अध्यात्म की उपेक्षा नहीं की जा सकती

February 1971

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सुप्रसिद्ध अमेरिकन उद्योगपति एडिंगटन ने अपना सम्पूर्ण जीवन धन संपत्ति की विशाल मात्रा अर्जित करने, भोग- ऐश्वर्य तथा इन्द्रिय सुखों की तृप्ति करने में बिताया। वृद्धावस्था में भी उनके पास धन- संपत्ति के अम्बार लगे थे। पर वह शक्तियां जो मनुष्य को आत्म-सन्तोष प्रदान करती है एडिंगटन के पास से कब की विदा हो चुकी थी। मृत्यु की घड़ियां समीप आई देखकर उनका ध्यान भौतिकता से हटकर दार्शनिक सत्यों और आध्यात्मिक तथ्यों की ओर आया। वह अनुभव करने लगे कि पार्थिव जीवन की हलचलें और भौतिक सुखोपभोग प्राप्त करना ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य नहीं। लोकोत्तर जीवन के सत्यों की शोध एक अनिवार्य कर्तव्य था। उसे भुला दिया गया। उन्होंने कहा- भौतिकता में क्षणिक सुख है और निरन्तर विकसित होने का विनाशकारी गुण निष्कर्ष तो इतने खराब होते हैं जिनके बारे में कोई कल्पना ही नहीं की जा सकती। विक्षोभ और दुर्वासनाओं की भट्टी में जलता हुआ प्राणी मृत्यु के समीप आने पर जल विहीन मछली की तरह तड़पता है पर तब परिस्थितियां निकल चुकी होती है केवल पश्चाताप ही शेष रहता है।

जीवन के इस महत्वपूर्ण साराँश से वर्तमान और आगत पीढ़ी को अवगत कराने के लिये एडिंगटन ने एक महान साहस किया। उन्होंने एक संस्था बनाई और अपनी सारी संपत्ति इसीलिये दान कर दी कि यह संस्था मानव जीवन के आध्यात्मिक सत्य और तथ्यों की जानकारी अर्जित करे और उन निष्कर्षों से सर्व साधारण को परिचित कराये जिससे आगे मरने वालो को इस तरह पश्चाताप की अग्नि में झुलसते हुए न विदा होना पड़े। उसकी एक शाखा 32 ईस्ट 57 वीं गली न्यूयार्क में है। वहाँ प्रति वर्ष धर्म और विज्ञान के सम्बन्ध पर उत्कृष्ट कोटि के भाषण कराये जाते हैं।

इस शृंखला में विज्ञान दर्शन और धर्म (साइन्स फिलॉसफी एण्ड रिलीजन) शीर्षक के निबन्ध का साराँश आध्यात्मिक चेतना की पुष्टि में उदाहरणार्थ प्रस्तुत किया जाता है। रसेल ब्रेन का कथन है - विज्ञान हमें पदार्थ की भौतिक जानकारी दे सकता है किन्तु पदार्थ कैसे, क्यों बना इसका उत्तर उसके पास नहीं है। जिन सत्य निर्णयों को विज्ञान नहीं दे सकता उन्हें केवल दर्शन और धर्म के द्वारा ही खोजा जा सकता है। “उसी का नाम अध्यात्म है।”

अज्ञात वस्तु की खोज मजेदार हो सकती है पर जब तक सम्पूर्ण वस्तु के सम्पूर्ण कारण को न जान लिया जाये उस वस्तु को जीवन का अंग बनाना घातक ही होगा। मान लीजिये एक ऐसा व्यक्ति है जिसे यह पता नहीं है कि अल्कोहल के गुण क्या है और हाइड्रोक्लोरिक एसिड के क्या गुण है। सल्फर, क्लोरीन फास्फेट की कितनी कितनी मात्रा मिलकर कौन सी दवा बनेगी ? पर वह जो भी भरी शीशी मिलती जाती है उनसे दवायें तैयार करता जाता है। तो क्या वे दवायें किसी मरीज को लाभ पहुँचा सकती है। नियंत्रण रहित विज्ञान ऐसी ही दुकान है जहाँ सीमित ज्ञान के आधार पर औषधियां बनती है उनसे एक रोग ठीक होता है पर तब जब दो नये रोग और पैदा कर देता है।

आकाश के ग्रह- नक्षत्र चक्कर लगाते हैं। पता है कौन ग्रह पृथ्वी से कितनी दूर है। किस ग्रह को सूर्य की परिक्रमा करने में कितनी यात्रा करनी पड़ती है। उनकी आन्तरिक रचना के बारे में भी जानकारियां मिल रही है। पर यह ग्रह- नक्षत्र चक्कर क्यों काट रहे हैं यह विज्ञान नहीं बता सकता उसके लिये हमें आध्यात्मिक चेतना की ही शरण लेनी पड़ती है अध्यात्म में ही वह शक्ति है जो मनुष्य के आन्तरिक रहस्यों का उद्घाटन कर सकती है। विज्ञान उस सीमा तक पहुँचने में समर्थ नहीं है।

अध्यात्म एक स्वयं सिद्ध शक्ति है उसका वैज्ञानिक आधार पर विश्लेषण नहीं किया जा सकता। मस्तिष्क के गुणों के बारे में विज्ञान चुप है। हम आजीवन कर्त्तव्यों से क्यों बँधे रहते हैं ? हिंसक डकैत भी स्वयं कष्ट सहते पर अपनी धर्मपत्नी अपने बच्चों के भरण-पोषण और शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध करते हैं। चोर और उठाईगीरों को भी अपने साथियों और मित्रो के साथ सहयोग करना पड़ता है। सहानुभूति, सेवा और सच्चाई यह आत्मा के स्वयं सिद्ध गुण है मानवीय जीवन में उनकी विद्यमानता के बारे में कोई सन्देह नहीं है। यह अलग बात है कि किसी में इन गुणों की मात्रा कम है किसी में कुछ अधिक होती है।

सौंदर्य की अदम्य पिपासा, कलात्मक और नैतिक चेतना को भौतिक नियमों के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। इन्हें जिस शक्ति के द्वारा व्यक्त और अनुभव किया जाता है वह अध्यात्म है। हमारा 99 प्रतिशत जीवन इन्हीं से घिरा हुआ होता है। 1 प्रतिशत आवश्यकताएँ भौतिक है किन्तु खेद है कि 1 प्रतिशत के लिये जीवन के शत प्रतिशत अंश को न्यौछावर कर दिया जाता है। 99 प्रतिशत भाग अन्ततोगत्वा उपेक्षित ही बना रहता है इससे बढ़कर मनुष्य का और क्या दुर्भाग्य हो सकता है। अशाँति असन्तोष उसी के परिणाम है।

“विश्वास की इच्छा” (दि विल टु बिलीव) नामक पुस्तक के लेखक वैज्ञानिक विलियम जेम्स और हैण्डरसन ने जब महान् वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन के सापेक्ष सिद्धान्त को पढ़ा- समय ब्रह्मांड, गति और सृष्टि के मूल तत्वों (टाइम, स्पेस मोशन एण्ड काजेशन) के साथ व्यक्तिगत अहंता का तुलनात्मक अध्ययन किया तो उन्हें भी यही कहना पड़ा कि भौतिक जगत सम्भवतः सम्पूर्ण नहीं है। हमारा सम्पूर्ण भौतिक जीवन आध्यात्मिक वातावरण में चल रहा है उस परम पालक अध्यात्म शक्ति को ही लक्ष्य कह सकते हैं। ऐसी शक्ति को अमान्य नहीं किया जा सकता।

उन्होंने आगे बताया कि वह तत्व जो विश्व के यथार्थ का निर्देशन करते हैं भौतिक शास्त्र के द्वारा विश्लेषण नहीं किये जा सकते। उनके लिये एक अलग स्केच तैयार करना पड़ेगा और सचेतन इकाइयों के द्वारा ही उनका अध्ययन करना होगा। यह सचेतन इकाइयां हमारे विचार, श्रद्धा, अनुभूतियाँ, तर्क और भावनायें है उन्हीं के द्वारा अध्यात्म को स्पष्ट किया जा सकता है। उन्हीं के विकास द्वारा मनुष्य जीवन में अभीष्ट सुख-शान्ति की प्राप्ति की जा सकती है। भावनाओं की तृप्ति भावनायें ही कर सकती है पदार्थ नहीं। इसीलिये भाव विज्ञान (अध्यात्म) को हम नहीं छोड़ सकते।


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