अपनों से अपनी बात

March 1972

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गुरुदेव का सुनिश्चित एवं पूर्व निर्धारित प्रधान कार्यक्रम यह है कि वे भावी जीवन में अधिक कठोर साधन तपश्चर्या करके ऐसी शक्ति सम्पादित करेंगे जिसके सहारे जागृत आत्माओं का नव निर्माण की महत्व पूर्ण भूमिका सम्पादित कर सकना सम्भव हो सके।

अध्यात्म का ज्ञान पक्ष ही अब सर्वसाधारण की जानकारी में है। कथा, पुराण, स्वाध्याय, सत्संग तक ही धर्म मञ्च की कार्य पद्धति सीमित है। विज्ञान पक्ष जिसके अनुसार सूक्ष्म शक्तियों का उत्पादन तथा प्रयोग सम्भव होता है वह एक प्रकार से लुप्तप्राय ही है। विज्ञान के बिना ज्ञान एकाँगी है। शक्ति के बिना धर्म की रक्षा कहाँ होती है? प्राचीन काल में अध्यात्म की गरिमा के सम्मुख समस्त विश्व नतमस्तक था। इसका कारण, मात्र ज्ञान ही नहीं-उपार्जित विज्ञान भी था यदि आज वह हमारे हाथ होता तो आज जन समाज का मार्गदर्शन ही नहीं विश्व प्रवाह को मोड़ सकना भी शक्य रहा होता। इस बड़े अभाव के कारण अध्यात्म मणिहीन सर्प की तरह निस्तेज एवं निर्बल हो रहा है। इस कमी को कैसे पूरा किया जाय। इस शोध के लिये गुरुदेव की भावी तपश्चर्या का क्रम निर्धारण हुआ है।

गुरुदेव संबंधी कुछ ध्यान रखने योग्य ज्ञातव्य

स्थूल प्रचार साधनों, रचनात्मक एवं संघर्षात्मक कार्यक्रमों द्वारा युग-निर्माण योजना का प्रत्यक्ष संगठन कार्य कर रहा है। विचार क्राँति, नैतिक क्रान्ति, सामाजिक क्रान्ति का प्रचण्ड अभियान चल रहा है। पर इसके अग्रगामी और फलित होने के लिये सहायक सूक्ष्म पृष्ठभूमि भी चाहियें वातावरण में अनुकूलता के तत्व भी चाहिये। इस पक्ष को गुरुदेव ने स्वयं सँभाला और बाकी कार्य युग-निर्माण योजना के हम सब कार्यकर्त्ताओं के जिम्मे सौंप दिया। इस तरह एक सुव्यवस्थित कार्य विभाजन की रूप रेखा निश्चित हो गई। इसी के अनुसार उन्हें विदाई लेनी पड़ी और अध्यात्म के अग्रगामी क्षेत्र में प्रवेश करना पड़ा।

उनकी तप साधना के उपरोक्त तीन प्रयोजन ही प्रधान थे। आत्म शुद्धि की बात तो एक अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत करने भर के लिये वे कहते भर थे। वस्तुतः इस प्रयोजन को वे चिरकाल पूर्व ही पूरा कर चुके हैं।

फिर भी उनके कार्यक्रम की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि उन्होंने स्थूल और सूक्ष्म, आत्मिक और प्रत्यक्ष कार्यक्रमों को सर्वथा एक दूसरे से पूर्णतया जुड़ा रखा है। इस जोड़ का केन्द्र बिन्दु उन्होंने भगवती भागीरथी के पुण्य तट पर सप्त ऋषियों की तपस्थली और हिमालय के प्रवेशद्वार सप्त सरोवर हरिद्वार में शाँतिकुँज की स्थापना की। यह आश्रम किन्हीं गतिविधियों के सञ्चालन के लिये नहीं-वरन् लोक मंगल की रचनात्मक प्रवृत्तियों और आध्यात्मिक उपलब्धियों के उभयपक्षी तालमेल-आदान-प्रदान के लिए ही बनाया। यहाँ की सारी गतिविधियाँ इसी प्रयोजन के लिये केन्द्रित हैं।

शान्तिकुँज में गोघृत के अखण्ड दीपक पर अखण्ड गायत्री जप के 24 गायत्री महापुरश्चरणों की एक शृंखला चल रही है। इन दिनों 10 कन्याओं द्वारा यह क्रम चल रहा है। छः वर्ष में 24 महापुरश्चरण पुरे होंगे। इनका प्रयोजन (1) नव निर्माण की प्रवृत्तियों में गति उत्पन्न करना (2) उसमें संलग्न कार्यकर्त्ताओं की भौतिक एवं आत्मिक सहायता करना (3) गुरुदेव की तपश्चर्या का पथ प्रशस्त करना है। इस महापुरश्चरण प्रक्रिया से जो शक्ति उत्पन्न होती है, उसका एक अंश जप करने वाली कन्याओं के भविष्य निर्माण तथा उनके व्यवस्था संदर्भ में लग जाता है। शेष के उपरोक्त तीन कामों में खर्च कर दिया जाता है। चौथे प्रयोजन सामयिक भी आते रहते हैं। बँगलादेश की अति उलझी हुई गुत्थी के संबंध में गुरुदेव चिंतित थे। इन दिनों उनने भी अपना साधना लक्ष्य इसी बिन्दु पर केन्द्रित किया और शान्तिकुँज की साधना भी इधर ही लगती रही। अभी भी उस संदर्भ में काफी उलझनें शेष हैं सो कुछ महीने अपनी साधना प्रक्रिया उसी से जुड़ी रहेगी। इस प्रकार की सामयिक परिस्थितियाँ सामने आने पर उन्हें भी प्राथमिकता देनी पड़ती है। बाकी साधना की सुनिश्चित दिशा तो वही है जिसका उल्लेख ऊपर की पंक्तियों में किया गया है।

विगत आठ महीनों में चल रहे साधनात्मक प्रकरण की यही सूचना और उपलब्धि है। इस बीच आपत्तिग्रस्तों की सहायता करने की, स्वजनों के अवरुद्ध प्रगति पथ को प्रशस्त करने की, हम लोगों की परम्परागत कार्यपद्धति भी यथावत चलती रही है। उसे बन्द कर सकना न अपनी प्रकृति के अनुकूल है न परिस्थिति के। अस्तु उसे चलना भी था और चला भी। इन दिनों कुछ ऐसा असन्तुलन बना कि खर्च अधिक आमदनी कम वाले लोग जिस तरह संकट में फँसते हैं उसी तरह की अड़चन अपने सामने भी आ गई और मुझे वह संकट अस्वस्थता के रूप में सताने लगा। इसे संभालना, देखना आवश्यक था साथ ही कुछ आवश्यक प्रकाश परामर्श भी हम लोगों के लिये, समाज और साधकों के लिये उन्हें देना था। सो गुरुदेव ने अनुभव किया कि जिस प्रयोजन के लिए शान्तिकुँज का निर्माण किया गया उसका उपयोग करना चाहिये। यही उनके प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष क्रिया-कलापों के पारस्परिक संपर्क एवं आदान-प्रदान का केन्द्र है। अस्तु उन्होंने गत महीने अपना वह निर्धारित क्रम आरम्भ भी कर दिया।

कुछ समय के लिये वे यहाँ आये और फिर वापिस चले गये। अब वे सुविधा और आवश्यकतानुसार यहाँ आते जाते रहेंगे। नितान्त एकाकी साधना जितने दिन के लिये आवश्यक थी वह अवधि पूरी हो गई। अब वे समन्वयात्मक प्रक्रिया चलायेंगे। अपनी तपश्चर्या यथावत जारी रखेंगे और शाँतिकुँज के माध्यम से प्रत्यक्ष परामर्श प्रकाश भी प्रदान करेंगे। पर वह प्रक्रिया मेरे माध्यम से ही चलेगी। जन संपर्क बढ़ाने का उनका तनिक भी मन नहीं है। स्वभावतः अपना विशाल परिवार उनसे मिलने दर्शन करने को आतुर होगा। यदि उसे छूट मिले तो यहाँ आने के थोड़े से दिन उसी में निकल जायेंगे प्रत्यक्ष है। उन्हें विदाई के बाद 20 जून से 30 जून तक शान्तिकुँज में रहना था। यह दस दिन यहाँ की कार्य पद्धति का निर्धारण करने तथा 40 भाषण टेप कराने के लिए थे। पर उन्हीं दस दिनों में लगभग 5 हजार स्वजन परिजन यहाँ भी आ गये और उनसे थोड़ी-थोड़ी बात करने-निवास, भोजन आदि का प्रबन्ध करने में वे 10 दिन भी निकल गये और जिस काम के लिए वे 10 दिन रखे गये थे वह नगण्य जितना ही हो सका।


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