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March 1972

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मानव का अन्तःकरण ही ईश्वर की वाणी है।

-वायरन

की अधिक गोलियाँ खाकर मरना अधिक अच्छा समझा। इन आत्महत्या करने वालों में दो-चार को छोड़ कर सभी सन्तान वाले थे। किन्तु वयस्क होने के बाद सन्तान ने उनकी ओर मुँह मोड़ कर भी नहीं देखा था।

बूढ़े अभिभावकों की ही यह दुर्गति हो रही हो सो बात नहीं। पाश्चात्य जगत में बच्चों की भी एक विपत्ति में गणना होने लगी है। माँ-बाप उन्हें अभिशाप मानते हैं और बच्चे सहमे सिसके किसी तरह अनाथालय की तरह अपनी अल्पवयस्कता की अवधि पूरी करते हैं। पति-पत्नी मिलन जब विशुद्ध रूप से कामुक प्रयोजन के लिए ही रहा तो उसी की प्रधानता रहनी चाहिए। बच्चे जब पेट में आते हैं या जन्म लेते हैं तो अपनी माँ को पिताजी की इच्छापूर्ति में उतनी उपयुक्त नहीं रहने देते। यह पिता के लिए भी क्रोध की बात है और माता के लिए भी। प्रजनन-निरोध कृत्य वहाँ का अति लोकप्रिय प्रचलन है फिर भी कभी-कभी बच्चों की विपत्ति सिर पर आ टपकती है। उन जन्मे हुए बच्चों से कब किस प्रकार पीछा छूटे यह चिन्ता अभिभावकों को रहती है।

सौंदर्य को हानि न पहुँचे इसलिए बच्चों को माता का नहीं बोतल का दूध पीना पड़ता है। अधिकाँश बच्चे-पालन गृहों में पलते हैं। पैसा दे दिया जंजाल से छुट्टी। घूमने-फिरने हँसने-खेलने की सुविधा। जैसे ही बच्चा कमाऊ हुआ कि माता-पिता से उसका कोई संबंध नहीं रहता। पशु-पक्षियों में भी तो यही प्रथा है। उड़ने चरने लायक न हों तभी तक माता उनकी सहायता करती है। बाप तो उस स्थिति में भी ध्यान नहीं देता। प्रकृति ने बच्चों की जीवन रक्षा के लिए यदि माता के हृदय में स्वाभाविक ममता उत्पन्न न की होती तो अनास्थावान मातायें भी बच्चों की साज-सँभाल करने में रुचि न लेती और माता की निगाह बदलने पर बाप तो उनकी ओर आँख उठाकर भी न देखता।

अनास्थावान मनोभूमि वाले माता-पिता के दृष्टिकोण का बच्चों के प्रति बेरुखा हो जाना स्वाभाविक है। और ऐसी दशा में यदि वे बुढ़ापे में अभिभावकों की कोई सहायता नहीं करते और उन्हें कुत्ते की मौत मरने के लिए छोड़ देते हैं तो उन्हें कुछ बहुत दोष भी नहीं दिया जा सकता। आखिर वे भी तो बूढ़े होंगे और उन्हें अपने बच्चों का नीरस बुढ़ापा बिताने की बात ही सोचते हैं। ऐसी दशा में मौत के दिन गिनने वाले बूढ़े माता-पिता की वे उपेक्षा अवज्ञा करते हैं तो उन्हें दोष भी कैसे दिया जाय?

अभिभावकों और बच्चों के बीच आदर्शहीनता ने दीवार खड़ी कर दी है। उससे भी बड़ी विडम्बना पति-पत्नी के बची खड़ी है। वेश्या जिस तरह शरीर सौंदर्य से लेकर वाक्जाल तक के रस्सों से भड़ुए को बाँधे रहने की चाल चलती रहती है, वही नीति औसत पत्नी को अपने पति के साथ बरतनी पड़ती है। तथ्य से वह परिचित है। कामुकता की तृप्ति ही विवाह का उद्देश्य है। जब तक वह प्रयोजन खूबसूरती से सधेगा तभी तह विवाह चलेगा। आर्थिक सुविधा का दूसरा पहलू भी विवाह के साथ जुड़ गया है। इन स्वार्थों की शतरंज ही दांपत्य जीवन है। जो बाजी हार जाता है उसे भागना पड़ता है। एक घर में रहते हुए भी-एक बिस्तर पर सोते हुए भी-दोनों एक दूसरे को आस्तीन का साँप समझते रहते हैं और बारीकी से यह पता लगाते रहते हैं कि साथी के द्वारा उसके शरीर में डंक चुभोये जाने में कितनी देर है। प्रेम-पत्र और लम्बे-चौड़े वायदे तथा हाव-भावों का आकर्षण वहाँ एक ‘टेकनीक’ मात्र रह गये हैं। उस विडम्बना की निस्सारता समझते हुए भी बंधन में बँधने से पूर्व जो दौर उनका चलता था विवाह के बाद भी चलाते रहना पड़ता है। ताकि साथी को भ्रम में रखा जा सके। साथ ही दूसरा घोंसला बनाने दूसरी चिड़िया फँसाने का भी अपना-अपना ताना-बाना बुनते रहते हैं।

इन दाम्पत्य जीवनों का जो ढाँचा खड़ा रहता है और जिस प्रकार अन्त होता है उससे निराशा और दुख ही हाथ लगता है। बाहर आदमी कैसी ही तड़क-भड़क बनाये फिर, पर पारिवारिक जीवन में भी विश्वास, निष्ठा, आत्मीयता का अभाव रहने पर मनुष्य अपने आपको सर्वथा एकाकी और असहाय अनुभव करता रहता है। न कोई उसका न वह किसी का, वास्तविकता सामने रहती है। छल और दिखावे का ताना-बाना यदि स्त्री-बच्चों के साथ भी बुनते रहना पड़े तो मन कितना भारी, कितना उदास और कितना क्षुब्ध और कितना उखड़ा-उखड़ा रह सकता है, इसकी कल्पना करने से भी कष्ट होता है। फिर जिन लोगों को सारा जीवन इसी वातावरण से भरे पारिवारिक जीवन में बिताना पड़ता है-उनकी क्या गति होगी, उसे अनास्थावान भौतिकवादी पश्चिम के देशों में जाकर प्रत्यक्ष ही देखना चाहिए।

बाहरी ठाठ-बाट शौक-मौज के मन-बहलाव से क्या बनता है, आन्तरिक निराशा हर घड़ी खाती रहती है। नशे पीकर गम गलत करते रहते हैं और आन्तरिक उद्वेगों की आग में मरघट की चिता बनकर जलते रहते हैं।

इंग्लैण्ड के डॉक्टरी पत्र ‘ब्रिटिश मेडीकल जनरल’ में उस देश में बढ़ते हुए पागलपन का विस्तृत विवरण छपा है। उसमें लिखा है-इस देश में पागलों, अर्ध-विक्षिप्तों और सनकियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। अस्पताल में जितने रोगी भरती होते हैं, उनमें से प्रायः आधे मानसिक रोगों से पीड़ित होते हैं। गत पाँच वर्षों में यह संख्या प्रायः दस गुनी हो गई है।

नींद की गोलियाँ खाये बिना किन्हीं विरले को ही सोना नसीब होता है। मानसिक तनाव से उत्पन्न अनिद्रा वहाँ का एक सभ्य रोग है। शराब पिये बिना चैन नहीं। आखिर भीतरी उद्वेग को दबाने के लिए नशे के अतिरिक्त और किस का सहारा लिया जाय?

ईश्वर से, धर्म से, बच्चों पर से, स्त्री से, अभिभावकों से, समाज से, अपने आप पर से विश्वास खोकर अनास्थावान व्यक्ति सब कुछ खोया-पीया ही अनुभव करता है। जब आत्मा कोई अस्तित्व नहीं, मरणोत्तर जीवन की आशा नहीं और शरीर के साथ ही अपने अस्तित्व का अन्त होने वाला है तो फिर थके हारे, बूढ़े, घिसे व्यक्ति की आँखों में आशा की चमक कहाँ से आ सकती है? जवानी में भी मनुष्य जो कुछ देखता है सब कुछ निरर्थक, निरुद्देश्य, नीरस पाता है। ऐसी दशा में वह निरर्थकतावादी बन जाय तो आश्चर्य ही क्या है? हिप्पीवाद इसी नीरस निरर्थक जीवन की निरंकुश अभिव्यक्ति है। अभी इसका आरम्भ है। अनास्था जितनी ही प्रखर होगी यह क्रम उतना ही उग्र होता चला जायगा। इसका अन्त कहाँ होगा यह सोचते हुए भी सिर चकराता है। हो सकता है इसी आग में झुलस कर सभ्यता और संस्कृति का अस्तित्व भी समाप्त हो जाय।

धर्म-विरोधी विचारधारा के प्रचारक और प्रख्यात दार्शनिक लार्ड वेवरिज ने मृत्यु से कुछ समय पूर्व अपने मित्र इटली के प्रोफेसर बलडी को एक मार्मिक पत्र लिखा। उसमें उनने कहा-”धर्म ध्वजियों के अनाचार से क्षुब्ध होकर मैंने धर्म विरोधी प्रतिपादन किया था पर उस आवेश में यह ध्यान न रहा कि-अनास्था फैल जाने पर लोग साधारण मानवीय कर्त्तव्य की भी उपेक्षा करने पर उतारू हो जायेंगे। मेरा प्रयत्न वास्तविकता प्रकट करने का था, इस अंश में वह प्रतिपादन अभी भी सही है कि धर्म को जिस रूप में इन दिनों समझा जा रहा है वह भ्रान्त है। फिर भी मूल धर्म प्रवृत्ति का उन्मूलन उचित नहीं। उसके कारण उत्पन्न नैतिक उच्छृंखलता व्यक्ति और समाज के लिए घातक ही सिद्ध होती है। अनास्थावान व्यक्तियों की गतिविधियों को देखकर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि वे धर्म व्यवसायियों एवं धर्म भीरुओं की अपेक्षा कम नहीं-अधिक बुरे सिद्ध हो रहे हैं।”


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