मृत्यु से डरने का कोई कारण नहीं

February 1971

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मृत्यु का नाम सुनते ही साधारण व्यक्ति के होश उड़ जाते हैं। और एक क्षण के लिए जैसे वह मर जाता है। मृत्यु से डरने का मानव का स्वभाव सा बन गया है। साधारण सा रोग, मामूली सी घटना शत्रु का विचार आदि शंका जनक संयोग आते ही कमजोर आदमी काँप उठता है और सोचने लगता है कि कही यह बीमारी हमारे प्राण न ले ले। संभव है वहाँ जाने से हम किसी घातक घटना के शिकार बन जाये मृत्यु के भय से मनुष्य खाने-पीने और प्रतिकूलताओं से जमकर मोर्चा लेने से डरता रहता है।

यही नहीं किसी की मृत्यु देखकर किसी दुर्घटना का समाचार सुनकर भी अपनी मृत्यु की शंका से आक्राँत हो जाता है। यहाँ तक कभी-कभी स्वयं भी अकेले में संसार की नश्वरता का विचार आते अथवा अपनी आयु के बीते वर्षा पर विचार करने से भी वह मृत्यु भय से उद्विग्न हो उठता है। अन्धेरे में निर्भयता पूर्वक पदार्पण करने से भी उसे मृत्यु की शंका निरुत्साहित कर देती है। निः संदेह मृत्यु का भय बड़ा ही व्यापक और चिरस्थायी होता है।

किन्तु यदि इस मृत्यु भय पर गंभीरता पूर्वक विचार किया जावे तो यह बड़ा ही शूद्र और उपहासास्पद प्रतीत होगा पहले तो जो अनिवार्य है अवश्यम्भावी है उसके विषम विषय में डरना क्या ? जब मृत्यु अटल है और एक दिन सबको मरना ही है तब उसके विषय में शंका का क्या प्रयोजन हो सकता है ? यह बात किसी प्रकार भी समझ में आने लायक नहीं है। हमारे पूर्वजों की एक लम्बी परम्परा मृत्यु के मुख में चली जा चुकी है और आगे भी आने वाले प्रजा उनका अनुसरण करती ही जायेगी तब बीच में क्या अधिकार रह जाता है कि उस निश्चित नियति के प्रति भयाकुल होते रहे। मृत्यु को यदि जीवन का अन्तिम अतिथि मानकर उसकी ओर से निश्चित हो जाये तो न जाने अन्य कितने भयो से हम अनायास ही मुक्ति पा जाये मृत्यु का भय ही वस्तुतः सारे भयो की जड़ है।

मृत्यु का भय अधिकतर सताता उन्हीं लोगों को है जो इस मानव जीवन का महत्व नहीं समझते और इसकी लम्बी अवधि को आलस्य, विलास एवं प्रमाद में ही बिता देते हैं और अपने आवश्यक कर्त्तव्यों तथा उत्तरदायित्वों के प्रति ईमानदार नहीं रहते। सोचते हैं मेरी जिन्दगी बढ़ जाती, मृत्यु का निरन्तर बढ़ा चला आ रहा अभियान रुक जाता तो मैं अपने काम पूरे कर लेता। किन्तु उनकी यह कामना पूरी नहीं हो पाती। मृत्यु आती है और अकर्मण्यता के फलस्वरूप उनकी चोटी पकड़ के घसीट ले जाती है।

इसके विपरीत जिसने अपने कर्त्तव्यों तथा उत्तरदायित्वों को रुचि एवं तत्परता से पूरा किया है, जीवन के करणीय कार्यों की उपेक्षा नहीं की है, आयु के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग किया है, उसे मृत्यु से डरने का कारण नहीं रह जाता। वह मृत्यु आने पर हँसता मुस्कुराता हुआ उसका स्वागत करता है और मृत्यु उसे संतुष्ट माता की तरह प्यार से गोद में उठाकर ले जाती और उन दिव्य स्थानों में पहुँचा देती है जहाँ उसके कर्त्तव्य के पुरस्कार उसकी प्रतीक्षा कर रहे होते हैं। मृत्यु का भय कायर की वृति है कर्मवीर तो उसे मित्र की तरह तथा माता मानकर किसी समय भी उसका स्वागत करने का तैयार रहा करते हैं।

यदि मृत्यु से भयभीत रहने का स्वभाव स्थायी हो गया है और वह किसी प्रकार भी बदलते नहीं बनता तो भी उसका लाभ उठाया जा सकता है। जिस प्रकार शत्रु का भय सदैव सतर्क एवं संबद्ध बना देता है, सुरक्षा के प्रबंधों तथा व्यवस्था के लिए सक्रिय रखता है उसी प्रकार मृत्यु को एक आकस्मिक आपत्ति समझकर सतर्क एवं सावधान हुआ जा सकता है। यह बात सत्य है कि मनुष्य शरीर छोड़ने से उतना नहीं डरता जितना मृत्यु के बाद न जाने क्या गति होगी इस विचार से भयभीत होता है। उसे आशंका रहती है कि मृत्यु के बाद उसे कीट पतंगो की तरह निकृष्ट योनियों में जाना होगा। बैल, भैंसा, घोड़ा बनकर वह सब यातना सहन करनी होगी जैसे हम आज अपनी आंखों से उन्हें भोगते देख रहे हैं।

यदि यह आशंका मृत्यु भय को जन्म देती है- तब क्यों न ऐसे कर्मों, ऐसी गतिविधियों में संलग्न हो जाया जाये जिससे कि अंधेर लोकों तथा अधम योनियों की आशंका दूर हो जाये। अधिक से अधिक जितना प्रकाश, जितना आलोक हम इकट्ठा कर सके क्यों न करले। इसमें तो कोई संदेह ही नहीं कि उजाले की प्राप्ति उज्ज्वल एवं आदर्श कर्मों से होती है। पुण्य, परमार्थ, परोपकार, परसेवा और पावन जीवन की पद्धति से आत्मा में अक्षय प्रकाश के भंडार भर जाते हैं। इससे पूर्व कि मृत्यु आये और अपमान पूर्वक चोटी पकड़ कर घसीट ले जाये क्यों न सत्पथ पर अग्रसर होकर प्रकाश का प्रबन्ध कर लिया जाये। क्यों न उस पुण्य प्रधान संबल को एकत्र कर लिया जाये जो हमारा, हमारी आत्मा की अनन्त एवं अगत पथ में सहायक बने।

इस विषय में साधन, सामान की शिकायत करना उचित नहीं। कोई भी सत्कर्म फिर चाहे वह छोटा हो अथवा बड़ा सच्ची परमार्थ भावना से किया गया है समान फल ही उत्पन्न करता है। क्योंकि कर्म से भावना ही प्रधान होती है उसका आकार-प्रकार नहीं। आइये, हम अपनी वासनाओं तथा एषणाओं को त्याग कर स्वार्थ तथा संकीर्णता की तिलाँजलि देकर क्रूरता, कपट और असत्य को बहिष्कृत कर द्वेष , दुर्भाव, तथा दयनीयता को छोड़कर- दया , दाक्षिण्य, उदारता, प्रेम, सौहार्द्र, दान तथा धर्म भावना के अक्षय दीप जला ले तब देखे मृत्यु का भय, परलोक का अन्धकार हमारी तटस्थ बुद्धि को किस प्रकार विचलित कर सकता है। अपने अधूरे कामों को पूरा करने में जुट जाइये, अपने कर्त्तव्यों से मुँह न चुराइये, पुण्य परोपकार का कोई अवसर न जाने दीजिये और अपनी आत्मा पर विश्वास कर जीवन को प्रखर गति से आगे बढ़ाइये, मृत्यु से भयभीत होने का कोई कारण न रह जायेगा। भावना के बदलते ही पश्चाताप के साथ क्रियाशील हो उठने पर मनुष्य के पूर्व अपराध क्षमा कर दिये जाते हैं और उसे एकबार फिर अपना सुधार करने और सुपथ निर्माण करने के लिए समय व अवसर दिया जाता है। यह तो साधारण साँसारिक व्यवहार में भी होता रहता है फिर उस परमपिता की सुन्दर, करुण और दयापूर्ण विधान धार में तो यह और भी सरल है।

मनुष्य किसी कारण से नहीं स्वयं अपने कर्मों से मारा जाता है- योगवशिष्ठ

इस साधारण पक्ष के साथ-साथ मृत्यु के सम्बन्ध में एक अधिक गहरा और सत्य पक्ष भी हैं। मनुष्य का जीवन दो तत्वों से मिलकर बना है। शरीर और उसमें निवास करने वाली चेतना। जीवन का चेतन-तत्व ही तो वास्तव में हम है। यह मृतिका पिंड तो उस चेतन की अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र है। उसका वाहन भर ही है। रथ में बैठकर चलने वाला मनुष्य यदि स्वयं को रथ मान ले तो उसके नष्ट हो जाने पर मनुष्य को स्वयं अपने ही नष्ट मान लेना चाहिए। किन्तु ऐसा होता कहाँ है। रथ के नष्ट हो जाने पर भी उसका रथी यथावत बना ही रहता है। हाँ जब उसको अपने वाहन के प्रति अनुचित ममता हो जाती है उसे ही अपना अस्तित्व एवं सर्वस्व मान बैठता है तो अवश्य ही उसके नष्ट होने अथवा नष्ट होने की कल्पना से दुःख होता है। किन्तु यह तो अज्ञान है। इसको किसी भी प्रकार मान्यता नहीं दी जा सकती।

अपने को शरीर समझने वाले अज्ञानी व्यक्ति ही तो मृत्यु अर्थात् देहावसान से भयभीत रहा करते हैं। जो बुद्धिमान अपने को चेतन स्वरूप समझते है- वह मृत्यु के भय से कदापि क्लाँत नहीं होते। चेतन अथवा आत्मा अक्षय तथा अजर-अमर है उसकी मृत्यु होना तो दूर उसे कोई विकार तक नहीं घेरता। और यही अमर आत्मा ही तो मनुष्य का वास्तविक अस्तित्व, उसका सच्चा स्वरूप है। देहाभिमान ही मृत्यु का मूल कारण है। इसे छोड़कर अपने सत्य स्वरूप आत्मा में विश्वास करिये आपको मृत्यु का भय होने का कोई कारण ही न रह जायेगा। शरीर तो आत्मा की सहायता, उसका अलंकरण तथा प्रकाश करने के लिये बदलते ही रहते हैं। हर पात के बाद आत्मा को एक नया तथा सुन्दर शरीर मिलता है। भगवान ने गीता में इस सत्य का उद्घाटन करते हुये स्पष्ट घोषणा कर दी है।

वासाँसि जीणानि यथा विहाय, नवानि गृहाति नरोपराणि तथा शरीराणि विहाय जीर्णा, न्यन्यानि संयाति नवानि देही

अब इतने पर भी यदि कोई व्यक्ति मृत्यु से भयभीत होता है तो यह उसका दुर्भाग्य ही है कि वह जो कुछ है, वह अपने को न मान कर वह मानता है जो वास्तव में है नहीं ।

इस सत्य से कौन इनकार कर सकता है कि दिनभर काम करने के बाद शरीर थक जाता है तो रात्रि में विश्राम की आवश्यकता होती है। मनुष्य मीठी नींद सोकर दूसरे दिन के लिये नई स्फूर्ति तथा शक्ति से भर जाता है। तब जीवन की एक लम्बी अवधि तक चलते रहने पर आत्मा यदि विश्राम करने के लिये मृत्यु रूपी नींद की गोद में चली जाती है तो इसमें खेद की क्या बात है। मृत्यु का एक विश्राम लेकर वह पुनः किसी दूसरे शरीर में जागती है और नवीन स्फूर्ति नये उत्साह से अपने लक्ष्य मोक्ष की अग्रसर हो चलती है।

एक नहीं हजार तर्क और युक्तियों से यह बात सिद्ध होती है कि मृत्यु यदि उसका वरण ठीक स्थिति में किया जाये तो जीवन से कही अधिक सुखकर तथा विश्रामदायिका हो पाई जाती है। महात्मा गाँधी के इस कथन में कितना यथार्थ सत्य छिपा हुआ है। इनको देख समझ कर भी क्या मृत्यु से घबराने, उससे घृणा करने अथवा उसे अवरणीय मानने का कोई इरादा हो सकता है। वे लिखते है-

‘ मुझे तो बहुत बार ऐसा लगता है कि मृत्यु को जीवन की अपेक्षा अधिक सुन्दर होना चाहिए। जन्म से पूर्व माँ के गर्भ में जो यातना भोगनी पड़ती है उसे छोड़ देता हूँ पर जन्म लेने के बाद तो सारे जीवन भर यातनायें ही भुगतनी पड़ती है। इसका तो हमें प्रत्यक्ष अनुभव है। जीवन की पराधीनता हर मनुष्य के लिए एक सी है। जीवन यदि स्वच्छ रहा तो मृत्यु के बाद पराधीनता जैसी कोई बात न होनी चाहिए। बालक जन्म लेता है तो उसमें किसी तरह का ज्ञान नहीं होता। ज्ञान के लिए कितना परिश्रम करना पड़ता है फिर भी आत्मज्ञान नहीं हो पाता, पर मृत्यु के बाद तो ब्राह्मी स्थिति का बोध सहज ही हो जाता है। सदाचार का अभ्यास इसीलिए तो जीवन में आवश्यक बताया जाता है ताकि मृत्यु होते ही मनुष्य शाश्वत शाँति की स्थिति प्राप्त कर ले। ‘

वास्तविक बात तो यह है कि जिस मनुष्य ने अपने अपकर्मों द्वारा जीवन को काला बना लिया है। पुण्य प्रकाश से कोई वास्ता नहीं रखा उसका मृत्यु से डरना तो क्या जीवन तक से डर लगा करता है। सदाचार और पुण्य परमार्थ से आलोकित जिन्दगी में तो आनन्द है ही मृत्यु के पश्चात तो अक्षय आनन्द के कोष खुल जाते हैं। मृत्यु का भय छोड़िये और अपने पुण्य पुरुषार्थ द्वारा जीवन एवं मृत्यु दोनों को एक वीर योद्धा की तरह विजय कर अक्षय पद प्राप्त कर लीजिये।


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