दो पहिये बिना गाड़ी नहीं चल सकती। नर और नारी के घनिष्ठ सहयोग बिना सृष्टि का व्यवस्था क्रम नहीं चल सकता। दोनों का मिलन काम तृप्ति और प्रजनन जैसे पशु प्रयोजन के लिए नहीं होता वरन् घर बसाने से लेकर व्यक्तित्वों के विकास और सामाजिक प्रगति तक समस्त सत्प्रवृत्तियों का ढाँचा दोनों के सहयोग से ही संभव होता है। यह घनिष्ठता जितनी प्रगाढ़ होगी विकास और उल्लास की प्रक्रिया उतनी ही सघन होती चली जाएगी।
कुछ समय से नर -नारी के सान्निध्य का प्रश्न अतिवाद के दो अन्तिम सिरों के साथ जोड़ दिया गया है। एक ओर नारी को इतनी आकर्षक चित्रित किया गया कि उसकी चंचलता को ही सृष्टि की सबसे बड़ी विभूति सिद्ध कर दिया गया। कला ने नारी के अंग-प्रत्यंग की सुडौलता को इतना सराहा कि सामान्य भावुक व्यक्ति यह सोचने के लिए विवश हो गया कि ऐसी सुन्दरता को काम-तृप्ति के लिए प्राप्त कर लेना जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। काव्य, संगीत, नृत्य , अभिनय, चित्र, मूर्ति आदि कला के समस्त अंग जब नारी की माँसलता और कामुकता ही आकाश तक पहुँचाने में जुट जाये तो बेचारी लोक को उधर मुड़ना ही पड़ेगा। इस कुचेष्टा का घातक परिणाम सामने आया । यौन प्रवृत्तियां भड़की, नर-नारी के बीच का सौजन्य चला गया और एक दूसरे के लिए अहित कर बन गये। यौन रोगों की बाढ़ आई, शरीर व मन जर्जर हो गया, पीढ़ियां दुर्बल से दुर्बलतर होती चली गई। दुर्बल काया और मनः स्थिति को मनुष्य दीन-हीन और पतित पापी ही बन सकता था बनता चला गया। नारी को रमणी सिद्ध करके तुच्छ मनोरंजन भले पाया हो पर उससे जो हानि हुई उसकी कल्पना कर सकना भी कठिन है। जिनने भी मानवीय प्रकृतियों को इस पतनोन्मुख दिशा में मोड़ने के लिए प्रयत्न किया है वस्तुतः एक दिन वे मानवीय विवेक और ईश्वरीय न्याय की अदालत में अपराधियों की तरह खड़े किए जायेंगे।
अतिवाद का एक सिरा यह है कि कामिनी, रमणी, वैश्या आदि बना कर उसे आकर्षण का केन्द्र बनाया गया। अतिवाद का दूसरा सिरा यह है कि उसे पर्दे घूँघट की कठोर जंजीरों में जकड़ कर अपंग सदृश बना दिया गया। उस पर इतने प्रतिबंध लगाये गये जितने बन्दी और पशु भी सहन नहीं कर सकते। घर की छोटी-सी कोठरी में कैद नववधू के लिए परिवार के छोटी आयु वालो के सामने ही बोलने की छूट है। बड़ी आयु वालो से तो उसे पर्दा ही करना चाहिए। न उनके सामने मुँह खोला जा सकता है और न उनसे बात की जा सकती है। पशु को मुँह पर नकाब लगाकर नहीं रहना पड़ता। वे दूसरों के चेहरे देख सकते हैं और अपने दिखा सकते हैं। जब मर्जी हो चाहे जिसके सामने टूटी-फूटी वाणी बोल सकते हैं। पर नारी को इतने अधिकार से भी वंचित कर दिया गया।
इस अमानवीय प्रतिबंध की प्रतिक्रिया बुरी हुई। नारी शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत पिछड़ गई। भारत में नर की अपेक्षा नारी की मृत्यु दर बहुत अधिक है। मानसिक दृष्टि से वह आत्महीनता की ग्रंथियों में जकड़ी पड़ी है। सहमी, झिझकी, डरी, घबराई, दीन-हीन अपराधिन की तरह यहां वहां लुकती छिपती देखी जा सकती है आज औसत नारी उस नीबू की तरह है जिसका रस निचोड़ कर उसे कूड़े में फेंक दिया जाता है। नव-यौवन के दो चार वर्ष ही उसकी उपयोगिता प्रेमी पतिदेव की आंखों में रहती है। अनाचार की वेदी पर जैसे ही उस सौंदर्य की बलि चढ़ी कि वह दासी मात्र शेष रह जाती है। जीवन की लाश का भार ढोती हुई- गोदी के बच्चों के लिए वह किसी प्रकार मौत के दिन पूरे करती है। जो था वह दो-चार वर्ष में लुट गया अब बेचारी को कठोर परिश्रम के बदले पेट भरने के लिये रोटी और पहनने को कपड़े भर पाने का अधिकार है। बन्दिनी का अन्तः करण इस स्थिति के विरुद्ध भीतर ही भीतर विद्रोही बना रहे प्रत्यक्षतः वह कुछ न कर सकने की परिस्थितियों में ही जकड़ी होती है सो गम खाने और आँसू पीने के अतिरिक्त उसके पास कुछ चारा नहीं रह जाता।
ऐसी विषम स्थिति में पड़ी हुई नारी का व्यक्ति उसके अपने लिए- परिवार के लिए- बच्चों के लिए- कुछ अधिक उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकता। जो खुद ही मर रहा है वह दूसरों को जीवन क्या देगा ? समाज की कैसी विडम्बना है कि एक ओर जहाँ नारी को आकर्षण केन्द्र मानकर उसके गुणानुवाद गाने में सारी भावुकता जुटायी। दूसरी ओर उसे इतना पद-दलित, पीड़ित प्रतिबंधित करने की नृशंसता अपनाई। यह दोनों अतिवादी सिरे ऐसे है जिनका समन्वय कर सकना कठिन है।
तीसरा एक ओर अतिवाद पनपा। अध्यात्म के मंच से एक और बेसुरा राग अलापा गया कि नारी ही दोष दुर्गुणों की पाप पतन की जड़ है इसलिए उससे सर्वथा दूर रहकर ही स्वर्ग मुक्ति और सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। इस सनक के प्रतिपादन में न जाने क्या क्या घडंत घड कर खड़ी कर दी गई। लोग घर छोड़कर भागने में - स्त्री बच्चों को बिलखता छोड़कर भीख माँगने और दर-दर भटकने के लिए निकल पड़े। आन्तरिक अतृप्ति ने उनकी मनोभूमि को सर्वथा विकृत कर दिया और वे तथाकथित संत महात्मा सामान्य नागरिकों की अपेक्षा भी गई गुजरी मनः स्थिति के दलदल में फँस गये। विरक्ति का जितना ढोंग उनने बनाया अनुरक्ति की प्रतिक्रिया उतनी ही उग्र होती चली गई। स्वाभाविक की उपेक्षा करके अस्वाभाविक के जाल जंजाल में बुरी तरह जकड़ गये है। “बन्दर का चिन्तन न करेंगे “ ऐसी प्रतिज्ञा आते ही बरबस बन्दर स्मृति में आकर उछल कूद मचाने लगता है। यों स्वाभाविक रूप से बंदर के बारे में कुछ न सोचा होता तो शायद वर्षों उसका स्मरण न आता। इस तथाकथित वैराग्य में नारी को पतन बताकर कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं किया गया। पर्दे के पीछे जो होता रहता है वह दयनीय है। अतिवाद कभी भी उपयोगी नहीं रहा। काम तो मध्यम मार्ग से चलता है उसी को अपनाकर कोई श्रेयाधिकारी बन सकता है।
काम को निकृष्ट प्रबन्धक न बनने दिया जाये तो वह शक्ति का स्रोत और आनन्द का झरना है। - इमर्सन
आध्यात्मिक काम विज्ञान का प्रतिपादन यह है कि अतिवाद की भारी दीवारें गिरा दी जाय और नारी को नर की ही भांति सामान्य और स्वाभाविक स्थिति में रहने दिया जाय। इससे एक बड़ी अनीति का अन्त हो जायेगा। अतिवाद के दोना ही पक्ष नारी के वर्चस्व पर भारी चोट पहुँचाते हैं और उसे दुर्बल जर्जर और अनुपयोगी बनाते हैं। इसलिए इन जाल-जंजालों से उसे मुक्त करने के लिए उग्र और समर्थ प्रयत्न किये जाये।
प्रयत्न होना चाहिए कि नारी की माँसलता की अवाँछनीय अभिव्यक्तियाँ उभारने वालो से अनुरोध किया जाये कि विष बुझे तीर कृपाकर तरकस में बन्द कर ले। इस दिशा में बहुत आगे बढ़ गये है। उनने तलवार लगने पर जैसी कुचेष्टा की आशंका की करतूतें प्रारम्भ कर दी है। आग लगा देना सरल है बुझाना कठिन। मनुष्य की पशु प्रकृतियों को और काम विकारों को भड़का देना सरल है उभार से जो सर्वनाश हो सकता है उससे बचाव ढूंढ़ना कठिन है। नासमझ लड़के लड़कियों पर सिनेमा क्या प्रभाव डाल रहा है और उनकी को किधर घसीटे लिये जा रहा है इस पर दृष्टि डालने वाला दुःखी हुये बिना नहीं रहेगा। अन्य क्षेत्रों में काम करने वाले विभूतिवानों से प्रार्थना की जाय कि वे नारी को पददलित करने के पूर्ण अभियान में जितना कुछ कर चुके उतना ही मान ले आगे की ओर निशाना न साधे। कवि लोग ऐसे गीत न लिखे जिनसे विकारोत्तेजक प्रवृत्तियां भड़के। साहित्यकार- उपन्यासकार कलम से नारी के गोपनीय संदर्भों पर भड़काने वाली चर्चा छोड़कर सरस्वती की साधना करे। अगणित धाराओं में प्रयुक्त कर अपनी प्रतिभा का परिचय दे। गायक विकारोत्तेजना और शृंगाररस को कुछ दिन तक विश्राम कर लेने दे। गायन का अर्थ ही पिछले दिनों कामेन्द्रिय रहा है। राज्य दरबारों से लेकर मनचले आवारा हिप्पियों तक उसी को माँगा जाता रहा है। अब कुछ दिन से गान विश्राम ले ले और दूसरे रसों को भी जीवित रहने का अवसर मिल जाये तो क्या हर्ज है ? कुछ दिन तक घुंघरू न बजे, पायल न खनके तो भी कला जीवित रहेगी। चित्रकार नव यौवना की शालीनता पर पर्दा पड़ा रहने दे, पतित दुशासन द्वारा द्रौपदी को नंगी करने की कुचेष्टा न करे तो भी उनकी चित्रकारिता सराही जा सकती है। चित्रकला के दूसरे पक्ष भी है क्यों न कुशल चित्रकार सुरुचि उत्पन्न करने वाले चित्र बनाये । इन महारथी कलाकारों से कहा जाये कि सौजन्य का बालक अभिमन्यु इस बुरी तरह न मारा जाय। महाभारत का वह कुकृत्य महारथियों के माथे पर कलंक का टीका ही लगा गया। अब फिर कलाकार महारथियों के चक्रव्यूह में फँसा शालीनता का अभिमन्यु उसी तरह मारा गया तो यह भारत- महाभारत - समस्त संसार की दृष्टि में आदर्शवादिता और आध्यात्मिकता का ढिंढोरा पीटने वाला दम्भी ही माना जायेगा। जिस देश के कलाकार तक अपना उत्तरदायित्व न समझे उस देश के नागरिकों से कोई क्या आशा करेगा ? कलाकारों को कहा जाना चाहिए कि वे कृपाकर अपने कदम पीछे हटा ले। उनके इस अनुग्रह के बिना नारी की शीलता, पवित्रता, उत्कृष्टता और समर्थता को बचाया जा सकेगा।
इन्द्रियजन्य वासनायें उपभोग से शाँत नहीं होती , बढ़ती है जैसे आग में घृत की आहुति। -वेदव्यास
नारी के प्रति हमारा चिन्तन सखा, सहचर और मित्र जैसा सरल स्वाभाविक होना चाहिए। उसे सामान्य मनुष्य से न अधिक माना जाय न कम। पुरुष और पुरुष, स्त्रियाँ और स्त्रियाँ जब मिलते हैं तो उनके असंख्य प्रयोजन होते हैं, काम सेवन जैसी बात वे सोचते भी नहीं । ऐसे ही नर नारी का मिलन भी स्वाभाविक सरल और सौम्य बनाना चाहिए। इसी प्रकार रूढ़िवादियों से कहा जाना चाहिए कि प्रतिबंधों से व्यभिचार रुकेगा नहीं बढ़ेगा। जिस स्त्री का मुँह ढका होता है उसे देखने का मन चलेगा पर मुँह खोले सड़क की हजारों लाखों स्त्रियो में से किसी की ओर नजर गड़ाने की इच्छा नहीं होती चाहे वे रूपवान हो या कुरूप। पर्दा यह मान्यता मजबूत करता है कि नारी-नर का संपर्क वासना के अतिरिक्त और किसी प्रयोजन के लिए नहीं हो सकता। हमें अपनी बहिन, बेटी, माता, और पत्नी पर इतना विश्वास करना ही चाहिए कि वे बिना किसी प्रतिबन्ध के स्वेच्छा पूर्वक अपनी शालीनता अक्षुण्ण रख सकने में समर्थ है। जब शासक, सामान्य निरीह प्रजा की बहिन बेटियों की इज्जत लूटने के लिए भेड़ियों की तरह गली कूंचों में फिरते रहते थे वह जमाना बहुत पीछे रह गया। अब हम आत्म रक्षा के लिए उपयुक्त परिस्थितियों के बीच जी रहे हैं। फिर क्यों हम घूँघट, पर्दा , प्रतिबंध के बंधनों में उसे जकड़े और क्यों उसके स्वाभिमान जीवन की ईश्वर प्रदत्त सुविधा को छीनने का पाप कमाये ? इसी प्रकार अध्यात्मवाद के नाम पर नारी तिरस्कार और बहिष्कार की बेवक्त शहनाई बंद कर देनी चाहिए। जिन भगवान की हम उपासना करते हैं वे स्वयं सपत्नीक है। राम, कृष्ण, शिव, विष्णु आदि किसी भी देवता को ले सभी विवाहित है। सरस्वती, लक्ष्मी, काली जैसी देवियों तक को दाम्पत्य जीवन स्वीकार रहा है। हर भगवान और हर देवता के साथ उनकी पत्नियाँ विराजमान है फिर उनके मनो को अपने इष्ट देवों से भी आगे निकल जाने की बात क्यों सोचनी चाहिए ?
सप्त ऋषियों में सातों के सातों विवाहित थे और उनके साधना काल की तपश्चर्या अवधि में भी पत्नियाँ उनके साथ रही। इससे उनके कार्य में बाधा रत्ती भर नहीं पहुँची वरन् सहायता ही मिली। प्राचीन काल में जब विवेक पूर्ण अध्यात्म जीवित था तब कोई सोच भी नहीं सकता था कि आत्मिक प्रगति में नारी के कारण कोई बाधा उत्पन्न होगी।
रामकृष्ण परमहंस को विवाह की आवश्यकता अनुभव हुई और उनने उस व्यवस्था को तब जुटाया जब वे आत्मिक प्रगति के ऊँचे स्तर पर पहुँच चुके थे। काम सेवन और नारी सान्निध्य एक बात नहीं है। योगी अरविन्द घोष की साधना का स्तर कितना ऊँचा था उसमें संदेह करने की कोई गुंजाइश नहीं है। उनके एकाकी जीवन की पूरी सार संभाल “माताजी” करती रही। इस संपर्क से दोनों में आत्मिक महत्ता बढ़ी ही घटी नहीं। प्रातःस्मरणीय माताजी ने अरविन्द के संपर्क से भारी प्रकाश आया और योगिराज को यह सान्निध्य गंगा के समान पुष्प फलदायक सिद्ध हुआ। तपस्वी ऋषि सपत्नीक स्थिति में रहते थे। जब जरूरत पड़ती प्रजनन की व्यवस्था बनाते अन्यथा आजीवन ब्रह्मचारी रहकर भी नारी सान्निध्य की व्यवस्था बनाये रखते। यह उनके विवेक पर निर्भर रहता था प्रतिबन्ध ऐसा कुछ नहीं था। संत लोग अपना व्यक्तिगत जीवन विवाहित या अविवाहित जैसा भी बिताये पर कम से कम उन्हें इस अतिवाद का ढिंढोरा पीटना तो बन्द कर देना चाहिए जिसके अनुसार नारी का नरक की खान कहा जाता है। यदि ऐसा वस्तुतः होता तो गाँधी जी जैसे सन्त नारी त्याग की बात सोचते। कोई अधिक सेवा सुविधा की दृष्टि से अविवाहित रहे तो यह उसका व्यक्तिगत निर्णय है। सच तो यह है कि सन्त लोग यदि सपत्नीक सेवा कार्य में जुटे तो वे अपना आदर्श लोगों के सामने प्रस्तुत करके उच्च स्तरीय गृहस्थ जीवन की संभावना प्रत्यक्ष प्रमाण की तरह प्रस्तुत कर सकते हैं।
काम का अर्थ विनोद, उल्लास और आनन्द है। मैथुन को ही ‘काम’ नहीं कहते। काम क्षेत्र की परिधि में वह भी एक बहुत ही छोटा और नगण्य या माध्यम हो सकता है। यदाकदा ही उसकी उपयोगिता होती है। इसलिए मैथुन को एक कोने पर रखकर -उपेक्षणीय मानकर भी काम लाभ किया जाता है। स्नेह, सद्भाव, विनोद, उल्लास की उच्च स्तरीय अभिव्यक्तियां जिस परिधि में आती है उसे आध्यात्मिक काम कह सकते हैं। नारी और नर को इस भाव प्रवाह से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। घर में बहिन, बेटी, माता, भावज, चाची, दादी, भुआ, भतीजी आदि के साथ रहकर उनके साथ प्यार दुलार के पवित्र संबंधों सहित आनन्दित जीवन जिया जा सकता है तो घर से बाहर की परिधि में ऐसा क्यों नहीं हो सकता ? हम पड़ोसी के परिवार में भी अपने ही घर परिवार की तरह बिना नर नारी का भेदभाव किये प्यार दुलार क्यों नहीं बिखेर सकते ?
नर नारी के बीच व्यापक सद्भाव- सहयोग की- संपर्क की - स्थिति में व्यक्ति और समाज का विकास ही संभव है। उससे हानि रत्ती भर भी नहीं । पुरुष डाक्टर नारी के प्रजनन अवयवों तक का आवश्यकतानुसार आपरेशन करते हैं। उसमें न तो पाप है, न अश्लील न अनर्थ। रेलगाड़ियों की भीड़ में नर-नारियों के शरीर पिचे रहते हैं। जहाँ पाप वृत्ति न हो वहाँ शरीर का स्पर्श दूषित कैसे होगा ? हम अपनी युवा पुत्री के सिर और पीठ पर स्नेह का हाथ फेरते हैं तो पाप कहा लगता है। सान्निध्य पाप नहीं है। पाप तो एक अलग ही छूत की बीमारी है जो तस्वीरें देखकर भी चित्त को उद्विग्न करने में समर्थ है। इलाज इस बीमारी का किया जाना चाहिए। इस अनीति को जब तक बरता जाएगा, नारी की स्थिति दयनीय ही बनी रहेगी और इस पाप का फल व्यक्ति और समाज को असंख्य अभिशप्तों के रूप में बराबर भुगतना पड़ेगा।
भगवान वह शुभ दिन जल्दी ही लाये जब नर-नारी स्नेह सहयोगी की तरह - मित्र और सखा की तरह- एक दूसरे के पूरक बनकर सरल स्वाभाविक नागरिकता का आनन्द लेते हुए जीवनयापन कर सकने की मनः स्थिति प्राप्त कर ले। हम विकारों को रोके- सान्निध्य को नहीं। सान्निध्य रोक कर विचारो पर नियंत्रण पा सकना सम्भव नहीं है। इसलिए हमें उन स्रोतों को बन्द करना पड़ेगा जो विकार और व्यभिचार भड़काने में उत्तरदायी है। अग्नि और सोम, प्राण और रवि, ऋण और धन विद्युत प्रवाहों का समन्वय इस सृष्टि से संचरण और उल्लास की अग्रगामी बनाता चला आ रहा है। नर-नारी का सौम्य संपर्क बढ़ा कर हमें खोना कुछ नहीं- पाना अपार है।