तितिक्षा ही हमें सुदृढ़ बनाती है।

March 1972

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कठिनाइयों से डर कर यदि हिम्मत हार बैठा जाय बात दूसरी है अन्यथा प्राणधारी की अदम्य जीवनेच्छा इतनी प्रबल है कि वह बुरी से बुरी परिस्थितियों में जीवित ही नहीं-फलता-फूलता भी रह सकता है।

उत्तरी ध्रुव पर ‘एस्किमो’ नामक मनुष्य जाति चिरकाल से रहती है। वहाँ घोर शीत रहता है। सदा बर्फ जमी रहती है। कृषि तथा वनस्पतियों की कोई सम्भावना नहीं। सामान्य मनुष्यों को उपलब्ध होने वाले साधनों में से कोई नहीं फिर भी वे जीवित हैं। जीवित ही नहीं परिपुष्ट भी हैं। परिपुष्ट ही नहीं सुखी भी हैं। हम अपने को जितना सुखी मानते हैं वे उससे कम नहीं कुछ अधिक ही सुखी मानते हैं और सन्तोषपूर्वक जीवन यापन करते हैं। जरा सी ठण्ड हमें परेशान कर देती है पर एस्किमो घोर शीत में आजीवन रहकर भी शीत से प्रभावित नहीं होते।

जीवनेच्छा जब तितीक्षा के रूप में विकसित होती है और कष्ट साध्य समझी जाने वाली परिस्थितियों से भी जूझने के लिए खड़ी हो जाती है तो मानसिक ढाँचे के साथ-साथ शारीरिक क्षमता भी बदल जाती है और प्रकृति में ऐसा हेर-फेर हो जाता है कि कठिन समझी जाने वाली परिस्थितियाँ सरल प्रतीत होने लगें। वन्य प्रदेशों के निवासी-सभ्य शहरी लोगों की तुलना में जितने अभाव ग्रस्त हैं उतने ही सुदृढ़ भी रहते हैं। परिस्थिति को अनुकूल बनाने का प्रयत्न तो करना चाहिए पर परिस्थिति के अनुकूल अपने को ढालने की मनस्विता एवं तितीक्षा के लिए भी तत्पर रहना चाहिए।

जीव जगत में यह प्रक्रिया जहाँ भी अपनाई गई है वहाँ दृढ़ता बढ़ी है। पौधों में भी ऐसे साहसी मौजूद हैं जिन्होंने घोर विपरीतता से जूझ कर न केवल अपना अस्तित्व कायम रखा है वरन् शोभा, सौंदर्य की सम्पदा का स्थान भी पाया है।

घोर विपरीत परिस्थितियों में स्वावलम्बी जीवन जीने वाले पौधे वहाँ पैदा होते हैं जहाँ पानी का अभाव रहता है। उनकी आत्म निर्भरता यह सिद्ध करती है कि जीवन यदि अपनी पर उतर आये-तन तक खड़ा हो जाये तो विपरीत परिस्थितियों के आगे भी उसे पराजित नहीं होना पड़ता।

अमेरिका के मरुस्थल में और दक्षिणी अफ्रीका में पाये जाने वाले कैक्टस इसी प्रकार के हैं। वे जल के अभाव में जीवित रहते हैं। रेतीली जमीन में हरे-भरे रहते हैं और सब को सुखा-जला डालने वाली गर्मी के साथ अठखेलियाँ करते हुए अपनी हरियाली बनाये रहते हैं।

विकट परिस्थितियों के बीच रहने के कारण कुरूप भी नहीं होते वरन् बाग उद्यानों में रहने वाले शोभा गुल्मों की अपेक्षा कुछ अधिक ही सुन्दर लगते हैं। रेशम जैसे मुलायम, ऊन के गोले जैसे दर्शनीय, गेंद, मुद्गर, सर्प, स्तम्भ, ऊँट, कछुआ, साही, तीतर, खरगोश, अखरोट, कुकुरमुत्ते से मिलती-जुलती उनको कितनी ही जातियाँ ऐसी हैं जिन्हें वनस्पति प्रेमी अपने यहाँ आरोपित करने में गर्व अनुभव करते हैं। पत्तियाँ इनमें नहीं के बराबर होती हैं, प्रायः तने ही बढ़ते हैं पर उनकी ऊपरी नोंक पर ऐसे सुन्दर फूल आते हैं कि प्रकृति के इस अनुदान पर आश्चर्य होता है जो उसने इस उपेक्षित वनस्पति को प्रदान किया है।

पथरीली और रेतीली भूमि में-असह्य सूर्य ताप के बीच, पानी का घोर अभाव सहते हुए भी यह पौधे जीवित रहते और हरे-भरे बने रहते हैं। इन्हें रेगिस्तान का राजा कहा जाता है। पथरीली भूमि में दूसरे पौधे जीवित नहीं रह पाते क्योंकि वहाँ मिट्टी तो होती नहीं। पौधों के लिए आवश्यक पानी कैसे ठहरे? पानी के बिना पौधे कैसे जियें?

कैक्टस पौधों की सचेतना ऐसी है कि वे पानी के लिए जमीन पर निर्भर नहीं रहते। जब वर्षा होती है तब सीधे इन्द्र भगवान से अपनी आवश्यकता भर का पानी माँग लेते हैं और अपनी कोशिकाओं में भर लेते हैं।

प्रधानतया तो यह जल भण्डार तने में ही रहता है पर यदि उस जाति में पत्ते निकले तो उसमें भी उसी तरह की जल संग्राहक कोशिकाएं रहेंगी। यह तने पत्तियों की आवश्यकता भी स्वयं ही पूरी कर लेते हैं। सूर्य नारायण से आवश्यक प्रकाश प्राप्त करते रहने की क्षमता भी अपने में बनाये रहते हैं। तने में भरा हुआ जल भण्डार इतना प्रचुर होता है कि यदि लगातार छह वर्षों तक पानी न बरसे, इन्द्र देव रूठे रहें तो भी उनका एक तिहाई पानी ही मुश्किल से चुक पाता है।

सूर्य का ताप उनकी तरलता को भाप बना कर उड़ा न ले जाय इसके लिए उनका सुरक्षा आवरण बहुत मजबूत होता है। तनों का बाह्यावरण मोटा ही नहीं मजबूत भी होता है और उसमें ऐसे एक मार्गी छेद होते हैं जो सूर्य से प्रकाश तो ग्रहण करते हैं पर अपनी तरलता बाहर नहीं निकलने देते।

कैक्टस जानते हैं कि अपनी सुरक्षा का प्रबन्ध ताप किये बिना गुजारा नहीं। इस दुनिया में उनकी कमी नहीं जो दूसरों का उन्मूलन करके ही अपना काम चलाते हैं। इनके सामने नम्र सरल बनकर रहा जाय तो वे उस सज्जनता को मूर्खता ही कहेंगे और अनुचित लाभ उठायेंगे। भोले कहे जाने वालों का शोषण इसी प्रकार होता रहा है। वे इस तथ्य से अवगत प्रतीत होते हैं। तभी तो अपनी सुरक्षा के लिए-आक्रमणकारियों के दाँत खट्टे करने के लिए उनने उचित व्यवस्था की हुई है। दूसरों पर आक्रमण भले ही न किया जाय पर अपनी सुरक्षा का इन्तजाम रखने और आक्रमणकारियों को बैरंग वापिस लौटाने की व्यवस्था तो करनी ही चाहिए। कैक्टस यह प्रबन्ध कर सकने के कारण ही इस दुरंगी दुनिया के बीच जीवित है।

कैक्टस के तनों पर नुकीले काँटे होते हैं। वनस्पति चर जाने के लालची पशु उनकी हरियाली देखकर दौड़े आते हैं पर जब काँटों की किलेबन्दी देखते हैं तो चुपचाप वापिस लौट जाते हैं।

इन पौधों की रंग-बिरंगी विभिन्न आकृति-प्रकृति की अनेक जातियाँ पाई जाती हैं। इनमें से फिना मैरी गोल्ड, मिल्क वीड, ओपाईन, पर्सलेन, र्स्पज, जिकेनियम, डंजी मुख्य हैं। इनमें से कितने ही ऐसे होते हैं जिनकी आकृति सुन्दर प्रस्तर खण्डों जैसी लगती है।

यह पौधे अब सब जगह शोभा सज्जा के काम आते हैं। राजकीय उद्यानों में, श्रीमन्तों के राजमहलों में, कला प्रेमियों में इनका बहुत मान है। इन्हें लगाये बिना कोई साधारण वनस्पति उद्यान अधूरा ही माना जाता है। सर्वसाधारण में भी इनकी लोकप्रियता बढ़ी है और हर जगह उन्हें मँगाया सजाया जा रहा है।

सम्भवतः यह इनका दृढ़ता, कठोरता, स्वावलम्बिता और तितीक्षा जैसी विशेषताओं का ही सम्मान है।

मनुष्य जितना नाजुक बनता जायगा उतना ही दुर्बल बनेगा और परिस्थितियाँ उस पर हावी होंगी। किन्तु यदि दृढ़ता, तितीक्षा, कष्ट सहिष्णुता और साहसिकता अपनाये रहे तो न केवल शरीर वरन् मन भी इतना सुदृढ़ होगा जिसके सहारे हर विपन्नता का सामना किया जा सके।


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