आँसू ढुलक पड़े। आँखों को बड़ा बुरा लगा। वह सोचने लगीं जिन आँसुओं को हमने अपनी कोख से जन्म दिया, उनके पालन-पोषण में हमने इतना श्रम किया, फिर भी उसके बदले में मिली केवल उपेक्षा।
नेकी कर कुँए में डाल वाली कहावत किसी ने सत्य ही कही है। इन पर इतना भी नहीं बना कि जाते समय कम से कम सूचित तो कर देते।
आँखें इसी ऊहापोह में पड़ी रहीं। साहस करके उन्होंने आँसुओं से बाहर जाने का कारण पूछ ही लिया।
‘पराधीनता का जीवन जीते-जीते हम तंग आ गये थे। संत तुलसी तक कह गये हैं कि पराधीन जीवन को स्वप्न में भी सुख की कामना नहीं करनी चाहिए। बहुत दिनों से इच्छा हो रही थी कि बाहर की ताजी हवा का भी आनन्द लिया जाये।’
आँखों ने बहुत समझाया ‘तुम तो हमारे दुःख-सुख के साथी रहे हो अतः अब छोड़ कर क्यों जा रहे हो?
आँसू ने रुकते-रुकते कहा ‘तुम क्या जानो पराधीनता में हमारा दम घुटने लगा था। अब हमारा स्वाभिमान जाग उठा है, तुम्हारे बंधन में रहने को तैयार नहीं।’
‘अच्छा! यदि तुम जा ही रहे हो तो जाओ, तुम पर हमारा क्या अधिकार। जबरन तो तुम्हें बाँधकर रखा नहीं जा सकता। पर एक बात का ध्यान रखना कि यह स्वतन्त्रता तुम्हें बहुत महंगी पड़ेगी, हो सकता है तुम्हारे अस्तित्व को ही खतरे में डाल दे। हवा के झोंके या तो तुम्हें सुखा देंगे अथवा धरती चूस कर अपने में मिला देगी। स्वजनों से प्रेम न करने वालों के साथ यही होता है। इसी प्रकार का दण्ड भुगतना पड़ता है और अपने अस्तित्व से हाथ धोना पड़ता है।’ उपकारी के प्रति कृतार्थ तो होना ही चाहिये।