दिया न पागलपन को। अमेरिका के ब्रकुलिंस पुशावक नामक अस्पताल की इस नर्स ने मानवी जीवनी शक्ति को मृत्युञ्जयी सिद्ध करते हुए नया प्रतिपादन प्रस्तुत किया कि मृत्यु से जीवन अधिक सामर्थ्यवान है।

आयरिश स्वाधीनता यज्ञ के उद्गाता टेरेन्स मेकस्विनी ने जेल में अनशन किया और तिहत्तर दिन तक निराहार रहकर मौत से जूझते रहे। भारतीय स्वाधीनता के सेनानी यतीन्द्रनाथ दास बिना आहार किये 68 दिन की लम्बी अवधि तक मौत से लड़ते रहे।

आपरेशनों के दरम्यान कितने ही लोगों का एक फेफड़ा, एक गुर्दा, जिगर का एक भाग, आँतों का बड़ा भाग आदि काट कर अलग कर दिये जाते हैं पर जो शेष बचा रहता है उतने से ही शरीर अपना काम चलाता रहता है और जीवित रहता है।

सामान्य मनुष्य शरीर का तापमान 36.6 अंश शताँश होता है। खून में शक्कर की मात्रा 0.1 होती है। रक्त चाप साधारण स्थिति में 100-140 मिली मीटर - मर्कयुरी कीलम - रहता है।

यह 36.6 तापमान भीतर के अवयवों का ही होता है। ठण्ड के दिनों में हाथ पैरों का ताप तो 33 से भी कम रहता है। फिर भी सारा कार्य यथावत चलता रहता है। पर इससे अधिक भीतरी गर्मी नहीं गिरनी चाहिए और वह 45 से आगे भी नहीं बढ़नी चाहिए। अन्यथा जीवन संकट उत्पन्न हो जायगा।

परिस्थितिवश यदि ताप घटता-बढ़ता है तो उसका नियंत्रण करने के लिए शरीर के भीतर ही हीटर एवं कूलर जैसी व्यवस्था मौजूद है। अपना सचेतन नाड़ी संस्थान तापमान को सन्तुलित रखने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहता है। माँस पेशियाँ ऊष्मा उत्पन्न करने का काम करती हैं। उन्हीं में ऊष्मा बनती, पकती और बढ़ती है। इनके अतिरिक्त हृदय, फुफ्फुस, वृक्क, यकृत, आंतें आदि अंग भी एक प्रकार से भट्टी की तरह जलते और गर्मी पैदा करते हैं।

शरीर दिन-रात में 160 से लेकर 180 लाख कैलोरी ऊष्मा नित्य बाहर फेंकने का क्रम चलाता है। बिजली के घरेलू हीटर भी प्रायः इतना ही ताप उत्पन्न करते हैं। जब कभी गर्मी कम पड़ती है-तो ठण्ड लगने लगती है। दाँत किटकिटाते हैं, अंग काँपते है, यह अतिरिक्त क्रियाकलाप प्रकृति द्वारा अतिरिक्त गर्मी उत्पन्न करने के लिए घर्षणात्मक हलचल पैदा करने के लिए आरम्भ किया जाता है।

हमारा रक्त एक अच्छा ऊष्मा वाहक है। ताप को एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजने के लिए रक्त संचार पद्धति की द्रुतगामिता ही अभीष्ट प्रयोजन पूरा करती है। यह रक्त दौड़ता न हो तो गर्मी जहाँ बनती है वहीं बनी रहती। ताप उत्पन्न करने वाले अवयव जलने लगते और शेष को शीत निवारण कठिन पड़ जाता। रक्त दौड़ने का ही काम नहीं करता वह स्वयं गर्मी भी पैदा करता और गरम भी रहता है। उसकी यह विशेषता हीटर और कूलर के दोनों प्रयोजन पूरे करती है। जब देह को गर्मी लगती है तो रक्त की दौड़ शरीर से गर्मी बाहर फेंकने लग जाती है और जब ठण्ड प्रतीत होती है तो यह गर्मी में पसीना निकलना शीतलता उत्पन्न करता है। शीत में ताप सञ्चय का क्रम चलता है और अपना रक्त ही आवश्यक गर्मी की व्यवस्था बना देता है।

शरीर का ऊष्मा सञ्चालन केन्द्र मस्तिष्क नहीं वरन् रीढ़ की हड्डी के ऊपर मस्तिष्क के नीचे स्थित है। यह स्व संचालित है। रक्त निरन्तर इसके चारों और बहता रहता है। रक्त प्रवाह का नियंत्रण भी यहीं से होता है। किस अंग को कितना रक्त आवश्यक है उसका लेखा जोखा और वितरण प्रबन्ध करना इसी केन्द्र का काम है। बाहरी सर्दी-गर्मी बढ़ने पर यह ताप नियन्त्रण केन्द्र विशेष रूप से सक्रिय होता है और परिस्थिति के अनुरूप अपने को ढालकर सारे शरीर की स्थिति ऐसी बना देता है जिसके आधार पर शीत ताप की घट-बढ़ का सामना किया जा सके। सारे शरीर में फैले हुए - त्वचा के साथ गुँथे हुए - पतले रेशों जैसे सचेतन ज्ञान तन्तु-इस केन्द्र को शीत ताप की स्थिति की जानकारी निरन्तर पहुँचाते रहते हैं। वह निर्णय करता है कि परिस्थिति का सामना करने के लिए किस अवयव को क्या करना चाहिए। इसका निर्देश सेना सञ्चालक की तरह होता है जिसे अवयव तत्काल शिरोधार्य करते हैं। सचेतन मस्तिष्क को अन्तरंग की इस महत्वपूर्ण प्रक्रिया का पता भी नहीं चलता पर अचेतन निरन्तर वह व्यवस्था जुटाता रहता है जिससे जीवन सञ्चार की सारी गतिविधियाँ भली प्रकार सम्पन्न होती रहें।

यह ऊष्मा सञ्चालक नाड़ी संस्थान इतना संवेदनशील है कि डॉक्टर लोग आपरेशन के समय रीढ़ की हड्डी में सुई लगाकर इसे किञ्चित अचेत कर देते हैं बस बात की बात में देह सुन्न हो जाती है। प्रयोगशालाओं में इस केन्द्र की छेड़छाड़ से कैसी जादू जैसी प्रतिक्रियायें हो सकती हैं यह दिखाया जाता है। किसी पशु का यह केन्द्र विद्युत सञ्चार करके तनिक सा उत्तेजित कर दिया जाय तो वह घोर शीत की स्थिति में भी गर्मी से व्याकुल हो उठेगा। इसके विपरीत यदि प्रचण्ड गर्मी की स्थिति में उस केन्द्र को शिथिल कर दिया जाय तो प्राणी ठण्ड से काँपने लगेगा।

मनुष्य शरीर सामर्थ्यों का पुञ्ज है। उसमें प्रगति की समस्त सम्भावनायें विद्यमान हैं। यदि उन शक्ति स्रोतों को समझ लिया जाय और प्रयत्नपूर्वक आत्मोन्नति के लिए कटिबद्ध हुआ जाय तो प्रतीत होगा कि प्रगति के लिए आवश्यक वे सभी विशेषतायें अपने भीतर विद्यमान हैं जिनका पहले अभाव प्रतीत होता था।

विचारशील लोग प्रगति के साधन बाहर नहीं ढूंढ़ते वरन् भीतर खोजते हैं। उनके दोष, दुर्गुण सुधारते हैं और अस्त-व्यस्त स्वभाव एवं समय क्रम को इस प्रकार क्रम बद्ध करते हैं कि अभीष्ट दिशा में बढ़ चलने का सहज ही पथ-प्रशस्त होता चला जाय। भाग्योदय की समस्त सम्भावना मनुष्य के परिष्कृत व्यक्तित्व में सन्निहित रहती हैं। जिसने इस तथ्य की वास्तविकता समझ ली उसे सबसे पहले अपने को सँभालने, सुधारने पर ध्यान करना पड़ता है।

जहाँ प्रगति की अगणित सम्भावनायें अपने भीतर विद्यमान हैं वहाँ यह भी एक भारी रहस्य है कि अवरोधों को-प्रतिकूलताओं को सहन करने की भी अपने में अनन्त सामर्थ्य मौजूद है। शरीर और मन की बनावट कुछ ऐसी विचित्र है कि उसे साधारण आघात अवरोध झुका नहीं सकते। हिम्मत के धनी और धैर्यवान व्यक्ति मानसिक सन्तुलन बनाये रहते हैं और आगत संकटों से दिल्लगी मजाक करते हुए आगे का रास्ता बनाते रहते हैं। मनस्वी व्यक्ति को कोई विपत्ति झुका नहीं सकती। संकट सभी पर आते हैं। वे सदा जमे ही नहीं रहते वरन् उड़ते हुए बादलों की तरह टलते बदलते रहते हैं। आज जो विपत्ति आई है कल उसका हल भी सामने आयेगा जिनका यह विश्वास है उन्हें देर तक प्रतिकूलताओं से खिन्न नहीं रहना पड़ता। एक रास्ता बन्द होने पर वे दूसरी राह खोज निकालते हैं।

मन की तरह शरीर की रचना भी ऐसी ही है कि साधारण बीमारियाँ या दुर्घटनायें कुछ बहुत अनर्थ नहीं कर सकतीं। तितीक्षा शक्ति अपनी काया में इतनी अधिक सँजोई हुई है कि मृत्यु जैसा संकट उत्पन्न होने पर भी जीवन रक्षा की आशा की जा सकती है। विधाता ने यह काया काँच की नहीं बनाई जो जरा-सा आघात लगने पर टूट-फूट जाय। सच तो यह है कि अष्ट धातु की बनी है और इस अन्दाज में विनिर्मित हुई है कि बड़े से बड़े आघात सह सके। हमें विपत्तियाँ नहीं मारती, मारती है बुज़दिली और पश्त हिम्मती। जो डरते हैं वे मरते हैं। घबराहट का प्रभाव पेट में छुरा घोंपे जाने से अधिक बुरा होता है। छूरेबाजी के शिकार दर्जनों घावों को सहन करके अस्पताल से हँसते-कूदते बाहर निकलते हैं जबकि घबराने वाले को एक फुन्सी ही भय और आतंक का कारण बन जाती है और प्राण लेकर हटती है।

तितीक्षा शक्ति बढ़ाने पर भारतीय धर्म में बहुत जोर दिया गया है। तप साधनाओं में अधिकतर का उद्देश्य तितीक्षा ही है। कष्ट की स्थिति आने पर भी मन को असन्तुलित न होने देने का अभ्यास ही तप साधना का मूलभूत प्रयोजन है। व्रत, उपवास, माघ स्नान, धूनी तपना, मौन, कठोर आसन, रात्रि जागरण आदि के पीछे इस अभ्यास की परिपक्वता ही प्रयोजन है जिसके द्वारा कठिन समय आने पर हिम्मत न हारने का मनोबल यथा स्थान बना रहे।

दुर्बलता शरीर में नहीं मन में है। यदि मन को सँभाले-सँजोये रहा जाय तो शरीर के बारे में यह निश्चित कहा जा सकता है कि वह सहज ही टूटने के लिए नहीं बनाया गया है वह कठोरतम परिस्थितियों को सहन कर सकने में सक्षम है। यदि मन की साहसिकता बनी रहे तो मानवी काया की समर्थता अपने ढंग की अनोखी ही पाई जायगी।

भगवान ने हमें इतना समर्थ और सहन शक्ति सम्पन्न शरीर दिया है यह अपना काम है कि उसकी सुरक्षा को अनुपयुक्त आहार-विहार से नष्ट करने पर उतारू न हों। यह अपना काम है कि अवरोधों से लड़ने की क्षमता को अक्षुण्य बनाये रहने के लिए तितीक्षा परक तप−साधनाएं करते रहें। यह अपना काम है कि मनोबल ऊँचा रखें, हिम्मत न हारें, निराशा को पास न फटकने दें और एक रास्ता बन्द होने पर दूसरा रास्ता खोजें, खोलें और यदि मानसिक दुर्बलता से बचा रहा जाय तो शरीर हारी, बीमारियों से लड़ते-झगड़ते लम्बी जिन्दगी जी सकता है और अवरोधों से दिल्लगी मजाक करते हुए सफल और समर्थ जीवन की दिशा में बढ़ता रह सकता है।


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