यतोधर्मस्ततो जयः

February 1971

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महाभारत युद्ध प्रारम्भ हुआ तब भी महाराज युधिष्ठिर प्रतिदिन ईश्वर उपासना के लिए समय निकालते। युद्ध से वापस होते ही वे अपनी व्यक्तिगत साधना में लग जाते । इस समय उन्होंने किसी से भी न मिलने का नियम बनाया था।

अभी दस दिन ही बीते थी कि पाण्डवो की सेना में अफवाह फैल गई कि धर्मराज युधिष्ठिर प्रतिदिन सायंकाल वेष बदल कर कही जाया करते हैं। यह खबर अन्य पांडवों के कानों में भी पहुँची। पांडवों की सहायक सेनायें वलित न हो जाये इस दृष्टि से अर्जुन, भीम आदि ने वस्तुस्थिति जानने का निश्चय कर लिया।

एक दिन जब युधिष्ठिर अपने उपासना-कक्ष से निकल चलने लगे तो शेष पाँडव भी छिपकर उनके पीछे-पीछे हो लिये। उन्होंने देखा महाराज युधिष्ठिर हाथ में कुछ लिए उधर की ओर बढ़ रहे हैं जिधर दिन में संग्राम होता था। यह देखकर पांडवों की उत्सुकता और भी बढ़ गई। वे अपने को छिपाये उनका पीछा करते चले गये।

युद्ध स्थल आ गया तो पाँडव एक ओर छिपकर खड़े हो गये। देखने लगे महाराज युधिष्ठिर आखिर क्या करते हैं। युधिष्ठिर उन मृतकों में घूम-घूमकर देखने लगे कोई घायल तो नहीं है, कोई प्यासा तो नहीं है, कोई भूख से नहीं तड़प रहा, किसी को घायलावस्था में परिजनों की चिन्ता तो नहीं सता रही। युधिष्ठिर घायलों को देखते, पूछते और अन्न, जल खिलाते बड़ी देर तक वहाँ घूमते रहे। कौरव रहा हो या पाँडव बिना किसी भेदभाव के वह सबकी सेवा करते रहे। किसी को चिन्ता होती तो वे उसे दूर करने का आश्वासन देते। इस तरह उन्हें कई घण्टे वहाँ बीत गये।

शेष पाँडव उनके लौटने की प्रतीक्षा में खड़े थे। समय गया। युधिष्ठिर लौटे तो वे लोग प्रकट होकर सामने आ गये। अर्जुन ने पूछा- महाराज! आपको यों अपने आपको छिपाकर यहाँ आने की क्या आवश्यकता पड़ी ?

युधिष्ठिर सामने खड़े बंधुओं को सम्बोधित कर बोले- तात्! इनमें से कई कौरव दल के है वे हमसे द्वेष रखते हैं यदि मैं प्रकट होकर उनके पास जाता तो वे अपने हृदय की बात मुझसे न बता पाते और इस तरह मैं सेवा के अधिकार से वंचित रह जाता ?

भीम नाराज हुये बोले- शत्रु की सेवा करना क्या अधर्म नहीं है ?

इस पर युधिष्ठिर ने उत्तर दिया- बन्धु! शत्रु मनुष्य नहीं पाप और अधर्म हुआ करता है उसके विरुद्ध तो हम लड़ ही रहे हैं पर मनुष्य तो आखिर आत्मा है आत्मा से आत्मा का क्या द्वेष ? भीम युधिष्ठिर की इस महान् आदर्शवादिता के लिए नतमस्तक न हो पाये थे कि नकुल बोल पड़े - लेकिन महाराज! आपने तो सर्वत्र यह घोषित कर रखा है कि आप इस समय ईश्वर की उपासना किया करते हैं इस तरह झूठ बोलने का पाप तो आपको लगेगा ही ?

“नहीं नकुल” ? युधिष्ठिर बोले - भगवान की उपासना जप और स्तुति व जप-तप से नहीं होती कर्म से भी होती है। यह विराट् जगत उन्हीं का प्रकट रूप है यहाँ जो दीन-दुःखी जन है उनकी सेवा करना, जो पिछड़े और दलित लोग है उन्हें आत्म-कल्याण का मार्ग दिखाना भी भगवान् का ही भजन है। इस दृष्टि से मैंने जो किया वह झूठ नहीं , ईश्वर की सच्ची उपासना ही है।

और कुछ पूछने का शेष नहीं रह गया था सहदेव ने आगे बढ़कर उनके चरणों में प्रणिपात कर कहा- लोग सत्य ही कहते हैं तात्! जहाँ सच्ची धर्मनिष्ठा होती है विजय भी वही होती है हमारी जीत का कारण इसलिये तो सैन्यशक्ति नहीं, आपकी शक्ति है जिसके कारण भगवान कृष्ण स्वयं हमारे सहायक हुये है।


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