विश्वामित्र बहुत बड़े तपस्वी थे, एक बार उनके मन में उत्पन्न हुये ईर्ष्या के भाव ने बहुत बड़ा अनर्थ करा दिया। उन्होंने वसिष्ठ के पुत्रों को मार डाला। फिर भी वसिष्ठ मन में प्रतिहिंसा या प्रतिशोध की भावना उत्पन्न नहीं हुई। उन्हें तनिक भी क्रोध नहीं आया और न उन्होंने प्रत्यक्ष रूप में कोई शोक-सन्ताप ही प्रकट किया।
छल-कपट, ईर्ष्या और द्वेषादि विकार जिस हृदय में अपना अड्डा जमा लेते हैं ये उसकी दूरदर्शिता को भी पंगु बना देते हैं। वसिष्ठ की यह सहनशीलता देखकर विश्वामित्र में सहानुभूति उत्पन्न होनी चाहिए थी पर यहाँ उल्टा प्रभाव ही हुआ। वसिष्ठ के अहिंसक भाव का अर्थ यह निकाला गया कि इनमें बदला लेने की शक्ति नहीं है। अतः क्यों न इनकी भी हत्या कर दी जाये।
रात के समय विश्वामित्र इसी उद्देश्य से वसिष्ठ के आश्रम में पहुँचे। चाँदनी छिटकी हुई थी। वसिष्ठ और उनकी पत्नी अरुंधती का वार्तालाप चल रहा था। विश्वामित्र ने दबे पाँव उनका भेद लेना चाहा। वह चुपचाप खड़े होकर उनकी बात सुनने लगे।
अरुंधती ने कहा-’देखिये, आज की चाँदनी कितनी सुन्दर और मोहक छिटकी हुई है।’ वसिष्ठ ने उत्तर दिया-’हाँ! हाँ!! प्रिये चाँदनी की शीतलता और सुन्दरता विश्वामित्र की तपस्या के समान दूसरों को सुख और आनन्द देने वाली है।’
विश्वामित्र ने वसिष्ठ के मन के इस सात्विक व पवित्र अंश को देखा तो उनका दुष्ट भाव न जाने कहाँ तिरोहित हो गया। उनका हृदय मोम की तरह पिघल गया। वह अपने को अब अधिक समय तक छिपाये न रख सके। सामने आकर वह वसिष्ठ के चरणों में झुक गये।
वसिष्ठ ने उन्हें एकदम ऊपर उठाकर अपने हृदय से लगाते हुए कहा-’ब्रह्मर्षि! आज आप क्या कर रहे हैं? इससे पूर्व वसिष्ठ के मुँह से कभी भी ब्रह्मर्षि शब्द का प्रयोग नहीं हुआ था। विश्वामित्र की विनम्रता देखकर अनायास ही उनके मुख से यह निकला था। उनकी इस आकस्मिक विनम्रता से वसिष्ठ अत्यन्त ही प्रभावित हुए, उनका हृदय द्रवित हो गया तथा अनायास ही हृदय का भाव वाणी से इस प्रकार फूट पड़ा।