अपने दोषों को स्वीकारें और सुधारें

March 1972

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

दोषों को ढूँढ़ना-समझना, उनका विरोध करना और हटाना यह अच्छा काम है। पर है तब जब अपने से आरम्भ किया जाय। हम अपने दोषों को औरों की अपेक्षा अधिक अच्छी तरह ढूँढ़ सकते हैं। जितना पता हमें अपने आपके बारे में हैं उतना दूसरों को कैसे हो सकता है उन्हें तो उतनी ही जानकारी है जितनी कि देखी या सुनी है। देखने और सुनने से भी बहुत कुछ बच जाता है। लोग अपनी अच्छाइयों को बढ़ा-चढ़ा कर बताने के और बुराइयों को छिपा लेने के आदी हैं। सो इस छिपाव की आड़ में कितने ही अपने दोष दूसरों की जानकारी में नहीं आते।

अपनी असलियत हम जितनी अच्छी तरह जान सकते हैं, दूसरे उतनी नहीं। सो दोषों की निन्दा और उनके उन्मूलन की चेष्टा हमें अपने आप से आरम्भ करनी चाहिए, क्योंकि अपने निकटतम समीपवर्ती हम स्वयं ही हैं। अपने ऊपर अपना जितना प्रभाव और दबाव है उतना और किसी पर नहीं। इसलिए यदि सुधारने का काम आरम्भ करना हो तो ऐसे व्यक्ति से आरम्भ करना चाहिए जो अपने अधिकतम निकट और अधिकतम प्रभाव दबाव में हो। ऐसा व्यक्ति हम स्वयं ही हो सकते हैं।

सबसे बड़ी हिम्मत का काम है अपनी वास्तविकता समझना और अपने दोषों तथा दुर्बलताओं को स्पष्ट रूप से स्वीकार कर लेना। इसी स्वीकृति के बाद लगेगा कि जिसे दुर्बलताओं से छुड़ाने और पापों से बचाने की जरूरत है वह प्रथम व्यक्ति-हम स्वयं ही हैं। अपनी कुरूपता स्वीकार करने में जिसे डर नहीं लगता, और अपनी असलियत को बिना छिपाये प्रकट करता है असल में सबसे बहादुर शूरवीर उसे ही कहना चाहिए, योद्धा का काम लड़ना ही है। अनाचार ने हर योद्धा को चुनौती दी है कि वह लड़ने के लिए खम ठोंके और आगे आये। ऐसा धर्म-युद्ध आरम्भ करने के लिए हमारा अपना मन और जीवन ही सबसे बड़ा कुरुक्षेत्र-युद्ध मोर्चा हो सकता है।

दोषों और दुर्बलताओं को छिपाने में हम जितना मनोयोग लगाते हैं उससे आधा भी यदि उनके परिष्कार में लगा दें तो सरलतापूर्वक निर्मल और निष्पाप गतिविधियाँ अपनाने में सफलता मिल सकती है।

मित्रों में उन्हें सम्मिलित करना चाहिए जो हमारे दोष दर्शा सकें और कुमार्ग से हटाने का साहस उत्पन्न कर सकें। आमतौर से होता यह है कि चापलूसी भाती है और दोषों की चर्चा करने वाला शत्रु लगता है। हम चोरी का धन्धा करते हों और कोई चोर कह दे, बेईमानी करते हो और कोई बेईमान कह दे तो बहुत बुरा लगता है और उससे लड़ने-मरने को तैयार हो जाते हैं। इसे कायरता ही कहना चाहिए कि वस्तु-स्थिति को बताने वाले दर्पण में अपनी कुरूपता देखना हमें सहन नहीं होता और अपने अपराध का दण्ड उस दर्पण को तोड़ने के रूप में देना चाहते हैं। कई बार ऐसे तर्क प्रस्तुत करके हम अपना बचाव करते हैं। हमीं अकेले तो नहीं है। दुनिया में और भी तो बहुत लोग यह कर रहे हैं, उन्हें क्यों नहीं रोकते?

अपने दोषों की समीक्षा के लिए हमें ही स्वयं आगे आना चाहिए ताकि किसी दूसरे को वैसा करने का कष्ट न करना पड़े। चर्चा या निन्दा करना उतना आवश्यक नहीं जितना कि सुधार के लिए प्रयत्न करना। निन्दा करने मात्र से पाप भाग नहीं जायगा। भ्रष्टाचार का अन्त करने के लिए मात्र चीख पुकार काफी नहीं। उसके लिए कुछ ठोक कदम उठाने पड़ेंगे। और उनमें सबसे पहला और सबसे प्रभावशाली काम यह हो सकता है कि हम अपने दोषों को साहसपूर्वक स्वीकार करें और साथ ही अपनी दुर्बलताओं को उखाड़ फेंकने के लिए वह पराक्रम पुरुषार्थ दिखायें जो सच्चे बहादुर और सच्चे योद्धा ही दिखाया करते हैं। अपने आपसे लड़ना और अपने को शुद्ध बना लेना बाहर की दुनिया को निर्मल निष्पाप बना सकने की सबसे बड़ी योग्यता और वीरता की सबसे बड़ी निशानी है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118