शिव और पार्वती कैलाश जा रहे थे मार्ग में गंगा स्नान की भीड़ देखकर पार्वती जी बोली- भगवन् देखिये लोग कितने धर्मनिष्ठ कितने श्रद्धालु है। शंकर जी हंसे और बोले- पार्वती सच्ची श्रद्धा तो किसी विरले में होती है यह सब तो श्रद्धालु कम, दुराचारी अधिक है।
स्नानार्थियों की परीक्षा के लिये दोनों नीचे उतर आये। पार्वती जी एक ब्राह्मणी का वेष बनाकर खड़ी हो गई और शिवजी एक अपंग पति का वेष बनाकर वही लेट गये। जो भी वहां से आता पार्वती जी आग्रह करती- मेरे अपाहिज पति को गंगाजी तक पहुँचा दे। सहायता की बात तो दूर कोई विदक कर निकल जाता और कितने ऐसे आते जो पार्वती पर बुरी दृष्टि डालते और उन्हें अपने पति को छोड़ देने तक को प्रभावित करते। शिवजी पार्वती जी की ओर मुस्कराकर कहते देख लो यही है इनकी श्रद्धा। अन्त में एक सज्जन किसान आया । उसने कहा माँ जी मैं इन्हें पहुँचा देता है आप आगे चलिये।
शिवजी प्रकट हुये और बोले- श्रद्धा यह है। जो लोक-सेवा की प्रेरणा न दे वह श्रद्धा तो इन निकल गये अन्ध भक्तों की तरह दिखावटी ही होती है।