विकासवाद अथवा जीवात्मा का पतनवाद

February 1971

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महर्षि वशिष्ठ राम को पुनर्जन्म प्रकरण पढ़ा रहे थे। उस समय की बात है जब एक प्रसंग में उन्होंने राम को बताया-

आशापाश शताबद्धा वासनाभाव धारिणः । कायात्कायमुपायान्ति वृक्षाद्वृक्षमिवाण्डजा ॥

हे राम! मनुष्य का मन सैकड़ों आशाओं और वासनाओं के बन्धन में बँधा हुआ मृत्यु के उपरान्त उन क्षुद्र वासनाओं की पूर्ति वाली योनियों और शरीरों में उसी प्रकार चला जाता है जिस प्रकार एक पक्षी एक वृक्ष को छोड़कर फल की आशा से दूसरे वृक्ष में बैठता है।

मनुष्य जैसा विचारशील प्राणी इतर योनियों - मक्खी, मच्छर, मेढक, साँप, भैंस, नेवला, शेर, बाघ, चीता , भेड़िया, कौवा आदि योनियों में किस प्रकार चला जाता होगा। यह बात राम की समझ में नहीं आई। उन्होंने अपनी शंका महर्षि के समक्ष प्रकट की और कहा भगवन्! मनुष्य जैसा समझदार व्यक्ति भला दूसरी योनियाँ क्यों पसन्द करेगा ? इस पर महर्षि ने राम को जिस ढंग से जीवात्मा द्वारा अन्य शरीर धारण करने की अवस्था और मनोविज्ञान समझाया है वह वस्तुतः हर विचारशील प्राणी के लिए मनन करने की अत्यन्त महत्वपूर्ण वस्तु है- वशिष्ठ ने राम को वह तत्वज्ञान जिन शब्दों में दिया योग वशिष्ठ में उन्हें तीसरे अध्याय के 55 सूत्र में 39, 40, 41 और 4 श्लोकों में इस प्रकार बताया है-

हे राम! वीर्य रूप में जीवात्मा ही स्त्री की योनि में आता है और गर्भ में पककर एक बालक का रूप धारण करता है। (यहां शास्त्राकार का कथन प्रामाणिक है जिसमें आत्मा को अणोरणीयान् अर्थात्- सूक्ष्म से भी सूक्ष्म कहा गया है पुरुष शरीर का वीर्य कोष (स्पर्म) अत्यन्त सूक्ष्म अणु होता है) और अपने पूर्व जन्म के संस्कारों के अनुरूप अच्छा या बुरा शरीर प्राप्त करता है। बालक धीरे-धीरे बढ़ने लगता है और इस प्रकार वह युवावस्था में पदार्पण करता है। पकी हुयी इंद्रियां अपने सुख माँगती है कुछ पूरी होती है अधिकाँश अधूरी। अधूरी रह गई वासनायें महत्वाकाँक्षायें वह मनुष्य अपने मन में भीतर ही भीतर दबाता रहता है क्योंकि एक बार उठी वासना जब तक पूर्ण नहीं हो जाती वह बलवती होती रहती है। फ्रायड ने स्वप्न प्रकरण में स्वीकार किया है कि मनुष्य की दमित वासनायें ही स्वप्न में उसी तरह के काल्पनिक चित्र तैयार करती है और मनुष्य अद्भुत तथा अटपटे स्वप्न देखता है। वासनाओं के दमन से शरीर के पंच भौतिक पदार्थों पर दबाव पड़ता है और वे क्रमशः कमजोर होते चले जाते हैं जिससे वृद्धावस्था आ जाती है और मनुष्य का शरीर मर जाता है। गीता में भगवान कृष्ण ने शरीरों को क्षेत्र या जगत कहा है महर्षि वशिष्ठ ने यह जो दूसरे जगत में जाने की बात कही उसका तात्पर्य दूसरी योनि के शरीर में ही है। यह विज्ञान भी मानता है कि अब तक ढूंढ़े गये 108 तत्व ही विभिन्न क्रमों में सजकर विभिन्न प्रकार के कोश और शरीरों की रचना करते हैं। इस प्रकार अपने मन की वासना के अनुरूप जीव तब तक अनेकों शरीर में भ्रमण करता रहता है जब तक उसकी वासनायें पूर्ण शान्त नहीं हो जाती और वह फिर से शुद्ध आत्मा की स्थिति में नहीं आ जाता। प्रबुद्ध आत्मा बालक के रूप में फिर से जन्म लेती है और अब यह उसके अधिकार की बात होती है कि वह अपना फिर से प्राप्त यह सौभाग्य सार्थक करे, आत्म साक्षात्कार, स्वर्ग मुक्ति जैसे पवित्रतम जीवन उद्देश्य को सफल बनाये या फिर से उन्हीं तुच्छ भोग-वासनाओं और अहंकार पूर्ण आकांक्षाओं की दिशा में अपनी प्रगति प्रारंभ करके फिर उन्हीं 84 लाख योनियों में चक्कर काटने के लिए चल दे।

जीवात्मा के बन्धन और मुक्ति के स्वरूप का इन पंक्तियों में महर्षि वशिष्ठ ने इतना सुन्दर और युक्ति संगत दर्शन प्रस्तुत किया है जिसे पढ़कर यही मानना पड़ता है कि उन्होंने अपनी बुद्धि अपने मन को कितना सूक्ष्म और शुद्ध बनाकर इन तथ्यों की खोज की होगी। इस देश में करोड़ों वर्षों तक आत्मा का यह दर्शन लोगों को जीवन मुक्ति की दिशा प्रदान करता रहा। यहाँ का औसत नागरिक भी मूल आत्मा के गुणों और शक्तियों से परिपूर्ण हुआ करता था। थोड़े शब्दों में भारतवर्ष में स्वर्ग ही उतर कर आ गया था।

किन्तु पश्चिम में इस सिद्धान्त से बिल्कुल उलटा “विकास वाद” का सिद्धान्त जब से चल पड़ा तब से जीवात्मा के इस महान् दर्शन का पतन शुरू हुआ और लोग आत्मा को ऊर्ध्वगामी और शक्तिशाली बनाने वाली साधनाओं को छोड़ बैठे। विकासवाद का सिद्धान्त मूल रूप से मनुष्य शरीर का रचना काल ढूंढ़ने और यह शरीर कैसे बना इस रहस्य को जानने के लिए प्रकाश में आया पर उसे जिस रूप में प्रस्तुत किया गया उससे मनुष्य और कला मनुष्य और उसके साथ अनिवार्य रूप से जुड़े मनोविज्ञान का सम्बन्ध टूट गया। एक कोषीय जीवों से जटिल कोशों वाले शरीर की रचना का विकास दरअसल जीवात्मा के पतन का ही उल्टा खड़ा किया हुआ ढाँचा है। संसार में जीवों की संख्या इतनी अधिक है कि उनको एक क्रम में सजाकर यह सिद्ध करना कि मनुष्य शरीर अमीबा जैसे एक कोषीय जीव का विकसित रूप है कोई कठिन काम नहीं है पर विकासवाद का सिद्धान्त आखिर मनुष्य के साथ जुड़े हुए मनोविज्ञान को कहाँ संतुष्ट कर पाता है उसका खड़ा किया हुआ अपना ही ढाँचा अब बेबुनियाद सिद्ध हो रहा है।

उदाहरण के लिये स्वयं डार्विन ने जो कि विकासवाद के जन्मदाता थे यह माना है कि अन्य जीवों विशेष रूप से बंदर के शरीर से मनुष्य शरीर में विकसित होने की शृंखला हम ढूंढ़ नहीं सके। उन्होंने अपनी इस असफलता के बावजूद भी यह कहा कि एक दिन ऐसे अस्थि कंकाल मिलेंगे जो इस खोई हुई कड़ी की पूर्ति करेंगे। पीछे कुछ ऐसे अस्थि कंकाल भी मिले। उदाहरण के लिए 1979 में डॉ0 लीके ने टंगानियका प्रान्त में ओल्डुवहं जार्ह नामक स्थान में खुदाई कराते समय एक कंकाल पाया जिसका नाम “आस्ट्रोलीपि थोकस“ रखा गया । उस मनुष्य के पास ही हथियारों के आकार की कुछ वस्तुयें पाई गई। विकास शास्त्रियों ने उसे मनुष्य का बहुत समीपवर्ती वंशज माना। वैज्ञानिक कून ने पहले ही शंका प्रकट की थी कि विकासवाद की पुष्टि के लिए सबसे पहले वैज्ञानिक जानकारियाँ उपलब्ध की जानी चाहिए यह नहीं मान लेना चाहिए कि विकासवाद ही सही है अन्यथा वैज्ञानिक किसी भी तरीके से प्रमाण जुटाने का प्रयास करेंगे और इस तरह एक गलत सिद्धान्त को भी सच्चा प्रमाणित कर दिया जायेगा। उन्होंने यह बताया कि गिबन आरेन्यूटन, गोरिल्ला और चिम्पैन्जी ये अपना किया हुआ कर्म ही सर्वत्र फल देता है बिना किये कर्म का फल कही किसी ने भोगा है ?

कृतं फलति सर्वत्र, नाकृत भुज्यते क्वाचित् । - वेद व्यास (महाभारत)

चार बंदरों की जातियाँ है जिनमें गोरिल्ला और चिम्पैन्जी मनुष्य की शारीरिक बनावट से बहुत अधिक समानता रखते हैं। इनके कंकाल मनुष्य के कंकाल से मिलते-जुलते होते हैं इसीलिए यह संभव है जिन कंकालों को मनुष्य के और अन्य जीवों के बीच की कड़ी माना जाता है वे कड़ी न होकर किसी बंदरों के कंकाल रहे हो। कम से कम 1979 को खोजे गये अस्थि कंकाल के बारे में यही हुआ। वैज्ञानिकों ने इस कंकाल की खोज करते समय आगे चलकर पाया कि यह अस्थि कंकाल तो कुल 100 वर्ष ही पुराना है और इस जाति के लोग अभी भी धरती पर पाये जाते हैं।

वैज्ञानिक श्री सी0 एस0 कून अपनी पुस्तक दि ओरिजिन ऑफ रेसेस न्यूयार्क 1962 पेज 4 में विकासवाद को गलत बताते हुए लिखा है- अगर मनुष्य की जातियां कुछ हजार साल पहले किसी एक जाति के प्राणी से बनी होती हो तो उन सब जातियों को एक ही भाषा बोलनी चाहिए। एस्किमो और एल्यूट जाति के लोग एक ही भाषा बोलते हैं जबकि दोनों के इतिहास में 2000 वर्ष का अन्तर है। दूसरी ओर आस्ट्रेलिया और तस्मानिया में रहने वाली कुछ जातियां उन जातियों से समानता रखती है जिनको 100000 वर्ष पुराना माना जाता है।

वैज्ञानिक अनुसंधानों से यह भी पता चला है कि प्राचीन काल के मनुष्य का मस्तिष्क आज के मनुष्य के मस्तिष्क से विकसित था। तब के मस्तिष्क की क्षमता 1600 सी. सी. थी जबकि आज 1300 सी. सी. है। विकास क्रम में ऐसा नहीं होना चाहिये था। विकासवाद के अनुसार आदि मानव को बर्बर , असभ्य और जंगली होना था पर भूगर्भ की खुदाई से प्राप्त प्राचीनतम सिक्के, हथियार और कला-कृतियाँ इस बात की प्रमाण है कि आज की अपेक्षा पहले के लोग शरीर मस्तिष्क दोनों से अधिक समर्थ थे। अलेक्जेण्डर मारशाक ने अपनी पुस्तक दि बेटन आफ माटगेडियर नेचुरल हिस्ट्री वालूम एल 396 वर्षा के निरन्तर अध्ययन से इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि प्राचीन मनुष्यों की कला और संस्कृति आज से ऊँचे स्तर की थी। विकासवाद के अनुसार कला को भी विकासोन्मुखी होना चाहिये। इससे प्रकट है कि विकासवाद का सिद्धान्त मनगढ़ंत अधिक तथा तथ्यपूर्ण कम है।

राकशेल्टर 9 औरंगाबाद मध्य प्रदेश की गुफा में जिराफ और खंगधारी घुड़सवार की आकृति बनी है। भारतीय पुरातत्व जिसकी मान्यतायें पाश्चात्य देशों पर ही आधारित है, इस चित्रकारी को ईसा से अधिक से अधिक 1000 वर्ष पुराना माना है जबकि हिन्दुस्तान में इतने समय पहले तक कोई भी जिराफ नहीं पाया जाता था। जिराफ का एक कंकाल हिमालय में मिला था जिसकी आयु 11 लाख वर्ष पूर्व बताई जाती हैं। इसी प्रकार मिर्जापुर की गुफाओं में रामगढ की गुफाओं में, फाँस की गुफाओं में ऐसे चित्र उपलब्ध है जो यह प्रमाणित करते हैं कि मनुष्य जाति अपने प्रादुर्भाव काल से कला और संस्कृति का ज्ञान रखती रही है। यह तथ्य विकासवाद से बिल्कुल उलटे है।

लगभग 211 करोड़ वर्ष पूर्व अमरीका में एक जानवर पाया जाता था उसके अस्थि कंकालों के अध्ययन के आधार पर उसका नाम मूर्खपाद (मोरोपस) रखा गया है इसी तरह के जीव कुछ अन्य जैसे डायनोरस, डेविल कार्क स्क्रू, स्टैबिंग कैट भी उस समय पाये जाते थे। यह अस्थि कंकाल विकास शास्त्रियों के लिये आज भी सिर दर्द है वे यह नहीं समझ पा रहे इन्हें विकास सिद्धान्त की किस श्रेणी में रखा जाये।

हमारा उद्देश्य इन पंक्तियों में विकासवाद की आलोचना करना नहीं यह बताना है कि इस सिद्धान्त ने मनुष्य जीवन के एक शाश्वत सिद्धान्त से किस प्रकार उसका ध्यान खींचकर उसे भ्रमित किया और उसे केवल भौतिक सुखों के ही आकर्षण जाल में फँसने को विवश किया।

मनुष्य से आश्चर्यजनक मनुष्य का मन और उसका मनोविज्ञान है मनुष्य की उत्पत्ति के साथ उसकी पुरानी हड्डियों का सम्बन्ध जोड़कर विकासवाद का सिद्धान्त बना दिया जाये पर उसके मनोविज्ञान के साथ सिद्धान्त तय न किया जाये इससे बढ़कर मूर्खता और दुर्भाग्य क्या हो सकता है। आज विज्ञान मानता है कि संस्कार और सम्पूर्ण मनोमय चेतना कोश के भीतर रहते हैं। वह शक्ति या प्रकाश के रूप में प्रकृति की विलक्षण और जटिलतम रचना है। सृष्टि के समस्त 108 प्रकार के तत्व और उनसे सम्मिश्रित 1ग 2ग 3ग 4ग 5ग 6ग 7ग 8ग 9ग 10ग 11ग 12ग 13ग 14ग 15ग 16ग----ज्ज्ज्ज्ज्ग 108 = प्रकार के गुणों सूत्रों से सम्पन्न कोश (सेल) मनुष्य शरीर में होते हैं यह संस्कार शक्ति के रूप में सदैव भ्रामर रहते हैं। केवल इनमें रासायनिक परिवर्तन हुआ करता है तब फिर यह क्यों न माना जाये कि मनुष्य की चेतना ही अपने एक-एक गुणों का त्याग करती हुई मनुष्य योनि से भटकती हुई अन्य योनियों में भ्रमण किया करती है। इस दृष्टि से यदि नये सिरे से अध्ययन प्रारम्भ किया जावेगा तो पता चलता कि विकासवाद का सिद्धान्त बिलकुल उलटा है और यह सच है कि मनुष्य चेतना ही है जो अपने मूलभूत गुणों को त्यागकर वासनाओं के कारण अन्य शरीरों में भ्रमण को विवश होता है। डॉ0 फ्रायड के अनुसार दमित वासनायें स्वप्न की कल्पना में आती है यदि उसी सिद्धान्त को भारतीय आचार्यों ने यह कहा कि जीवन भर की दबी हुई महत्वाकांक्षायें, वासनायें मन अन्य शरीरों में जाकर चरितार्थ करता है अर्थात् मनुष्य देखने में चाहे कितना ही साफ सुथरा शिक्षित दिखाई देता हो अपनी वासनाएं जब तक नहीं छोड़ता तब तक वह इन निकृष्ट योनियों में जाने को मजबूर होता रहता है इसमें चिढ़ने जैसी कोई बात क्यों हो ?

प्रसिद्ध शल्य चिकित्सक डॉ0 विल्डर पेनफील्ड ने मनुष्य के मस्तिष्क पर अनेक प्रयोग करके बताया है इंच के दसवें भाग जितनी मोटी लगभग 25 वर्ग इंच क्षेत्रफल की मस्तिष्क में काले रंग की दो पट्टियाँ होती है यह पूरे मस्तिष्क को ढके रहती है, मनुष्य जब पुरानी बाते स्मरण करता है तब विद्युत धारायें इन पट्टियों से गुजरती है और घटनायें याद हो जाती है। सामान्य स्थिति में मनुष्य अपनी मानसिक विद्युत को न तो इतना प्रखर बना पाता है और न ही एकाग्र के बिना किसी मदद से इस काली पट्टी के सम्पूर्ण इतिहास का पता लगा सके। पर वैज्ञानिक प्रयोगों ने यह सिद्ध कर दिया है कि मन कभी मरता नहीं अपनी वासना और कर्मों के अनुसार वह बार -बार जन्म लेता और मरता है।

उदाहरण के लिये डॉ0 पेनफील्ड ने एक व्यक्ति की एक काली पट्टी में विद्युत प्रवाहित की तो वह एक गीत गुनगुनाने लगा जो न तो अमरीकन था न जर्मनी। उपस्थित कोई भी व्यक्ति उसे समझ नहीं सका। उस गीत को टेप-रिकार्ड कर लिया गया और भाषा शास्त्रियों की मदद ली गई तो पता चला कि वह भाषा किसी आदिवासी क्षेत्र की थी और वह गाना सचमुच ही उस क्षेत्र के लोग गाया करते हैं। इस तरह की अनेक घटनायें उन्होंने संग्रहित की है। जो यह बताती है कि जीवों में शरीर के विकासवाद को ही पुष्ट करने में लगे रहना समस्त मानव जाति के साथ एक प्रकार का धोखा है। हमें मन और उसके उत्थान या पतन का विज्ञान भी ढूंढ़ना चाहिये यदि मन की शक्ति वैज्ञानिक पा सके और उसे मानव जीवन के साथ जोड़ सके तो आज महर्षि वशिष्ठ की जो बात लोग समझ नहीं पा रहे कल राम की तरह सभी उसे समझने और मनुष्य शरीर में ईश्वरत्व की प्राप्ति करने लगे। जब तक यह नहीं होगा मनुष्य जात पतित और निम्नगामी योनियों में भ्रमण करती रहे तो इसे न तो कौतुक माना जाये न ही अतिशयोक्ति।


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