भूतकालीन प्रतिपादनों के लिए दुराग्रह न करें

March 1972

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काल में जो माना जाता रहा है वह भविष्य में भी माना जायगा या माना जाना चाहिए ऐसा सोचना व्यर्थ है। हमारे ज्ञान की सीमा बढ़ रही है और परिस्थितियाँ बदल रही हैं तदनुसार ज्ञान के आधार भी बदलते जा रहे हैं। विकास का तथ्य स्वीकार किया जाना चाहिए। सत्य अति विशाल है, उसकी परतें धीरे-धीरे खुलती चली जा रही हैं, इस विकासोन्मुख सत्य को स्वीकार करने के लिए हमें अपना मस्तिष्क खुला रखना चाहिए।

जो भूतकाल में कहा गया वह पूर्ण सत्य था, उसमें हेर-फेर की गुंजाइश नहीं ऐसा दुराग्रह हमें सत्य के नवीनतम प्रकाश से वञ्चित कर देगा और हम दकियानूसी कूप मंडूक बन कर रह जायेंगे। सत्य किसी सीमा बन्धन में बँधा हुआ नहीं है। मनुष्य सर्वांगपूर्ण नहीं है और न उसके मस्तिष्क की परिधि ही इतनी बड़ी है कि इस विशाल विश्व में संव्याप्त सत्य की समस्त किरणों का एक ही समय-अन्तिम रूप से अवगाहन कर सके।

इस विश्व का क्रमिक विकास हुआ है। धरती किसी समय में वायुभूत अग्नि पुँज मात्र थी। ठण्डी होने पर वह प्राणियों के रहने योग्य हुई, एक कोषीय जीवों से विकसित होते-होते प्राणियों की अनेक जातियाँ बनीं और उनने बौद्धिक एवं शारीरिक स्थिति पार करते हुए वह स्थिति प्राप्त की जो आज है। मानव प्राणी ने भी अपना विकास यकायक नहीं कर लिया उसे वर्तमान स्थिति तक पहुँचने में लाखों वर्ष लगे हैं। ज्ञान का विस्तार भी इसी क्रम में हुआ है। भूतकाल की अनेक मान्यतायें अब झुठला दी गई। विज्ञान ने सत्य की नई परतें खोलीं और उन्हें स्वीकार करना पड़ा। पूर्व मान्यताओं के लिए दुराग्रह किये रहना बुद्धिमत्ता नहीं है।

पूर्ण सत्य तक पहुँचने की मंजिल क्रमशः ही पार की जायगी। चलने वाला पथिक अभी एक स्थान पर पैर रखे है, अभी दूसरा पग दूसरी जगह रखेगा। जो स्थान अभी पैरों के नीचे हैं, जो दृश्य अभी आँखों के सामने है वह अगले क्षण बदल जायगा। यात्रा क्रम में ऐसा होना स्वाभाविक है। इस परिवर्तन पर अप्रसन्नता व्यक्त करना उचित नहीं। बचपन में जो वस्त्र पहने जाते थे उन्हें युवावस्था में भी पहना जाय यह आग्रह असंगत और अनुचित ही कहा जायगा।

मान्यतायें पत्थर की लकीर नहीं है। आज जिस आधार पर हम एक बात को सत्य मानते हैं कल आधार बदल जाने पर परिभाषा बदल जायगी और पुराने प्रतिपादन को छोड़ने के लिए विवश होना पड़ेगा। इसमें भूतकाल के प्रतिपादन कर्ताओं का अपमान नहीं है। उनने अपने समय की परिस्थितियों के अनुरूप जो सर्वोत्तम सत्य समझा उसे कहा। पर किसी ने भी यह नहीं कहा कि जो उनके द्वारा कहा जा रहा है वह अन्तिम है या पूर्ण सत्य है। ‘नेति-नेति’ का घोष करते हुए तत्वदर्शियों ने सदा यह कहा है कि जो बताया जा रहा है वह अन्तिम नहीं है, पूर्ण नहीं है। ‘स्याद्वाद’ दर्शन में इसी तथ्य को स्वीकार किया गया है और भावी अन्वेषण एवं विचार परिवर्तन के लिए पूरी गुंजाइश रखी गई है।

भूतकालीन मान्यताओं को ही पूर्ण सत्य मान बैठना दुराग्रह है। सत्याग्रह में यह गुंजाइश रखी जाती है कि सत्य का प्रामाणिक और तथ्यों के आधार पर परिष्कृत रूप सामने आवेगा तो उसे सहर्ष स्वीकार करेंगे। ज्ञान के विकास का क्षेत्र खुला रखा जाना चाहिए और मान्यताओं को तथ्यों के आधार पर बदलने का उदात्त दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।

चन्द्रमा के संबंध में मनुष्य ने न जाने कब-कब से-क्या-क्या स्वप्न सँजो कर रखे थे। कितनी मधुर कल्पनायें उसके साथ जोड़ कर रखी थीं। विज्ञान ने उन्हें अस्त-व्यस्त करके रख दिया।

पाश्चात्य साहित्य में उसे चन्द्रमुखी महिला के रूप में चित्रित किया गया है। राहु के आक्रमण से पड़ने वाला चन्द्रग्रहण हमारे लिए चिन्ता का विषय था और उसे विपत्ति से छुड़ाने के लिए जप, दान किये जाते थे।

चन्द्रमा अमृत का घट है। उसकी चन्द्रिका अमृत बरसाती है। चन्द्रप्रकाश में शीतल किया हुआ दूध-शान्तिदायक होता है। शरद पूर्णिमा के चन्द्रप्रकाश में खीर का भोजन करते हुए उसमें अमृत मिश्रण की आशा की जाती है। किसान शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा को साक्षी बनाकर बीज बोते हैं। चन्द्रमुखी का ज्यों-ज्यों रूप निखरता है त्यों-त्यों समुद्र कोटि-कोटि हाथ पसारकर उसे अपने अंक में आबद्ध करने के लिए व्याकुल होता है। ज्वार-भाटे की यही साहित्यिक कल्पना है। स्त्रियों के मासिक धर्म की चन्द्र कलाओं के साथ संगति बिठाई जाती है।

पौराणिक गाथा के अनुसार चन्द्रमा की उत्पत्ति समुद्र मन्थन से उत्पन्न रत्नों के रूप में हुई। उसे शिवजी के मस्तक पर निवास करते रहने का स्थान मिला। दक्ष प्रजापति की 27 कन्यायें चन्द्रमा को विवाही गईं। इनमें से रोहिणी को अधिक प्यार करने से रुष्ट अन्य 26 पत्नियों ने जब अपने पिता से शिकायत की तो इस पक्षपात के लिए उसे दक्ष के शाप से कलंकी होना पड़ा। इन्द्र के द्वारा अहिल्या के साथ छल करने में सहयोग करने के कारण गौतम ऋषि के शाप से उसे कलंकी बनना पड़ा। मणि चुराने के अभियोग में शाप लगने के कारण भाद्र पक्ष शुक्ल चतुर्थी को चन्द्र दर्शन हेय घोषित किया गया। स्त्रियाँ गणेश चतुर्थी को चन्द्र दर्शन के उपरान्त ही कुछ खाती हैं और चन्द्र देवता से सुहाग वरदान माँगती हैं। रजनी पति निशा नाथ चन्द्रमा को काम उमंग उत्पन्न करने वाला बताया गया है। प्रेयसी की चन्द्र मुख से तुलना कवि न जाने कब से करते रहे हैं।

मुसलमान ईद का चाँद देखकर अपना व्रत उपवास पूर्ण करते हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार चन्द्रमा एक पूर्ण ग्रह है। उसे शास्त्राधार का मध्य बिन्दु मानकर ग्रह गणित आगे चलता है। यात्रा मुहूर्तों में चन्द्रमा की दिशा स्थिति को ध्यान में रखा जाता है। मनुष्यों पर जब चन्द्र दशा आती है अथवा जब अन्तर-प्रत्यन्तर आते हैं तब शुभ लाभ का फलित बताया जाता है। सप्ताह का एक दिन चन्द्रमा के नाम पर ही निर्धारित है उस दिन को मंगलमय माना गया है। बच्चे उसे चन्दा मामा मानते रहे हैं और मातायें उस चन्द्र खिलौने को ला देने का आश्वासन न जाने कब से अपने नन्हें शिशुओं को देती रही है।

आधुनिक विज्ञान के अनुसार चन्द्रमा 2000 मील व्यास का एक वर्तुलाकार निर्जीव पिण्ड है। जो सूर्य के प्रकाश से चमकता है। उसका बोझ पृथ्वी की तुलना में 81वाँ अंश ही है। उसकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति पृथ्वी के छठे भाग के बराबर है। वहाँ न पानी है न हवा। न कोई जीव, न वनस्पति। शब्द का सर्वथा अभाव। नीरव निस्तब्धता का साम्राज्य। विश्व किरणों की, उल्काओं की-अणु किरणों की-निरन्तर वर्षा होती रहने से वहाँ की चट्टानें धूल बन गई हैं। उसकी परतों में नाइट्रोजन, गन्धक, फास्फोरस, कार्बन डाई ऑक्साइड तथा कतिपय धातुयें विद्यमान हैं। रात को वहाँ अतिशीत होता है और दिन को अति ताप। वह पृथ्वी की परिक्रमा 240000 मील दूर रहकर करता है।

चन्द्रमा के संबंध में अब तक मान्यतायें प्रतिपादित और प्रचलित रही हैं। डार्विन का कथन है-पुरातन में पृथ्वी तप्त द्रव थी। उसमें अनेक विस्फोट होते थे। वह तप्त रस सूर्य की परिक्रमा कर रहा था। इसी बीच पृथ्वी के विस्फोट और सूर्य के आकर्षण से पृथ्वी का एक टुकड़ा उचट कर अलग हो गया और स्वतन्त्र रूप से घूमने लगा यही चन्द्रमा है। पृथ्वी के जिस स्थान से यह टुकड़ा टूटा वहाँ प्रशान्त महासागर का गड्ढा बन गया।

डॉ0 वाईज ने भी थोड़े हेर-फेर के साथ इसी मत की पुष्टि की। उनने धूमकेतु, विश्व किरणें तथा अणुशक्ति आघातों के कारण चन्द्रमा में अनेक खड्ड बन जाने की बात कही।

जेम्स जीव्कस और डॉ0 वफुन्स का मत है कि-कभी कोई विशाल तारा सूर्य के समीप होकर गुजरा। उसके और सूर्य के गुरुत्वाकर्षणों में रस्साकशी हुई। इस संघर्ष में सूर्य का एक बड़ा भाग महाभयंकर विस्फोट के साथ टूट गया। उस टूटे भाग से सौर मण्डल के अन्य ग्रह बने और उसी मलबे में से चन्द्रमा बन गया। चन्द्रमा पृथ्वी के समीप होने के कारण धरती के गुरुत्वाकर्षण में जकड़ गया और उसी की परिक्रमा करने लगा।

डॉ0 फेड हायल का कथन है-अनन्त आकाश में प्रचण्ड ज्योति को फेंके हुए वायु कणों को सूर्याकर्षण ने खींचा और वह धूलि, सघन होकर चन्द्रमा बन गई।

अब चन्द्रमा के संबंध में यह नये तथ्य स्वीकार कर लिये गये। प्राचीन मान्यताओं की साहित्य में चर्चा भले ही होती रहे पर उन्हीं को सही मानने के लिए कोई आग्रह नहीं करता। यही उचित भी है।

यूनान का खगोल वेत्ता अनेग्जागोरस बड़े दावे के साथ कहता था कि सूर्य का विस्तार इतना है जितना यूनान का दक्षिण भाग। उन दिनों यह प्रतिपादन पूरी तरह गप्प माना गया था। जरा सा सूरज भला कहीं यूनान के दक्षिण भाग जितना बड़ा हो सकता है?

पीछे दूसरे खगोल वेत्ता और भी आगे बढ़े। उन्होंने हिसाब लगा कर बताया कि सूर्य का विस्तार पृथ्वी से भी बड़ा है। सुनने वालों ने इसे और भी बड़ी अतिश्योक्ति माना। यह ग्रह गणित आगे भी जारी रहा और ज्योतिर्विद् पोसिडोनियस ने सूर्य का विस्तार और भी बड़ा बताया उसका प्रतिपादन वर्तमान मान्यता से लगभग आधा था।

मध्य काल में ब्रह्माण्ड की सुविकसित कल्पना करने वाला पुराना दैवज्ञ ‘दान्ते’ है। उसने अपनी पुस्तक ‘पैराडाइसो’ में कहा है-सूर्य, चन्द्र, स्वर्ग, स्थिर नक्षत्र इन सबका एक केन्द्र मण्डल है। चौबीस घण्टे में उसका एक चक्कर पूरा होता है। आज की ब्रह्माण्ड मान्यता की तुलना में उसे बचपन की कल्पना ही कहा जा सकता है।

अब ब्रह्माण्ड के विस्तार की मान्यता पुरातन की अपेक्षा बहुत आगे और बहुत विस्तृत है। तारे आसमान की छत में लटके हुए अब झाड़ फानूस नहीं रहे। वर्तमान खगोल विद्या के अनुसार सबसे निकट दीखने वाला तारा भी सूर्य से बहुत बड़ा और बहुत दूर है। सूर्य का प्रकाश पृथ्वी तक आठ मिनट में आ जाता है। पर उस निकटवर्ती तारे का प्रकाश हम तक आने में लगभग चार साल लगते हैं। खुली आँखों से जितने तारे हमें दीखते हैं वे सब अपनी आकाश गंगा ‘मन्दाकिनी’ के ही अण्डे बच्चे हैं और उसी से बँधे हैं उसी की गोद में खेलते हैं। हमारी मंदाकिनी आकाश गंगा की तरह ब्रह्माण्ड में करोड़ों आकाश गंगायें हैं।

अपनी आकाश गंगा में लगभग 3 अरब तारे हैं। इनमें निकटवर्ती नक्षत्र की दूरी 250 खरब मील है। ऐसी ऐसी आकाश गंगाएं करोड़ों हैं और वे एक दूसरे से इतनी दूर हैं कि एक का प्रकाश दूसरी तक पहुँचने में 2 करोड़ वर्ष लगते हैं।

सूर्य का वजन 2 अरब टन है। अपनी आकाश गंगा अपने सूर्य से 60 अरब गुनी भारी है। ऐसी-ऐसी करोड़ों आकाश गंगाओं के तारा मण्डल ने जो जगह घेर रखी है उसे सिर में एक बाल के बराबर ही समझना चाहिए। शेष ब्रह्माण्ड तो बिल्कुल पोला-सूना-खाली-नीरव ही पड़ा हुआ है।


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