हवा में महल और आधी रात में सूर्य

March 1972

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श्री श्यामाचरण लाहिड़ी प्रसिद्ध योगी और सन्त तब दानापुर कैन्ट (पटना) में एकाउंटेन्ट थे सन् 1861 की बात है उन्हें सरकारी तार मिला जिसमें आदेश मिला था रानीखेत ट्रान्सफर का। ट्रान्सफर की कोई सम्भावना न थी पर जब वह हो ही गया तो श्री लाहिड़ी वहाँ से चल कर रानीखेत जा पहुँचे।

जिस ऑफिस में वे काम करते थे उसके सम्मुख ही द्रोण पर्वत है। काम के बीच रह रहकर उन्हें एक आवाज सी सुनाई पड़ा करती। लगता उन्हें कोई उस पहाड़ी की ओर आकर्षित कर रहा है। दो दिन तक तो वे उन अज्ञात प्रेरणाओं को दबाते रहे पर तीसरे दिन उन्हें चलना ही पड़ा।

अभी रात होने को देर थी पर भगवान सूर्य अस्ताचल के समीप जा पहुँचे थे। द्रोण पर्वत पर पहुँचकर श्री लाहिड़ी ने चारों ओर दृष्टि घुमाकर प्रकृति के मनोरम दृश्य देखे बड़ी देर तक सृष्टा की अनुपम कारीगरी को निहारते और सोचते रहे मनुष्य को एक छोटा सा उद्यान लगाने में कितना परिश्रम जुटाना पड़ता है फिर जिसने सारी पृथ्वी को ही एक मनोरम उद्यान के रूप में बनाया, जो इस उपवन की निरन्तर काट-छाँट खाद-पानी-किया करता है वह कितनी सर्वशक्तिमान सत्ता होगी।

यह विचार करते हुए वे घर लौटने के लिए मुड़ना ही चाहते थे तभी एक ओर से हलकी मधुर आवाज सुनाई दी-वत्स! ठहरो! लाहिड़ी ने पीछे मुड़कर देखा भगवान भास्कर तो अस्त हो चुके थे। पर उसी दिशा में कुछ सौ गज के फासले पर ही एक चाँदी के रुपये जितना गोल दिव्य प्रकाश छिटक रहा था मानो आज ध्रुव धरती पर उतर आया था। इस तेज-बिन्दु से किरणों की सी आभा छिटक रही थी। लाहिड़ी महाशय ने एक दो बार पुकारने वाले को ढूँढ़ना चाहा पर और तो कोई दिखाई न दिया हाँ दृष्टि उस तेजोवलय पर टिककर अवश्य रह गई अब तक स्पष्ट हो चुका शब्दवत आदेश उस प्रकाश से ही आ रहे थे।

श्री लाहिड़ी ने कभी पढ़ा था-

अयं होता प्रथमः पश्यतेममिदं ज्योतिरमृतं मृर्ष्येषु।

अयं सजज्ञे ध्रुव आ निषत्तोऽमर्त्य स्तन्वा वर्धमानः।

ध्रुव ज्योतिर्निंहितं दृशये कं मनो जवष्ठिं-

पतयत्स्वन्तः।

विश्वे देवाः समनसः सकेता एकं क्रतुमभि-

वि यन्ति साधु॥

-ऋग्वेद 6/9/4-5

अर्थात्-नाशवान शरीर के साथ बढ़ने वाला यह अमर आत्मा प्रकट हुआ। यह जीव (चेतना) है वह ज्योति रूप-तेजोमय है। साँसारिक सुखोपभोग की तृष्णा में यह तेज नष्ट हुआ पतन का करण बनता है जबकि परमात्मा को धारण करने से वह बढ़ता है और अदृश्य एवं अद्भुत क्षमतायें विकसित करता है।

इस तत्व दर्शन को समझना आज प्रत्यक्ष सम्भव हुआ प्रकाश एक शक्ति है, शब्द भी एक शक्ति है दोनों परस्पर परिवर्तनीय हैं दोनों आत्मा के लक्षण हैं पर अभी तक शरीर से प्रथक आत्म चेतना की अनुभूति सम्भव नहीं हुई थी सो श्री लाहिड़ी को यह अनुभूति आज सम्भव हुई। योगीराज अपनी चेतना को शरीर से पृथक कर किस प्रकार अतीन्द्रिय विहार करते होंगे यह आज समझना सम्भव हुआ। पर सब कुछ था विस्मय बोधक ही श्री लाहिड़ी कुछ ठगे से खड़े थे।

तभी उस प्रकाश पुञ्ज से पुनः पुकार आई। तात! तुम्हारा दानापुर से स्थानान्तर हुआ नहीं कराया गया, इस पर्वत शिखर तक तुम आये नहीं कराया गया, इस पर्वत शिखर तक तुम आये नहीं लाये गये अब मेरे साथ आओ और मैंने तुम्हें जिस हेतु बुलाया है उस प्रयोजन को पूरा करो।

बिल्ली को देखकर भयभीत चूहे अपने आप उसकी ओर बढ़ जाते हैं, घने जंगलों में पाये जाने वाले अजगरों में एक वीभत्स सम्मोहन शक्ति होती है उसे देखते ही शिकार अपने आप मुँह में दौड़े चले आते हैं ऐसे ही सम्मोहित श्री लाहिड़ी उस प्रकाश पुँज के पीछे-पीछे चल पड़े। प्रकाश पुँज एक गुफा के समीप जाकर रुका। श्री लाहिड़ी ने देखा-प्रकाश तो अन्तर्धान हो चुका है-एक साधु वहाँ खड़े मुस्करा रहे हैं। उन्होंने पुकारा-श्यामाचरण डरो नहीं आओ मेरे पास आओ।

एक अजनबी को अपना नाम लेते सुनकर श्री लाहिड़ी का विस्मय और भी बढ़ गया। उन्होंने पूछ ही तो लिया आप कौन हैं, मुझे यहाँ क्यों लाया गया, यहाँ मुझे कब तक ठहरना पड़ेगा?

यह प्रश्न पूछने की अपेक्षा-तुम यह पूछते-मैं कौन हूँ तो मुझे अधिक प्रसन्नता होती तात! यह साँसारिक नियम है कि लोग दुनिया भर का ज्ञान तो अर्जित करते हैं एक दूसरे के बारे में चढ़ बढ़कर बातें भी कर लेते हैं किन्तु आत्म तत्व के बारे में तथाकथित प्रबुद्ध व्यक्ति भी नहीं जानते कि वे कहाँ से आये? क्यों आये? और जब यह शरीर नहीं रहेगा तो इस अपने “अहंभाव” का क्या होगा? मैंने तो तुम्हें इसीलिए बुलाया है कि तुम्हें आत्मबोध हो ताकि पीछे जो एक महत्वपूर्ण काम कराना है, अध्यात्म का जो व्रत रखने का भार तुम पर डालना है-उस क्षमता का विकास भी हो सके।

तो भी तुम जानना चाहते हो वह भी तुम्हें जानने को मिलेगा। मुझे पता है कि तुमको दानापुर से यहाँ आने में कष्ट हुआ। यहाँ ऑफिस में तुम्हारा बहुत सा काम बाकी पड़ा है जिसे तुम रात में करते हो-पर यह काम उससे भी आवश्यक था इसलिए मैंने ही तुम्हारे ऑफिसर के मन में तुम्हारे ट्रान्सफर का भाव पैदा किया, मेरा ही आकर्षण था जो तुम्हें यहाँ तक लाया गया, तुम मुझे भूल गये, इस स्थान को भी भूल गये लो अब मैं फिर से याद दिलाता हूँ यह कहते-कहते योगीराज समीप आ गये और उन्होंने पास आते ही अपना दाहिना हाथ श्री लाहिड़ी के सिर में रख दिया-मानो वे ताँत्रिक प्रयोग करना चाहते थे। श्री लाहिड़ी अभी तक की बातों पर चिन्तन कर रहे थे और सोच रहे थे-क्या जिस प्रकार रेडियो एक निश्चित फ्रीक्वेंसी पर लगाये जाने पर केवल उसी फ्रीक्वेंसी पर प्रसारित रेडियो स्टेशन की खबरें ग्रहण करता है-ठीक उसी प्रकार मनुष्य के मस्तिष्क को भी मानसिक शक्तियों द्वारा विचार और सन्देश भेजे जा सकते हैं? अभी यहीं समाधान नहीं हो पा रहा था कि साधु के हाथ का एक विलक्षण झटका सा लगा और ऐसा लगा कि शरीर में बिजली की सी एक कोई शक्ति भरने लगी। शरीर धीरे-धीरे कोमल हो चला, तन्द्रायें जाग उठीं, मन का अन्धकार घुलने लगा, ऋतम्भरा प्रज्ञायें जागने लगीं। सब कुछ अलौकिक था। उससे भी अलौकिक थीं वह अनुभूतियाँ जो उस सम्मोहित अवस्था में स्वप्न की नाईं मस्तिष्क में स्पष्ट उभरने लगीं।

श्री लाहिड़ी ने देखा मैं पूर्व जन्म में योगी था-यह साधु मेरे गुरु हैं हजारों वर्ष की आयु हो जाने पर भी वे शरीर को अपनी योग क्रियाओं द्वारा धारण किये हुए हैं उन्हें याद आया कि पिछले जन्म में वे योगाभ्यास तो करते रहे पर मन की सुबोध भोग की वासनायें नष्ट नहीं हुई।

साधु ने अपना हाथ कब हटा लिया यह उन्हें पता ही नहीं चल पाया-मानसिक कल्पना के दृश्य और भी गहरे होते जा रहे थे जिनमें उनके अनेक जन्मों की स्मृतियाँ साकार होती चली जा रही थीं। उन्होंने जगमगाते हुए सूर्य को देखा और उस दिव्य प्रकाश में अलंकृत भव्य महल जिसमें सुख के हर एक साधन विद्यमान थे। मन हर वस्तु का रसास्वादन करता था पर किसी से तृप्ति नहीं हो रही थी। इस तरह श्री लाहिड़ी ने अपने पिछले अनेक जन्मों के दृश्यों से लेकर वहाँ पहुँचने तक का सारा वर्णन चलचित्र की भाँति देख लिया तब कही सम्मोहन टूटा। वे विस्मय के साथ आत्म-बोध से भर चुके थे और योगिराज सम्मुख खड़े मुस्करा रहे थे।

उन्होंने कहा-बेटे भूखे होंगे देखा वह बर्तन रखा है उसमें से जो भी लेकर खाली-आज का काम समाप्त हुआ, तुमने अपने आपको पहचान लिया-अब मैं तुम्हें क्रिया-योग की दीक्षा दूँगा-जिससे तुम भारतीय योग धर्म और दर्शन को जिन्दा रखने वाला ज्ञान और क्षमता सम्पादित कर सको।

श्री लाहिड़ी ने मिट्टी के उस बर्तन से वह वस्तुएं निकाल कर खाई जो वहाँ तो क्या वहाँ से सैकड़ों मील दूर तक भी उपलब्ध नहीं थी। चेतना और योग की शक्ति के उस प्रथम परिचय ने उनकी निष्ठा दृढ़ कर दी। पूर्व जन्मों के संस्कार भी जाग उठे थे। और अब वे अपने आपको योगाभ्यास के लिए पूर्ण सुनिश्चित और खाली अनुभव कर रहे थे। अपने गुरुदेव को पहचान कर उन्होंने बारम्बार प्रणाम किया और आवश्यक तैयारियों के लिए वापस लौट पड़े।

यह घटना श्री लाहिड़ी के प्रशिष्ठा श्री स्वामी योगानन्द ने भी अपनी पुस्तक “ऑटोबाईग्राफी ऑफ ए योगी” में दी है। श्री लाहिड़ी ने एक बार रानी खेत से लौटते हुए मुरादाबाद में अपने कुछ मित्रों को भी सुनाई। स्थूल वादी पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित उन मित्रों ने श्री लाहिड़ी का इस बात को लेकर खूब उपहास किया। इस पर दुःखी होकर श्री लाहिड़ी ने अपने गुरु का आवाहन किया। एक प्रकाश पुँज के मध्य छाया-शरीर से उपस्थित होकर गुरु ने उन मित्रों की भ्राँति का निवारण तो कर दिया पर साथ ही उन्होंने श्री लाहिड़ी को भी डाँटा और कहा-योग शक्तियों का उद्देश्य प्रदर्शन नहीं आत्म-कल्याण और लोक मंगल की आवश्यकताओं को पूरा करना होता है फिर कभी ऐसे प्रदर्शन में मत फँसना अन्यथा फिर पहले जैसी योग भ्रष्टता के भागी बनोगे। श्री लाहिड़ी को अपनी भूल का बड़ा पश्चाताप हुआ उसके बाद से ही उन्होंने योग शक्ति के सार्वजनिक प्रदर्शन की बात का परित्याग कर दिया और क्रिया योग के अभ्यास में जुट गये।


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