कुण्डलिनी दो शक्तिशाली ध्रुव केन्द्रों की अधिष्ठात्री

March 1972

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विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि परमाणु भी पदार्थ (मैटर) की अविभाज्य इकाई नहीं है। वह भी अनेक खण्डों में बँटा हुआ है। और अपने सहयोगी-इलेक्ट्रोन-प्रोट्रॉन-न्यूट्रोन-आदि सहयोगियों के साथ अपना सामूहिक क्रिया-कलाप चला रहा है। इलेक्ट्रान सिद्धाँत के अनुसार अणु भी एक छोटे आकार का ब्रह्माण्ड है। जिसकी तुलना बड़े रूप में सौर मण्डल से की जा सकती है। इस परमाणु पद्धति (ऐटेमिक सिस्टम) के केन्द्र से धनात्मक बिजली (पाजेटिव इलेक्ट्रिसिटी) चार्ज होती रहती है। जिससे चारों तरफ ऋणात्मक बादल समूह को शक्ति मिलती रहती है। इसे इलेक्ट्रान रिवाल्व (Electrone Rovolv) कहते हैं। इसी प्रकार यहाँ भी एक धनात्मक चार्ज केन्द्र में स्थिर रहता है और ऋणात्मक चार्ज उस केन्द्र के चारों ओर गतिशील रहते हैं। जो बात अणु के ऊपर लागू होती है वही सारे ब्रह्माण्ड और समष्टि पद्धति (Cosmic Systeeu) पर भी लागू होती है। विश्व पद्धति के सारे ग्रह नक्षत्र सूर्य के चारों और चक्कर लगाते हैं और यह पूर्ण सौर मण्डल किसी दूसरे महा केन्द्र के चक्कर काटता होगा। अन्त में सारे असंख्य सौर मण्डल किसी एक महा महान स्थिर केन्द्र का चक्कर काट रहे होंगे। वही समस्त ब्रह्माण्डों का केन्द्र ब्रह्म बिन्दु इस सारे महा प्रसार को बाँधे हुए है और अनुशासन में रख रहा है। इसी प्रकार इस समस्त शरीर के समस्त जीव कोषों को एक केन्द्र विन्दु साधे सँभाले हुए हैं। उसे महा प्राण कह सकते हैं। इस महा प्राण के दो ध्रुव हैं। (1) एनाबोलिक (Anabolic) (2) केटा बोलिक (Ketabolic) इन्हें आध्यात्मिक भाषा में सहस्रार चक्र और मूलाधार चक्र कह सकते हैं। इसी के आधार पर हमारी गतिशीलता और चेतना टिकी हुई है। इन दोनों को उपासनात्मक प्रयोजन के लिए शिव और शक्ति भी कहा जाता है। इन दोनों का समन्वय जिस सूत्र द्वारा होता है उसे ही कुण्डलिनी समझना चाहिए।

कुंडलिनी के दो शक्ति स्रोत हैं, इसीलिए दो भागों में विभक्त भी करते हैं एक सूर्य धारा दूसरी पृथ्वी धारा। सूर्य धारा को धन विद्युत (पाजेटिव) और पृथ्वी धारा को ऋण विद्युत (नैगेटिव) कह सकते हैं। दोनों ध्रुवों पर यह दो शक्तियाँ संव्याप्त है और एक दूसरे को परस्पर खींचती, बाँधती तथा सहायता करती हैं। दोनों के बीच जो संबंध सूत्र है उसे शक्ति दण्ड कहते हैं। यह संसार इसी शक्ति बंधन में बँधा हुआ नियत प्रयोजन के लिए प्रयुक्त हो रहा है। मनुष्य शरीर की रचना भी भूलोक की तरह ही है। उसके भी दो ध्रुव हैं। उत्तर ध्रुव मस्तिष्क का मध्य बिन्दु-सहस्रार चक्र और दक्षिण ध्रुव काम-बीज मूलाधार चक्र इन दोनों को मेरुदण्ड ने कसकर बाँधा हुआ है। आँख से दिखाई पड़ने वाले स्थूल मेरुदण्ड की सूक्ष्म शक्ति का नाम ब्रह्म नाड़ी है उसी के भीतर अदृश्य रूप से विद्यमान इस शक्तिधारा के तीन क्रियाकलाप हैं (1) इड़ा (2) पिंगला (3) सुषुम्ना। इन तीनों को मेरुदण्ड स्थिर रखने वाली ब्रह्म नाड़ी की अन्तरंग, सहायिका अथवा उप शक्तियाँ कहना चाहिए।

दोनों ध्रुवों को परस्पर संबंध सूत्र में बाँधे रहने वाली भौतिक शक्ति दण्ड को वैज्ञानिक भाषा में ‘कडूमस’ कहते हैं। शरीर के ध्रुवों से सम्बद्ध रखने का कार्य कुण्डलिनी करती है। यह धारा क्षीण है यदि जितना सम्बन्ध आवश्यक है उतना नहीं होगा तो संसार का ढाँचा ढिलमिलाने लगेगा। अन्न उत्पादन से लेकर सामान्य स्वास्थ्य, प्रकृति सन्तुलन तथा प्राणियों की मनोदशा में अनायास ही गिरावट आ जायगी। इसी प्रकार मेरुदण्ड में स्थूल अस्थि घटकों तथा स्नायु तन्तुओं में गड़बड़ी पैदा हो जाय तो शरीर में अनेक बीमारियाँ तथा खामियाँ पैदा हो जायेंगी। इस स्थान पर अवस्थित सूक्ष्म शक्तियाँ जिन्हें ब्रह्मनाड़ी और उसकी सहयोगिनियों का समूह कह सकते हैं यदि दुर्बल पड़ जायें तो मनुष्य का शारीरिक और मानसिक स्तर बेतरह गिरने लगेगा। इस प्रकार की गिरावट को रोकने और उस संस्थान की समर्थता बढ़ाकर जीवन क्रम में सर्वांगीण प्रगति की सम्भावना उत्पन्न करना भी कुण्डलिनी योग का एक प्रयोजन है।

आत्म विद्या के विद्यार्थियों को यह तो विदित ही रहता है कि यह मानवीय पिण्ड (शरीर) विश्व ब्रह्माण्ड का एक छोटा सा नमूना मात्र है। सूर्य चलता है और सौर मण्डल के ग्रह-उपग्रह उसकी परिक्रमा करते हैं। ठीक इसी प्रकार परमाणु भी अकेला नहीं होता, उसके साथ इलेक्ट्रान, प्रोट्रॉन, न्यूट्रोन आदि की एक मंडली रहती है जो ‘न्यूक्लियस’ से प्रभावित होकर अपना कार्य उसी तरह चलाती है जिस तरह सौर मण्डल के साथ। विशाल वृक्ष का सारा ढाँचा छोटे से बीज के भीतर पूरी तरह विद्यमान रहता है। मनुष्य का शरीर ही नहीं उसका स्वभाव, बुद्धि, अन्तःकरण आदि महत्वपूर्ण सूक्ष्म चेतना संस्थान भी अति सूक्ष्म रज वीर्य में पूरी तरह “जीन्स” रूप में विद्यमान रहता है। ब्रह्माण्ड की विशाल व्यापकता को यदि हम बीज रूप में देखना चाहें तो उसे मानव शरीर की सूक्ष्मता का विश्लेषण करते हुए भली प्रकार जान सकते हैं। जान ही नहीं सकते उस व्यक्तिगत सूक्ष्मता का विश्व गरिमा के साथ जुड़े हुए अविच्छिन्न सम्बन्ध का लाभ भी उठा सकते हैं। यह संबंध सूत्र यदि प्रसुप्त न रहकर जागृत हो जाय, दुर्बल न रहकर परिपक्व हो जायें तो विश्वव्यापी शक्ति भण्डार से अपने लिए आवश्यक वस्तुयें प्रचुर मात्रा में उपलब्ध आकर्षित कर सकता है इतना ही नहीं-अपनी दुर्बल इकाई को समर्थ बनाकर उससे विराट विश्व के जड़ चेतना संस्थान को प्रभावित कर सकता है।

साधना और तपश्चर्या वस्तुतः इसी अति महत्वपूर्ण विज्ञान का नाम है। प्राचीन काल में तप साधना के द्वारा जिनने जो वरदान पाये थे उनके इतिहास, पुराण विस्तारपूर्वक हम पढ़ते सुनते हैं। इन दिनों वैसी उपलब्धियाँ प्रत्यक्ष न होने से वे बातें कपोल कल्पना जैसी लगती हैं पर वस्तुतः बात ऐसी नहीं है। यदि ठीक विधि से-ठीक उपकरणों द्वारा उस विज्ञान को कार्यान्वित किया जाय तो पूर्व काल की कपोल कल्पना समझी जाने वाली बातों को आज भी प्रत्यक्ष किया जाना सम्भव है।

तपस्वियों द्वारा साधना के फलस्वरूप प्राप्त किये वरदान और कुछ नहीं विराट विश्व की अन्तरंग शक्तियों में से कुछ का इच्छानुकूल उपयोग कर सकने की क्षमता ही समझी जानी चाहिए इसी प्रकार शाप वरदान दे सकने की क्षमता को अपनी व्यक्तिगत इकाई को इतना प्रबल बना लेना ही समझना चाहिए जिससे मनुष्यों या पदार्थों को अपनी संकल्प शक्ति के प्रहार से अभीष्ट दिशा में मुड़ने के लिए विवश किया जा सके। देवताओं का अस्तित्व इस विराट विश्व में उनकी विशालता के अनुरूप व्यापक भी हो सकता है। पर हमसे देवताओं के जिस अंश का प्रत्यक्ष और सीधा सम्बन्ध है वह अंश अपने भीतर ही ‘शक्ति बीजों’ के रूप में विद्यमान रहता है। साधना का प्रयोजन इन्हीं शक्ति बीजों को जागृत और समर्थ बनाना है। समष्टिगत देवताओं का आशीर्वाद, वायु, वर्षा, धूप, शीत, दुर्भिक्ष, सुर्भिक्ष आदि के रूप में समग्र रूप से बरसता है और उससे सबको समान लाभ मिलता है। व्यक्तिगत वरदान आशीर्वाद देने वाले देवता अपने शरीर में ही विद्यमान रहते हैं। विविध-विधि साधनाओं द्वारा उन्हीं को स्वयं समर्थ बनाया जाता है और अपनी पात्रता एवं तपस्या के अनुरूप उन्हीं से लाभ पाया जाता है जिसे ‘अलौकिक’ चमत्कारी, देव प्रदत्त, वरदान के रूप में आश्चर्य के साथ सुना और देखा जाता है।

ऐसे मानवीय पिण्ड के अंतर्गत इस प्रकार के मूल शक्ति संस्थान दो हैं। उन्हें उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव की समता दी जा सकती है। इन्हीं को अग्नि और सोम प्राण और रयि-स्वाहा और स्वधा कहा जाता है। इनमें से एक को सूर्य दूसरे को चन्द्र कह सकते हैं। ‘सहस्रार’-को उत्तरी ध्रुव-सूर्य केन्द्र माना जाता और ‘आधार’ को चन्द्र। एक को शिव कह सकते हैं दूसरे को शक्ति। यों इन दोनों को ही जीवन अग्नि कह सकते हैं और परस्पर सम्बद्ध मान सकते हैं। सूर्य के प्रकाश से ही चन्द्रमा प्रकाशित होता है। कारण जो भी हो चन्द्रमा तल पर प्रकाश के समय ज्वलन्त ऊष्मा और अन्धकार के समय शून्य तापमान जैसी शीतलता रहती है। ‘आधार’ में भी कम अग्नि नहीं है। इसलिए वहाँ भी अग्नि कुण्ड माना गया है। सहस्रार तो सहस्र किरणों वाला प्रत्यक्ष सूर्य है ही। आकाशस्थ सूर्य में सात रंग की सात किरणें, सात शक्तियाँ, सात अग्नियाँ मानी जाती हैं पर सहस्रार में हजार किरणों-हजार अग्नियों-हजार शक्तियों का अंकन किया गया है। उनकी संख्या और भी अधिक हो सकती है। इन्हीं किरणों को शरीरगत और मनोगत आत्म-शक्तियों के रूप में आत्मविद्या के साथ जानने ओर उनके साथ संबंधित होने का प्रयत्न करते हैं।

उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव यों परस्पर बहुत दूर हैं पर वस्तुतः उनके बीच एक सुदृढ़ संबंध सूत्र विद्यमान है। इसी सूत्र के आधार पर उन दोनों में सन्निहित अनन्त शक्ति भण्डार का परस्पर आदान-प्रदान होता रहता है। पिण्ड जगत में भी ठीक यही स्थिति है। उत्तरी ध्रुव के शक्ति स्रोत का प्रवाह दक्षिणी ध्रुव तक-सहस्रार से मूलाधार तक-पहुँचाने वाले सूत्र को ‘इड़ा’ कहते हैं। और जननेन्द्रिय मूल-मूलाधार से-दक्षिण ध्रुव से उत्तर ध्रुव तक शक्ति प्रवाह पहुँचाने वाले सूत्र को पिंगला कहते हैं। जहाँ इन दोनों का सम्मिश्रण है उसे सुषुम्ना कहते हैं। मोटे तौर से यों समझा जाय कि बिजली के तारों में धन विद्युत पिंगला और ऋण विद्युत ‘इड़ा’ कहते हैं। वे दोनों तार जहाँ भी मिलकर स्फुल्लिंग तरंग ‘उत्पन्न करते हैं उसे ‘सुषुम्ना’ माना जाय।

इडा पिंगला और सुषुम्ना का कुण्डलिनी विद्या के अंतर्गत जो बार-बार उल्लेख किया जाता है उसे इस शक्ति प्रवाह को दौड़ाने वाली ‘फ्रीक्वेन्सी’ के रूप में जाना जाय। इन्हें रक्त वाहिनी धमनियाँ न समझा जाय। मेरुदण्ड में उनका उल्लेख इसी रूप से हुआ है कि वे शक्तियाँ इस आधार के साथ अपना प्रवाह जारी रखती हैं। और भी मोटे रूप से समझना हो तो मस्तिष्क को उत्तरी ध्रुव (पिंगला) कहिये। जननेन्द्रिय को ‘इडा’ और इन दोनों को आपस में जोड़कर रखने वाली हड्डी मेरुदण्ड को (सुषुम्ना) रीढ़ की हड्डी। एक दीखते हुए भी उसमें छोटे-छोटे कई टुकड़े परस्पर जुड़े हुए हैं। इन जोड़ों से जो ज्ञान तन्तु निकलते हैं वे शरीर के विभिन्न अवयवों से सम्बद्ध हैं और उन्हें प्रभावित करते हैं। रीढ़ की हड्डी एक प्रकार से सारे शरीर में ही चेतना सञ्चार करती है। उसमें सुई लगा देने पर सारा शरीर सुन्न हो जाता है और उस चेतना हीन अवस्था में बड़े-बड़े आपरेशन बिना रोगी का कुछ अनुभव हुए-होते रहते हैं। सुषुम्ना को मोटे रूप में इस तरह भी जाना जा सकता है। अध्यात्म शास्त्र में इन तीन नाड़ियों का और उनसे सम्बन्धित अन्य छोटी नाड़ियों का वर्णन इस प्रकार हुआ है-

इडा वामे च विज्ञेया पिंगला दक्षिणे स्मृता।

इडा नाडी स्थिता वामा ततो व्यस्ता च पिंगला।

इडायाँ तु स्थितश्चन्द्रः पिंगलायाँ च भास्करः॥

इडा वाम भाग में पिंगला दक्षिण भाग में है। इडा नाडी वामावर्त से स्थित है और पिंगला उससे व्यस्त (विपरीत) दक्षिणावर्त से स्थित है। इडा में चन्द्रमा और पिंगला में सूर्य स्थित है।

वामे चामृतरुपा स्याज्जगदाप्यायनं परम्।

दक्षिणे चरभागेन जगदुत्पादयेत्सदा॥

वाम भाग की नाडी इडा अमृत रूपा है और सम्पूर्ण जगत का पोषण करती है तथा दक्षिण में चर भाग से स्थित पिंगला नाड़ी सदैव जगत को पैदा करती है।

शक्तिरुपः स्थितश्चन्द्रों वामनाडीप्रवाहकः।

दक्षनाडीप्रवाहश्च शंभुरुपो दिवाकरः॥

वाम नाडी का प्रवाहक चन्द्रमा शक्ति रूप से स्थित है और दक्षिण नाडी का प्रवाहक सूर्य शम्भु रूप से स्थित है।

तासाँ मध्ये दश श्रेष्ठा दशानाँ तिस्र उत्तमाः।

इडा च पंगला चैव सुषुम्ना च तृतीयका॥

गान्धारी हस्तिजिह्वा च पूषा चैव यशस्विनी।

अलंबुषा कुहुश्चैव शंखिनी दशमी तथा॥

उन सब नाडियों में दस श्रेष्ठ हैं और उन दसों में ये तीन उत्तम हैं-(1) इडा (2) पिंगला और (3) सुषुम्ना (4) गान्धारी (5) हस्ति जिह्वा (6) पूषा (7) यशस्विनी (8) अलंबुषा (9) कुहू और (1) शंखिनी है।

ऊर्ध्वं मेढ्रादधोनाभेः कन्दो योनिः खगाण्डवत्।

तत्र नाडय़ः समुत्पन्नाः सहस्राणाँ द्विसप्ततिः॥

तेषु नाडीसहस्रेषु द्विसप्तति रुदाहृताः।

प्रधानाः प्राणवाहिन्यो भूयस्तासु दश स्मृता॥

इडा च पिंगल चैव सुषम्णा च तृतीयका।

गान्धारी हस्तिजिह्वा च पूषा चैव यशस्विनी॥

अलम्बुषा कुहूश्चैव शंखिनी दशमी स्मृता।

एतन्नाडीमयंचक्रं ज्ञातव्यं योगिभिः सदा॥

-गोरक्ष पं. 25 से 28

लिंग मूल से ऊपर नाभि से नीचे-कन्द से सदृश नाडियों का मूल उत्पत्ति स्थान पक्षी के अण्डे जैसे आकार वाला है। वहाँ से 72 हजार नाड़ियाँ निकली हैं और वे समस्त शरीर में व्याप्त हैं ॥ 25॥

उन 72 हजार नाडियों में 72 ही मुख्य हैं। इनमें भी प्राण वाहिनी नाड़ियां दस ही हैं॥ 26॥

इडा, पिंगला, सुषुम्ना, गान्धारी, हस्ति, जिह्वा, पूषा, यशस्विनी, अलंबुषा, कुहू, शंखिनी यह मुख्य दस नाड़ियाँ हैं। यह नाडी चक्र योगियों को जानना ही चाहिए।

भूतत्व वेत्ताओं और विश्व विद्युत विद्याओं के अन्वेषक का प्रतिपादन है कि पृथ्वी की चुम्बकीय शक्ति के बारे में अभी तक वैज्ञानिक बहुत थोड़ी जानकारियाँ उपलब्ध कर सके हैं पर जितना ज्ञात हो सका है वह प्रकृति की अपार शक्ति और उसके आश्चर्यजनक स्वरूप का प्रतिपादन करता है। अनुमान है कि पृथ्वी का चुम्बकीय क्षेत्र पृथ्वी तल की गहराई में एक प्रकार के तरल पदार्थ में प्रवाहित विद्युत धाराओं के बहाव के कारण पैदा होता है। उत्तर से दक्षिण ध्रुव की ओर एक सीधी पट्टी चली गई है यही पृथ्वी का जीवन तत्व, उसकी ऊष्मा और सक्रियता का स्रोत है। यदि यह आग ठंडी पड़ जाये और विद्युत प्रवाह नष्ट हो जाये तो पृथ्वी में दिखाई दे रहा सारा जीवन ही नष्ट भ्रष्ट हो जाये।

विद्युत धाराओं की उत्पत्ति का कारण वहाँ पाई जाने वाली धातुयें हैं। इन धातुओं के विद्युत गुण धर्म और तापमान भिन्न-भिन्न होते हैं और उनके मिलने से ही विद्युत धारा प्रवाहित होती है। पृथ्वी के अपनी ही धुरी पर निरन्तर घूमने के कारण तरल क्षेत्र की यह ऊर्जा ही विद्युत आवेश के रूप में परिवर्तित हो जाती है।

जीवन सत्ता भी प्राणमय (अग्नि मय), तापयुक्त, प्रकाश कणों के समान सूक्ष्म किन्तु तेजस्वी और विद्युत चुम्बकीय आवेश के रूप में है इस दृष्टि से पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र की जीवनी सत्ता से तुलना करें तो अध्यात्म विज्ञान दर्शन के सिद्धान्त की पुष्टि हो जाती है।

जीवन सत्ता, प्राण अग्नि, आत्म तेज एवं ब्रह्मवर्चस की इसी स्थिति में समझा जाना चाहिए। मस्तिष्क और जननेन्द्रिय के दो ध्रुव परस्पर संबंध रह कर ही शरीरगत और मनोगति सारे क्रिया-कलाप को गतिशील रखते हैं।

इस स्थिति में परिवर्तन भी होता रहता है। पृथ्वी की स्थिति में अन्तर आने पर इन ध्रुवों का स्वरूप स्थान और क्रिया-कलाप भी बदल जाता है फिर अतीत में दोनों ध्रुव जहाँ थे अब वहाँ नहीं है। उनने अपना स्थान छोड़ दिया है और इस स्थान परिवर्तन ने भू लोक की सारी स्थिति को प्रभावित किया है। जैसी शारीरिक-मानसिक स्थिति प्राणियों की पूर्व काल में थी वह अब नहीं है। और पदार्थों को आकृति से लेकर प्रकृति तक में असाधारण अन्तर पाया है। ठीक इसी प्रकार मानव-विश्व के पिण्ड ब्रह्माण्ड में भी जब स्थान परिवर्तन हो जाता है तो उसकी स्थिति काफी बदल जाती है। जागृत ‘सहस्रार’ और ‘आधार’ जब यथा स्थान थे तब सतयुग के दिव्य व्यक्तित्व और महान व्यक्तित्व दृष्टिगोचर होते थे। पर अब उनके स्थान भ्रष्ट हो जाने से स्थिति भी बदल गई और प्राचीन गौरव गरिमा में भारी अवसाद उत्पन्न हो गया। पृथ्वी के ध्रुवों का यथा स्थान लगना परमात्मा के हाथ है। वह युग परिवर्तन के समय पर ऐसा हेरफेर करता भी है। पर हम यदि चाहें तो अपनी धरती के अपनी काया के ध्रुवों को बदल कर जीवन की सारी परिस्थिति में ही हेरफेर कर सकते हैं। कुण्डलिनी साधना का प्रयोजन इन ध्रुव केन्द्रों को यथा स्थान व्यवस्थित करना और उनकी अस्तव्यस्तता को दूर करना भी है।

भू गर्भ विज्ञान स्वयं ही स्वीकार करता है कि ध्रुव अपना स्थान बदलते रहते हैं। आज के ध्रुवों की स्थिति पृथ्वी के भौगोलिक ध्रुवों से लग-भग एक हजार मील दूर है। चिर अतीत वाले भौगोलिक ध्रुव अक्रिय क्षेत्र हैं जबकि वर्तमान चुम्बकीय क्षमता वाले ध्रुव अत्यन्त तीव्र हल-चल वाले हैं।

पृथ्वी के वह भाग जो आजकल बहुत अधिक गर्म हैं उनके नीचे की खुदाई से प्राप्त वस्तुओं के विश्लेषण के बाद भूगर्भ शास्त्रियों ने पाया कि वह स्थान कभी हिमनद थे आज के ध्रुव जहाँ स्थित हैं उनके नीचे पाये जाने वाले अस्थि-अवशेष तथा पेड़ पौधों के विश्लेषण से भी इस बात की पुष्टि होती है कि वे कभी अत्यन्त गर्म स्थान थे। इससे निश्चित है कि भले ही भौगोलिक ध्रुवों से ध्रुवों की स्थिति समान ही क्यों न रहता हो पर वे अनादि काल से बदलते आ रहे हैं और उनके बदलने के साथ-साथ ही पृथ्वी के जलवायु क्षेत्र में भी परिवर्तन हुए हैं। ग्रह गणित के आधार पर भारतीय ज्योतिर्विदों ने काल को चतुर्थ युगी में बाँट कर जो भिन्न-भिन्न युगों की भिन्न-भिन्न परिस्थितियों का निरूपण किया है वह भी इस बात का प्रमाण है कि एक प्रलय से लेकर दूसरी प्रलय तक पृथ्वी के लोगों की मनःस्थिति से लेकर शारीरिक स्थिति तक जो परिवर्तन होते हैं वह इस चुम्बकीय क्षेत्र में परिवर्तन के कारण ही होते हैं। उत्तरी ध्रुव धीरे-धीरे दक्षिणी ध्रुव की ओर बढ़ रहा है और दक्षिणी उत्तरी की ओर। अमरीकी वैज्ञानिक डॉ0 ब्रुस सी-हीजन और नील उपडाइक ने महासागरों की तलहटी से प्राप्त सामग्री का विश्लेषण करने पर ज्ञात किया कि आज से करोड़ों वर्ष पूर्व ध्रुवों के पारस्परिक परिवर्तन की यह क्रिया सम्पन्न हुई।

पृथ्वी की इस स्थिति से मानवीय शरीर की तुलना करने पर इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि यदि शरीरगत ध्रुवों की स्थिति में परिवर्तन लाया जा सकें। सहस्रार और ‘आधार’ को यदि शून्य तापमान कर आज की स्थिति में न रहने देकर उन्हें साधना की ऊष्मा से उष्ण किया जा सके तो निश्चय ही वे अपने मूल स्थान पर आ सकते हैं और वही स्थिति पुनः उत्पन्न हो सकती है जो उस चिर अतीत काल में थी उसे देव युग-स्वर्ण युग-प्रकाश युग या सतयुग के नाम से पुकारते हैं। समस्त विश्व का युग परिवर्तन बड़ी शक्तियों के द्वारा ही सम्भव हो सकता है पर विश्व में आवश्यक हेर-फेर लाया जाना व्यक्तिगत साधना से भी संभव हो सकता है। कुण्डलिनी साधना इसी प्रयोजन को पूरा करती है। उस माध्यम से उत्पन्न आन्तरिक ऊष्मा उस सिकुड़न को दूर करती है जो उस प्राणाग्नि के लग-भग बुझ जाने के कारण उत्पन्न हुई है। शीत से हर चीज सिकुड़ती है। गर्मी से फैलती। तपश्चर्या की अग्नि अन्तरंग के प्रत्येक अवयव और शक्ति निर्झर को यथा स्थान यथावत् बनाये रहती है। पर आलसी और विलासी व्यक्ति जब साधना की ऊष्मा को बुझा देता है तो उनकी सिकुड़न सब कुछ कुरूप और विकृत बना देती है। जाड़े के दिनों में पैर की बिवाई फट जाती और उनमें दर्द होता है। चलने में अड़चन पड़ती है और पैर कुरूप दीखते हैं। गर्मी की ऋतु आने पर यह शिकायत अपने आप दूर हो जाती है। हमारी वर्तमान स्थिति को फटी हुई ‘बिवाई’ कहा जा सकता है। यदि हम अपने जीवन क्रम में साधनात्मक पुरुषार्थ से ग्रीष्म ऋतु पैदा कर लें तो बिवाई फटने जैसी वर्तमान दुर्दशा से छुटकारा प्राप्त करने में तनिक भी विलम्ब न लगे।

आज से कोई 2 करोड़ वर्ष पूर्व ऐसी स्थिति आई थी तभी ‘रेडियो लारिया’ नामक एक कोशीय जीव एकाएक अस्तित्व में आया पर उसकी अनेक किस्मों का एकाएक लोप हो गया। इसी प्रकार अब 2 हजार वर्ष बाद फिर से वह स्थिति आ सकती है जबकि मानवीय गुण सूत्रों (जीन्स) में अब की अपेक्षा हजारों गुने परिवर्तित बिल्कुल ही भिन्न कोटि के गुणसूत्रों का प्रादुर्भाव हो सकता है अर्थात् तब मनुष्य अब की अपेक्षा बिलकुल ही भिन्न किस्म का होगा। यह प्रलय वैज्ञानिक क्षेत्रों में चुम्बकीय प्रलय कही जाती है वह सब जीवन तत्व के उत्परिवर्तन की क्रीड़ा है।

इस परिवर्तन का कारण ब्रह्माण्ड किरणें (कॉस्मिक रेज) हैं। ब्रह्माण्ड किरणों का एक सशक्त प्रवाह ब्रह्माण्ड के किसी अज्ञात स्थान से दौड़ा चला आ रहा है। यह उत्तरी ध्रुव से पृथ्वी के भीतर घुसना चाहता है पृथ्वी की अपनी गति या चुम्बकीय क्षेत्र उन किरणें को दाहिने बाएं मोड़ देता है। यह भी संभव है कि यह सशक्त किरणें पृथ्वी की मूलाधार रेखा में प्रविष्ट कर चुम्बकीय क्षेत्र का निर्माण करती हों। यह किरणें यदि सीधी पड़ें तो मनुष्य जाति क्या सारी पृथ्वी जलभुन कर राख हो जाये। अतएव उसकी एक पट्टी पर यह प्रवाह दक्षिण ध्रुव तक जाता है। 3960 मील का वह क्षेत्र इतनी अधिक तीक्ष्ण गर्मी वाला क्षेत्र है कि वहाँ कोई भी वस्तु ठोस स्थिति में रह ही नहीं सकती। इसका तापमान और सूर्य के केन्द्र का तापमान एक बराबर 8000 सेन्टीग्रेड होता है। इस क्षेत्र का परिवर्तन ही पृथ्वी में पशु-पक्षी पेड़-पौधे और मनुष्य जीवन में परिवर्तन का आधार होता है। दोनों वैज्ञानिकों ने इस बात की पुष्टि की है कि 200 वर्ष बाद जब यह परिवर्तन करोड़ों वर्ष पूर्व की स्थिति में आयेंगे तब पृथ्वी में विलक्षण आकृति-प्रकृति वाले दैत्याकार देवाकार, अष्ट मुखी, दस मुखी, सहस्र बाहु ऐसे लोग पैदा होने लगेंगे यह सारी बातें उन तथ्यों को भी सत्य सिद्ध करती हैं जिनको भारतीय वांग्मय का अतिरंजन कह कर इन दिनों उपेक्षित कर दिया जाता है पर जीवन सत्ता का यह विश्लेषण यह बताता है कि पृथ्वी पर निस्संदेह यह सारी विलक्षणतायें रही हैं और आगे भी पैदा होती रहेंगी।

पृथ्वी के रासायनिक विश्लेषण की जानकारी इतनी अद्भुत नहीं थी जितनी की नवीनतम शोधों के अनुसार उसके विद्युत संस्थान की गतिविधियाँ परम विस्मयजनक लगती हैं। शरीर की जो रासायनिक जानकारी शरीर शास्त्र और चिकित्सा शास्त्र के आधार पर प्राप्त की गई है वह बहुत स्थूल है। बारीकी जानने का अवसर जबकि मिलना शुरू हुआ है तो वैज्ञानिकों को इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ रहा है कि इस लोक की समस्त दृश्य और अदृश्य हलचलों का कारण वह विद्युत संस्थान ही है जो हमें सब ओर से आवृत्त किये हुए है। यह प्रवाह कहाँ से आता है? क्यों आता है? उसमें हेर-फेर क्यों होता है? उस हेर-फेर से विश्व के पदार्थों, जीवधारियों, परिस्थितियों में अद्भुत अन्तर क्यों होता है? कौन करता है? इसका उत्तर अनीश्वरवादी विज्ञान वेत्ताओं को मिल नहीं रहा है? मिल भी नहीं सकता। वे अपने यन्त्र उपकरणों की पहुँच-उस अविज्ञात शक्ति केन्द्र तक ले जा सकने की बात सोच भी नहीं सकते जिसके इशारे पर इस भू विश्व का भाग्य पूरी तरह अवलम्बित है।

आत्म-विद्या के पथिक अपने शरीर विश्व पर चारों और आच्छादित शक्ति प्रवाह के मूल तत्व को समझते हैं। और आत्मा की इस सामर्थ्य से परिचित हैं कि अपने ‘पिंड’ में आवश्यक हेर-फेर स्वयं कर सकें और अवसाद के अन्धकार को हटाकर आवश्यक प्रकाश उत्पन्न कर सकें, आत्मा की ही पहुँच परमात्मा तक होती है, यही यन्त्र उपकरण है जो विराट-विश्व को प्रभावित करने वाले अविज्ञात व्यक्ति शक्ति प्रवाह में हेर-फेर करा सकता है और विश्व के भाग्य परिवर्तन की भी भूमिका प्रस्तुत कर सकता है। आत्म विद्या की सम्भावनायें-वहाँ से प्रारम्भ होती हैं जहाँ कि भौतिक विद्या की पहुँच की समाप्ति का अन्तिम सिरा होता है।

पिण्ड (शरीर) के जागृत ध्रुव उतने ही शक्ति सम्पन्न हो सकते हैं जितने पृथ्वी के ध्रुव। धरती के ध्रुव लकड़ी के जहाज में लगी मजबूत कीलों का अनायास ही उखाड़ कर उड़ा ले जाते हैं। मनुष्य के ध्रुव केन्द्र समस्त अवरोधों को उखाड़ सकते हैं और समस्त दिव्य सम्भावनाओं को अपने चुम्बकत्व से खींचने, जमा करने में समर्थ हो सकते हैं जो नर को नारायण स्तर का बनाकर दिखा सकते हैं। कुण्डलिनी साधना से यही पथ-प्रशस्त होता है। इसलिये उसकी सफल साधना का महत्व बताते हुए कहा है-

उद्धाटयेत्कपाटं तु तथा कुञ्चिकया हठात्।

कुण्डलिन्या तथा योगी मौक्षद्वारं प्रभेदयेत॥

-गोरक्ष प॰ 1/51

जैसे ताले में ताली लगाकर द्वार खोलते हैं उसी प्रकार समस्त बन्धन अवरोधों से छुटकारे का मार्ग कुण्डलिनी साधना द्वारा खोलना चाहिए।

यदा भवति सा संविद्विगुणीकृतविग्रहा।

सा प्रसूते कुण्डलिनी शब्द ब्रह्ममयी विभुः॥

शक्ति ततो ध्वनितस्मान्नादस्तस्मान्निबोधिका।

ततोऽर्धेन्दुस्ततो बिन्दुम्तस्मादसीत्परा ततः॥

पश्यन्ती मध्यमा वाणी वैखरी सर्ग जन्मभूः।

इच्छा ज्ञान-क्रियात्मासौ तेजोरुपा गुणात्मिका॥

क्रमेणानेन सृजति कुण्डली वर्णमालिकाम॥

-महामन्त्र

जागृत हुई कुण्डलिनी असीम शक्ति का प्रसव करती है। उससे नाद जागृत होता है फिर बिन्दु। परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी यह चारों वाणियाँ प्रखर होती हैं। इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति में उभार आता है और वर्ण मालिका की शृंखला से सम्बद्ध अनेक शारीरिक मानसिक शक्तियों का विकास होता है।


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