-गीला, कच्चा बाँस आसानी से मोड़ा या घुमाया जा सकता है पर सूख जाने पर वह मुड़ता नहीं टूट जाता है। उठती आयु में मन को सँभाला सुधारा जा सकता है। बुढ़ापे में तो जड़ता जकड़ लेती है सो न आदतें बदलती हैं न इच्छायें सुधरती हैं।
-वासना रहित मन सूखी दियासलाई की तरह है जिसे एक बार घिसने पर ही आग पैदा हो जाती है। मनोरथों में डूबा मन गीली दियासलाई की तरह है जिसे बार-बार घिसने पर भी कुछ काम नहीं चलता है। भजन की सफलता के लिए मन को साँसारिक तृष्णाओं की नमी से बचाना चाहिए।
-पत्थर वर्षों तक नदी में पड़ा रहे तो भी उसके भीतर नमी नहीं पहुँचती। तोड़ने पर सूखा ही निकलता है किन्तु मिट्टी का ढेला जरा सा पानी पड़ने पर भी उसे सोख लेता है और गीला हो जाता है। भावनाशील हृदय थोड़े से उपदेश को भी हृदयंगम कर लेता है पर धर्माडम्बर में डूबे रहने वालों का ज्ञान जीभ तक ही सीमित रहता है। वे उसे भीतर नहीं उतारते। फलतः बकवादी भर रह जाते हैं।
-मेंढक के छोटे बच्चे की दुम जब तक नहीं झड़ती तब तक वह पानी में ही रहता है। पर बड़ा होने पर जब दुम झड़ जाती है तब पानी के भीतर भी रहता है और बाहर भी। मनुष्य की लिप्सा जब तक प्रबल रहती है तब तक भौतिक स्वार्थों में ही मन डूबा रहता है पर जब वासना रूपी पूँछ झड़ जाती है तब भौतिक और आत्मिक दोनों ही क्षेत्रों में भली प्रकार तत्पर रहा जा सकता है।
-गीली मिट्टी से ही खिलौने, बर्तन आदि बनते हैं। पकाई हुई मिट्टी से कुछ भी नहीं बनता। लिप्सा की आग में जिसकी भावना रूपी मिट्टी जल गई उसका न भक्त बनना सम्भव है न धर्मात्मा।
-बालू मिली शक्कर में से चींटी केवल शक्कर ही खाती है और बालू छोड़ देती है। इस भलाई-बुराई मय संसार में से सज्जन केवल भलाई ग्रहण करते हैं और बुराई की उपेक्षा करते हैं।
-धागे में गाँठ लगी हो तो वह सुई की नोंक में नहीं घुस सकता और उससे सिलाई नहीं हो सकती। मन में स्वार्थ भरी संकीर्णता की गाँठ लगी हो तो वह ईश्वर में नहीं लग सकता और जीवन लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकता।
-साँप के मुँह में जहर रहता है पैरों में नहीं। तरुणी स्त्रियों का चेहरा नहीं उनके चरण देखने चाहिए इससे मन में विकार उत्पन्न नहीं होता।
पतंगे को दीपक का प्रकाश मिल जाय तो फिर वह अँधेरे में नहीं लौटता भले ही उसे दीपक के साथ प्राण गँवाने पड़ें। जिन्हें आत्म बोध का प्रकाश मिल जाता है। वे अविद्या के अन्धकार में नहीं भटकते। भले ही उन्हें धर्म के मार्ग में अपना सर्वस्व समाप्त करना पड़े।
-बेटा नहीं, धन नहीं, स्वास्थ्य नहीं का रोना-रोते बहुत लोग देखे जाते है पर ऐसे रोने कोई विरले ही रोते हैं कि-प्रकाश नहीं, भगवान नहीं, सत्कर्म नहीं। यदि इनके लिए लोग रोने लगें तो उन्हें किसी बात की कमी न रह जाय।
-बच्चा गन्दगी में लिपटने का कितना ही प्रयत्न करे, माता उसकी मर्जी नहीं चलने देती और बलपूर्वक पकड़ कर स्नान करा देती है भले ही बच्चा रोता चिल्लाता रहे। भगवान भक्त को मलीनता से छुड़ाकर निर्मल बनाते हैं। इसमें भले ही भक्त अपनी इच्छा में अवरोध उत्पन्न हुआ देखकर रोता चिल्लाता रहे।
-चुम्बक पत्थर पानी में पड़ा रहे तो भी उसका लोहा पकड़ने और रगड़ते ही आग निकलने का गुण नष्ट नहीं होता। विषम परिस्थिति में घिरे रहने पर भी सज्जन अपनी आदर्शवादिता नहीं छोड़ते।