समाज का ऋण चुकाना ही श्रेयस्कर

March 1972

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मनुष्य की निजी आवश्यकताएं और इच्छाएं हैं। उनकी पूर्ति के लिए वह प्रयत्न करता है। और प्रयत्न करने पर अभीष्ट की प्राप्ति भी होती है। पर जो कुछ पाता है वह उसका अपना उपार्जन ही नहीं होता उसे जुटाने में समाज का भारी योगदान रहता है। यदि वह न रहे तो एकाकी मनुष्य पेट भरने और तन ढकने की आवश्यकता भी शायद ही पूरी कर पावे। बुद्धि तो उसमें बहुत है पर शरीर इतना अशक्त है कि वह बिना दूसरों के सहयोग के अपनी बढ़ी-चढ़ी इच्छाओं की पूर्ति किसी भी प्रकार नहीं कर सकता। इस दृष्टि से वह अन्य जीवों की तुलना में काफी पिछड़ा हुआ है।

गाय, हिरन, लोमड़ी, खरगोश, आदि के बच्चे जन्म लेने के कुछ ही देर बाद अपने पाँवों खड़े हो जाते हैं। माता का दूध अपने प्रयत्न से पीने लगते हैं और कुछ ही दिनों में चल-फिर कर घास आदि ढूँढ़ने और पेट भरने लगते हैं। मनुष्य के बच्चे में यह योग्यता बहुत वर्ष बीतने पर भी नहीं आती। माता दूध न पिलाये तो वह भूखा ही मर जायगा। अपने पुरुषार्थ से माता को या उसके स्तन को ढूंढ़ने में समर्थ न होगा, सोने, खाने, नहाने, मल-मूत्र विसर्जन जैसे छोटे कामों के लिए भी बहुत दिनों तक उसे अपने अभिभावकों पर निर्भर रहना होता है। अपने पैरों पर खड़े होने की, अपना गुजारा आप करने की योग्यता तो कहीं पन्द्रह सोलह वर्षों में आती है।

आजीवन साथ रहने के लिए प्रस्तुत सुयोग्य पत्नी-मनुष्य का अपना उपार्जन नहीं होती। माँ-बाप उस लड़की को सुयोग्य बनाते और उदारतापूर्वक ब्याह कर देते हैं। यह सामाजिक योगदान है। अन्य प्राणी कामोद्देश्य के लिए क्षणिक दाम्पत्य-जीवन बनाते और बिछुड़ जाते हैं। मनुष्य को जो सुव्यवस्थित दाम्पत्य जीवन मिला है उसमें समाज का अनुग्रह ही मुख्य है। भोजन के लिए अन्न, पहने के लिए वस्त्र, निवास के लिए घर, शिक्षा के लिए विद्यालय, आजीविका के लिए उद्योग, यात्रा के लिए वाहन, बीमारी की दवा, क्या यह सब उपलब्धियाँ मनुष्य की निजी कमाई है, यदि समाज का सहयोग प्राप्त न हो तो कितना ही परिश्रम करके उस स्तर की वस्तुएं प्राप्त नहीं हो सकती जितनी कि हममें से प्रत्येक को मिलती हैं। बोलना, लिखना, पढ़ना जो मनुष्य ने सीखा है उसमें माँ, संगी-साथियों का ही नहीं असंख्य पीढ़ी के पूर्वजों का योगदान है। सामाजिक, शासकीय, वैज्ञानिक, बौद्धिक सुविधाओं से जो असाधारण लाभ प्राप्त किया जा सका है और जिनके बल पर मनुष्य सृष्टि का मुकुटमणि बना है वह सब कुछ एक प्रकार से समाज का ही अनुदान है। निजी पुरुषार्थ तो उन उपलब्धियों में नगण्य ही समझा जाना चाहिए।

जिस समाज का इतना उपकार और अनुदान लेकर मनुष्य सुख-सुविधाएं प्राप्त करता है, उसका वह ऋणी है। इस ऋण को चुकाना कृतज्ञता की प्रत्युपकार की और सामाजिक शृंखला परम्परा बनाये रखने की दृष्टि से नितान्त आवश्यक है। यदि लोग समाज के कोष से लेते तो रहें पर उसका भण्डार भरने की बात न सोचें तो वह सामूहिक कोष खाली हो जायगा। समाज खोखला और दुर्बल हो जायगा उसमें व्यक्तियों की सुविधा बढ़ाने एवं सहायता करने की क्षमता न रहेगी फलतः मानवीय प्रगति का पथ अवरुद्ध हो जायगा। प्राप्त तो करें पर उसे लौटायें नहीं की नीति अपना ली जाय तो बैंक दिवालिये हो जायेंगे, सरकार खोखली रह जायगी, जमीन का उपार्जन बन्द हो जायगा, व्यापार की शृंखला ही बिगड़ जायगी। इस संसार में ‘लो और दो’ की नीति पर सारी व्यवस्था चल रही है। ‘लो’ के लिए तैयार-’दो’ के लिए इनकार, की परम्परा यदि चल पड़े तो सारा क्रम ही उलट जायगा, तब हमें असामाजिक आदिम युग की ओर वापिस लौटना पड़ेगा।

मनुष्य की बुद्धि और श्रमशीलता का आधा भाग और आधा भाग सामाजिक अनुदान का माना गया है। तदनुसार तत्वदर्शियों ने यह व्यवस्था बनाई है कि उसे अपनी जीवन सम्पदा का आधा भाग अपनी शरीर यात्रा के लिए रखना चाहिए और आधा सामाजिक उत्कर्ष के लिए लगा देना चाहिए। पेट भरना, तन ढकना, निवास, शिक्षा, चिकित्सा, गृहस्थ, उपार्जन, मनोरंजन आदि वैयक्तिक सुविधा साधनों के लिए उसकी क्षमता का आधे से अधिक भाग खर्च न होना चाहिए आया तो समाज सेवा के लिए सुरक्षित ही रहना चाहिए।

आश्रम धर्म की व्यवस्था भारतीय संस्कृति में इसी दृष्टि से की गई है। आयुष्य का एक चौथाई भाग खेल-कूद तथा ज्ञान और शरीर की वृद्धि के लिए यह ब्रह्मचर्य हुआ, एक चौथाई विवाह सन्तान, परिवार उपार्जन, यश, वैभव, मनोरंजन आदि के लिए यह गृहस्थ हुआ। इतना भाग निजी सुख-सुविधा के लिए है। शेष आधा वानप्रस्थ और संन्यास के रूप में लोक-मंगल के लिए आत्मिक उत्कृष्टता अभिवर्धन के लिए नियुक्त होना चाहिए। जीवन सम्पदा का यही श्रेष्ठतम विभाजन है। भारतीय धर्म और संस्कृति की यह एक अति महत्वपूर्ण व्यवस्था है जिस पर उसकी महान सामाजिक व्यवस्था की आदर्श परिपाटी निर्भर रही है।

सामाजिक उत्कृष्टताओं के अभिवर्धन, सत्परम्पराओं के संचालन और विकृतियों के निवारण के लिए निरन्तर प्रयत्न किया जाना आवश्यक है। यह प्रयोजन, सुयोग्य, अनुभवी और निस्पृह लोगों के द्वारा ही पूरा हो सकता है। अनेक सत्प्रवृत्तियों के गतिशील रहने से ही समाज की श्रेष्ठता और महानता सुदृढ़ रह सकती है। इस कार्य के लिए ढलती आयु के व्यक्तियों को अपना जीवन समर्पित करना चाहिए। उसे उदारता, दान, परमार्थ, धर्म पुण्य कुछ भी कहा जा सकता है। ऋण चुकाना या कर्त्तव्यपालन भी इसे कह सकते हैं। कहा कुछ भी जाय, यह है नितान्त आवश्यक। यह परम्परा चलते रहने से ही सुयोग्य समाज सेवियों की आवश्यकता पूरी हो सकती है और सामाजिक महानता अक्षुण्ण रह सकती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक भारतीय धर्मानुयायी को शास्त्र मर्यादा या ईश्वरीय आज्ञा के रूप में ढलती आयु में ‘वानप्रस्थ’ ग्रहण करके अपना श्रम, समय और मनोयोग लोक कल्याण के लिए लगाने का निर्देश किया गया है।

शास्त्रकारों और आप्त पुरुषों ने पग-पग पर इस परम्परा के पालन का निर्देश किया है। धर्म ग्रन्थों में रह जगह इसी प्रकार के निर्देश की भरमार है।

गृहस्थस्तु यदा पश्येद्वलीपलितमात्मनः।

अपत्यस्यैव चापत्यं तदाऽरण्यं समाश्रयेत्॥1॥

(शखस्मृति)

जब गृहस्थ का भार बड़ा लड़का सँभाल ले, बाल सफेद होने लगें, तब मनुष्य को वानप्रस्थ में प्रवेश करना चाहिए।

उषित्वैवं गृहे विप्रोद्वितीयादाश्रमात् परम्।

वलीपलितसंयुक्तस्तृतीयन्तु समाश्रयेत्॥97

(सम्वर्त स्मृति 97)

जब गृहस्थ पालन करने के उपरान्त चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ जायें, बाल सफेद होने लगें तो तीसरे पन में वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करना चाहिए।

एवं वनाश्रमे तिष्ठन् पातश्यचैव किल्विषम्।

चतुर्थमाश्रमं गच्छेत् सन्यासविधिना द्विजः॥2

(हरीत स्मृति 6/2)

गृहस्थ के बाद वानप्रस्थ ग्रहण करना चाहिए। इससे समस्त मनोविकार दूर होते हैं और वह निर्मलता आती है जो संन्यास के लिए आवश्यक है।

महर्षिपितृदेवानाँ गत्वाऽऽनृण्यं यथाविधि।

पुत्रे सर्वं समास्जय वसेन्माध्यस्थ्यमास्थितः॥

(मनु.4/257)

ढलती आयु में पुत्र को गृहस्थ का उत्तरदायित्व सौंप दें। वानप्रस्थ ग्रहण करे और देव, पितर तथा ऋषियों का ऋण चुकावे।

उत्पाद्य पुत्राननृणाँश्य कृत्वा

वृतिं तेभ्योऽनुविधाय काँचित्।

स्थाने कुमारीः प्रतिपाद्य सर्वा

अरण्यसंस्थोऽथ मुनिर्बुभूषेत्॥

(महा0 उद्योग 37/39)

पुत्रों को उत्पन्न कर उन्हें ऋण के भार से मुक्त करके उनके लिए किसी जीविका का प्रबन्ध कर दे, अपनी सभी कन्याओं का योग्य वर के साथ विवाह कर दे तत्पश्चात् वन में मुनिवृत्ति से रहने की इच्छा करे।

अपत्यसंततिदृष्ट्वाप्राज्ञोदेहस्यचानतिम्।

वानप्रस्थाश्रमगच्छेदात्मनः शुद्धिकारणात्॥24

इत्येषपापशुद्धर्य्थमात्मनश्चोपकारकः।

वानप्रस्थाश्रमस्तमाद्भिक्षोस्तुचरमोपरः॥27

(मार्कण्डेय पुराण)

दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता इसमें है कि सन्तान के समर्थ होने पर अपने शरीर के क्षरण पर भी विचार करे और ढलती आयु में वानप्रस्थ ग्रहण करे। आत्म शुद्धि के लिए यह कदम बढ़ाना आवश्यक है। पापों का शोधन ऋणों से मुक्ति और आत्म कल्याण का प्रयोजन पूरा करने के लिए वानप्रस्थ ग्रहण करना ही चाहिए।

गृहस्थः पुत्रपौत्रादीन् दृष्ट्वा पलितमात्मनः।

भार्य्या पुत्रेषु निःनिक्षिप्य सह् वा प्रविशेद्वनम्॥2

तपो ही यः सेवित वन्यवासः

समाधियुक्तः प्रयतान्तरात्मा।

विमुक्तपापो विमलः प्रशान्तः

स याति दिव्यं पुरुषं पुराणम्॥1

(हरीत स्मृति)

जब बाल सफेद होने लगें और पुत्र घर सँभालने योग्य हो जाये तो वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहिए।

ढलती आयु में तपश्चर्या आरम्भ कर देनी चाहिए। इससे पाप और ऋण धुलते हैं, आत्मा को शान्ति मिलती है और दिव्य पुरुष की स्थिति प्राप्त होती है।

ततोगार्हस्थ्यमास्थायचेष्ट्वायज्ञाननुत्तमान्।

वनस्थश्यचततोवत्सपरिव्राड्निष्परिग्रहः।

इष्टमुत्पादयापत्यमाश्रयेधावनंततः॥12

(मार्कण्डेय पुराण)

गृहस्थ के आवश्यक उत्तरदायित्वों को पूरा करके-पुत्र को काम-काज सौंप दे और वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करे। वानप्रस्थ परिपक्व होने के पश्चात् ही संन्यास लिया जाता है।

बालोमनोनन्दयबान्धववानाँगुरोस्तथाज्ञाकरणैःकुमारः। स्त्रीणाँयुवासत्कुलभूषणानाँवृद्धोवनेवत्सवने चरणाम्॥61

(मार्कण्डेय पुराण)

बाल्यकाल में परिवार को हँसाना विनोद देना, किशोर अवस्था में माता-पिता की सेवा करना, युवावस्था में पत्नी वृद्धजनों तथा आश्रितों की सहायता करना और अन्त में वानप्रस्थ लेकर विश्वकल्याण के परमार्थ प्रयोजन में जीवन व्यतीत करना।

वयः परिणतो राजन्कृतकृत्यो गृहाश्रमी।

पुत्रेषु भार्यां निक्षिप्य वनं गछेत्सहैव वा॥18

(विष्णु पुराण)

जब गृहस्थ धर्म का पालन करते-करते अवस्था ढल जाय, तब अपनी स्त्री के पालन का भार पुत्रों को सौंप या उसे भी अपने साथ लेकर वन को प्रस्थान करे।

अथ जनको ह वैदेही याज्ञवल्क्यमुपसमेत्योवाच। भगवन्संन्यासमनुब्रूहीति। स होवाच याज्ञवल्क्यः। ब्रह्मचर्य समाप्य गृही भवेत्। गृही भूत्वा वनी भवेत्। वनी भूत्वा प्रव्रजेत्।

(जावालोपनिषत् 3/1)

एक दिन राजा जनक महर्षि याज्ञवलक्य के पास गये और कहा भगवन् संन्यास की शिक्षा दीजिए। इस पर याज्ञवलक्य ने कहा-पहले ब्रह्मचर्य आश्रम, फिर गृहस्थाश्रम इसके बाद वानप्रस्थ होना चाहिए इसके उपरान्त ही संन्यास है।

यदिमद्वचनंतातश्रद्दधास्यविशकितः।

तत्परित्यज्यगार्हस्थ्यं वानप्रस्थमनाभव॥3

तमनुष्ठाया विधिवद्विहायाग्निपरिग्रहम्।

आत्मन्यात्मानमाधायनिर्द्वद्वोनिष्परिग्रहः॥4

एकाँतशीलोवश्यात्माभवभिक्षुरतंद्रितः।

तत्रयोगपरोभूत्वावाह्यर्स्पश विवर्जितः॥5

ततःप्राप्स्यसितंयोगंदुःखसंयोगभेषजम्।

मुक्तिहेतुमनौपम्यमनाख्येयमसंज्ञितम्॥6

(मार्कण्डेय पुराण /3/4/5/6)

पुत्र ने अपने पिता से कहा-तात्, आप संकल्प-विकल्प छोड़कर मेरा अनुरोध मानिये। गृहस्थ धर्म पूरा हो गया अब वानप्रस्थ ग्रहण कीजिए। परिग्रह, लोभ और मोह की लिप्सा छोड़िये। मन को वश में कीजिए। आलस्य छोड़िये और मन को साँसारिक लालसाओं से हटाइए। जब आप योग साधन करेंगे तभी दुख द्वंद्वों से छूटेंगे।

जब तक इस वानप्रस्थ परम्परा का निर्वाह भारतीय समाज में ठीक तरह होता रहा, तब तक यहाँ की सामाजिक स्थिति अति उच्चकोटि की बनी रही, और उससे प्रभावित होकर घर-घर में नर रत्न उत्पन्न होते रहे, जिन्होंने समस्त विश्व में श्रेष्ठता की मर्यादाओं को स्थापित करने में महान योगदान दिया।

जब से हम संकीर्ण और स्वार्थी होते चले गये। समाज का ऋण भार लेने की निर्लज्जता अपना बैठे। मरते समय तक पैसा और बेटे पोतों की ही बात सोचने वाले क्षुद्र स्तर पर आ गये फिर समाज को सुयोग्य और निस्वार्थ प्रतिभाएं मिलती ही कहाँ से। और उनके बिना सामाजिक स्तर ऊँचा रहता ही कैसे? इस अभाव की पूर्ति के बिना कोई राष्ट्र और समाज प्रखर और महान रह ही नहीं सकता।

इस अभाव की पूर्ति की जानी चाहिए। जनसाधारण का दृष्टिकोण बदला जाना चाहिए। सारा जीवन पैसे और परिवार के लिए ही लगाया जाना सामाजिक अपराध घोषित किया जाना चाहिए। हर व्यक्ति को यह अनुभव कराना चाहिए कि आधा जीवन ‘गौ ग्रास’ है। वह समाज सेवा की अवधि है। उसका अपहरण करके निजी सम्पदा बढ़ाते रहना माँ-बेटे पोतों की टहल चाकरी करते रहना गौ के मुख से ग्रास को छीन कर गधे को खिलाने के बराबर है।


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