अनास्था हमें प्रेत-पिशाच बना देगी

March 1972

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धर्म अध्यात्म का परिष्कृत दृष्टिकोण अपनाने और धार्मिक जीवन जीने से परलोक से सद्गति प्राप्त होती है और आत्मा को शान्ति मिलती है। इतना ही नहीं वरन् व्यावहारिक जीवन में भी उसकी बड़ी उपयोगिता है, व्यक्ति को सुखी और समाज को समुन्नत बनाने में अध्यात्म दर्शन की कम उपयोगिता नहीं है।

कर्मफल, संयम, सदाचार, परोपकार, प्रेम, उदारता, कर्तव्यपालन जैसे अनेक विश्वास का सौर-मण्डल धर्मरूपी सूर्य के इर्द-गिर्द घूमता है। अध्यात्म सर्वथा एकाकी नहीं है। आस्तिकता का मतलब, मात्र ईश्वर की पूजा-पत्री कर देना नहीं वरन् यह भी है कि ईश्वर की इच्छा और विधि व्यवस्था को समझें और तदनुकूल अपने जीवन की रीति-नीति ढालने के लिए प्रयत्न करें। स्वर्ग, नरक और परलोक की मान्यता मानवी अन्तःकरण को देर-सवेर से कर्मफल मिलने का विश्वास दिलाती है। इससे आस्थावान व्यक्ति पुण्य का श्रेय या पाप का दण्ड तत्काल न मिलने पर भी उस ओर से निश्चिन्त नहीं हो जाता वरन् यह विश्वास रखे रहता है कि आज नहीं तो कल-यहाँ-नहीं तो वहाँ भले-बुरे कर्मों का फल मिल कर ही रहेगा। इस आस्था को बनाये रहना मनुष्य के चिन्तन और कर्तृत्व में अवाँछनीयता न बढ़ने देने के लिए एक अति प्रभावशाली अंकुश है। अध्यात्म की मान्यता व्यक्ति को सदाचरण और आदर्शवादी कर्तव्य पालन के लिए घाटा उठाने तक के लिए प्रोत्साहित करती है। यही वे प्रवृत्तियां हैं जिन पर व्यक्ति का स्तर और समाज का गठन सुव्यवस्थित और समुन्नत रखा जा सकता है।

उत्कृष्ट आदर्शों के प्रति यदि आस्थायें लड़खड़ाने लगें तो हर व्यक्ति स्वार्थपरायण होने की दिशा में अधिकाधिक तेजी के साथ बढ़ेगा। फलतः पारस्परिक स्नेह सद्भाव की-सहयोग और उदारता की उन सभी प्रवृत्तियों का अन्त हो जायगा जिनमें मनुष्य को कुछ त्याग करना पड़ता है और कष्ट उठाना पड़ता है।

समाज का ऋण हमारे ऊपर है, उसे चुकाने के लिए हमें समाज सेवा का अनुदान प्रस्तुत करने चाहिए। माता-पिता तथा गुरुजनों की सहायता से हम पले, बड़े हुए तथा स्वावलम्बी बने हैं, इस पितृऋण को चुकाने के लिए हमें तत्पर रहना चाहिए। पति-पत्नी में से किसी के अरुचिकर हो जाने पर भी उसकी पिछली सद्भावना के लिए ऋणी रहने तथा निबाहने को तत्पर रहना चाहिए। सबमें अपनी जैसी आत्मा समझ कर न्याय और ईमानदारी पर दृढ़ रहना चाहिए। यह शिक्षाएं धर्म ही दे सकता है। स्वार्थ नियन्त्रण और परमार्थ उत्साह की प्रेरणा अध्यात्म आदर्शों को अपनाने से ही मिल सकती है।

यदि इन आभारों को अस्त-व्यस्त कर दिया जाय तो मनुष्य जाति को ऐसी क्षति उठानी पड़ेगी जिसकी कभी भी पूर्ति न हो सके। आस्थाएं बड़ी कठिनाई से बनती और जमती हैं। उन्हें उखाड़ देना सरल है। पेड़ को छायादार होने में लम्बी साधना करनी पड़ती है पर यदि उखाड़ना हो तो कुछ घण्टे की काट-छाँट ही पर्याप्त है। धार्मिकता को कल्याणकारी वृक्ष बौने-उगाने और बढ़ाने में लाखों वर्ष लगे हैं। अनास्था का प्रतिपादन करके उसे उखाड़ देना कुछ बहुत कठिन नहीं है। पर यह ध्यान रखना चाहिए कि उसे दुबारा लगाया जाना सम्भव न होगा। विश्वासी को अविश्वासी बनाने के उपरान्त फिर दुबारा उसी स्थान पर लौटा कर ले आना कठिन है।

तर्क एक अन्धा तीर है। उसे किसी भी दिशा में छोड़ा जा सकता है। कई वकील लोग अपने मुवक्किल के पक्ष में धुँआधार दलील देते और बहस करते हैं। उनकी तर्क शैली प्रखर होती है। वस्तुस्थिति जानने पर वे जोर नहीं देते। वादी या प्रतिवादी जो भी सामने आ जाय तो उसी के पक्ष में तर्क दलील या प्रमाण उपस्थित करते हैं। मस्तिष्क ऐसा ही बेपेंदी का लोटा है। वह रुचि के पीछे चलता है। जो भी बात पसन्द हो उसी के समर्थन में बहुत कुछ कहा जा सकता है। दलील भी दी जा सकती है।और प्रमाण उदाहरण भी प्रस्तुत किये जा सकते हैं। धर्म एवं अध्यात्म के विरुद्ध बहुत कुछ कह सकना कुछ बहुत कठिन नहीं है। तेज दिमाग के लिए यह बाँये हाथ का खेल है।

देखना यह है कि क्या अनास्था उत्पन्न करने से व्यक्ति या समाज को कुछ लाभ भी मिलेगा? इस दिशा में जितना अधिक चिन्तन किया जाय उतना ही स्पष्ट होता जायगा कि उसमें लाभ की तुलना में हानि अधिक है।

आस्तिकता मात्र पूजा पाठ तक सीमित नहीं है उसके शाखा पल्लव सदाचार, कर्तव्य पालन और उदार व्यवहार तक फैले हुए हैं। जड़ के उखाड़ने से वह सभी उखड़ जायेंगे। क्योंकि भौतिकवादी दर्शन में स्वार्थ साधन ही मुख्य है। मांसाहार के पक्ष में यही दलील है कि स्वादिष्ट भोजन के अपने लाभ के लिए दूसरे को प्राण देने का भयानक कष्ट सहना पड़ता है तो उसकी हम चिन्ता क्यों करें? स्वार्थ प्रधान हो गया तो दूसरों की सुविधा-असुविधा अथवा न्याय-अन्याय की बात क्यों सोची जायगी?

अनास्था का जितना विस्तार हो रहा है उसी अनुपात से आदर्शवादिता का सारा ढाँचा लड़खड़ाने लगा है। जब ईश्वर नहीं, धर्म नहीं, परलोक नहीं, कर्म-फल नहीं, आत्मा नहीं तो फिर कर्तव्य पालन भी नहीं, स्वार्थों पर नियमन भी नहीं, आदर्शों के झमेले में पड़कर स्वयं असुविधा उठाने की भी आवश्यकता नहीं। यह ‘नहीं’ व्यक्ति की पशुता को बढ़ायेगी और समाज की मूलभूत आधार-उदार व्यवहार का अन्त करेगी। जैसे-जैसे अनास्था परिव्याप्त और प्रबल होती जायगी वैसे-वैसे उच्छृंखल आचरण, सिद्धान्त ही जीवन और अपराधी प्रवृत्तियों के उद्भव को आँधी, तूफान की तरह बढ़ता हुआ देखा जा सकेगा। ऐसा समाज किस के लिए? कितना? किस प्रकार सुविधाजनक होगा उसकी बहुत कुछ झाँकी इन दिनों की परिस्थितियों में भी जहाँ-तहाँ की जा सकती है।

इंग्लैण्ड के प्रख्यात पत्र ‘स्पेक्टेटर’ में कुछ समय पूर्व एक लेख उस देश के वृद्ध व्यक्तियों की दयनीय दशा की विवेचना के संदर्भ में छपा था सन्तान की ओर से पूरी तरह उपेक्षित इन असमर्थ व्यक्तियों को उस संतान का रत्ती भर भी सहयोग नहीं मिलता, जिनके लालन-पालन और स्वावलम्बन में उन्होंने भावनापूर्वक उदार सेवा की थी। लेखक ने इन दुखियों की मनोदशा का चित्रण करते हुए लिखा है-इस देश के अधिकाँश वृद्धजन अपनी असमर्थ स्थिति में सन्तान की रत्ती भर भी सेवा सहानुभूति नहीं पाते तो यह करुण विलाप करते हैं कि हे भगवान! किसी तरह मौत आ जाये तो चैन मिले। पर उनकी पुकार कोई भी नहीं सुनता। दुखियारे वृद्धों का यह वर्ग द्रुतगति से बढ़ता ही जाता है।

कोरोनर (लन्दन) के डॉक्टर मिलन को पिछले दिनों 700 दुर्घटनाग्रस्त मृत शवों का विश्लेषण करना पड़ा। उनमें एक तिहाई आत्महत्या के कारण मरे थे इन आत्महत्या वालों में अधिकाँश ऐसे बूढ़े लोग थे, जिन्हें बिना किसी सहायता के जीवन यापन भारी पड़ रहा था और उनने इस तरह घिस-घिस कर मरने की अपेक्षा नींद


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