(पं0 श्रीराम शर्मा आचार्य)
आत्मा का विकास परमात्मा के समान विस्तृत होने में है। जो सीमित है संकीर्ण है वह क्षुद्र है-जिसने अपनी परिधि बढ़ा ली है वही महान है। हम क्षुद्र न रहें-महान बनें। असन्तोष-सीमित अधिकार से दूर नहीं होता। थोड़ा मिल जाय तो अधिक पाने की इच्छा रहती है। सुरसा के मुख की तरह तृष्णा अधिक पाने के लिए मुँह फाड़ती चली जाती है। आग में घी डालने से वह बुझती कहाँ है अधिक ही बढ़ती है। तृप्ति तब मिलेगी जब इस संसार में जो कुछ है सब पा लिया जाय। यह हँसी नहीं-कल्पना नहीं। समग्र को पा सकना-स्वल्प पाने की अपेक्षा सरल है।
मान्यता को विस्तृत कीजिये यह सारा विश्व मेरा है। नीला विशाल आकाश मेरा। हीरे मोतियों की तरह झाड़ फानूसों की तरह जगमगाते हुए सितारे मेरे-सातों समुद्र मेरी सम्पदा, हिमालय मेरा-गंगा मेरी-पवन देवता मेरे-बादल मेरी सम्पत्ति। इस मान्यता में कोई बाधा नहीं किसी को रोक नहीं। समुद्र में तैरिये, गंगा में नहाइये-पर्वत पर चढ़िये, पवन का आनन्द लूटिये, प्रकृति की सुषमा देखकर उल्लसित हूजिये। कोई बन्धन नहीं-कोई प्रतिरोध नहीं। सभी मनुष्य मेरे-सभी प्राणी मेरे। ‘मेरे’ की परिधि इतनी विस्तृत करनी चाहिए समस्त चेतन जगत उसमें समा जाय। अपनी सीमित पीड़ा से कराहेंगे तो कष्ट होगा और दुःख। पर जब मानवता की व्यथा को अपनी व्यथा मान लेंगे और लोक पीड़ा की कसक अपने भीतर अनुभव करेंगे तो मनुष्य नहीं, ऋषि, देवता और भगवान जैसी अपनी अन्तःस्थिति हो जायगी। अपना कष्ट दूर करने का जैसा प्रयत्न किया जाता है वैसी ही तत्परता विश्व व्यथा के निवारण में जुट पड़ेगी। इस चेष्टा में लगे हुए व्यक्ति को ही तो महामानव और देवदूत कहते हैं। ईश्वर का अनुग्रह और सिद्धियों का अनुदान ऐसी ही उदात्त आत्माओं के चरणों में लोटता है।